शनिवार, 1 नवंबर 2008

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.
कितने इल्ज़ाम हैं बाक़ी जो मढोगे उसको.
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वो है खामोश अभी खस्ता किताबों की तरह.
वक़्त आयेगा कि जब रोज़ पढोगे उसको.
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बारहा उसने भी इस घर की हिफाज़त की है,
संगदिल हो! कोई इनआम न दोगे उसको.
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मुझको खतरा है कहीं वो भी न तुम सा हो जाय,
यूँ ही गर रोज़ शिकंजों में कसोगे उसको.
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प्यार से मिल के तो देखो वो नहीं ऐसा बुरा,
पास जाओगे जभी जान सकोगे उसको.
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गुफ्तुगू होगी जो बाहम तो बनेगा माहौल,
कुछ सुनाओगे उसे और सुनोगे उसको.
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2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

प्यार से मिल के तो देखो वो नहीं ऐसा बुरा,
पास जाओगे जभी जान सकोगे उसको.


--बहुत उम्दा!!

subhash Bhadauria ने कहा…

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.
कितने इल्ज़ाम हैं बाकी जो मढ़ोगे उसको.
वो है ख़ामोश अभी ख़स्ता किताबों की तरह,
वक्त आयेगा तो हर रोज़ पढ़ोगे उस को.
ग़ज़ल के सभी अशआर में ताज़ा हालात की मंजरकशी के क्या कहने.सुभान अल्लाह.
ये उर्दू की मश्हूर बहर बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़ है.
जिसका प्रत्येक मिसरे में वज़्न इस प्रकार है-
फाइलातुन फइलातुन- फइलातुन- फेलुन.
2122- 1122- 1122 -22.
पर आपकी उपरोक्त ग़ज़ल के इस मिसरे ऊला में आख़िरी रुक्न वज़्न से मेरे हिसाब से गिर रहा है.
मुझको ख़तरा है कहीं वो भी न तुम सा हो जाय.

तक्तीय- देखें-
फाइलातुन- फइलातुन- फइलातुन- फेलुन.
2122 ----1122- 1122 - 22
मुझकुख़तरा -हकहीं वो-भिन तुम सा- होजाय
यहाँ आख़िरी रुक्न होजाय में दिक्कत आ रही है.
अगर इसे यों करें तो-
मुझको ख़तरा है कहीं वो न बने तुम जैसा
तो मसला हल हो सकता है अर्थ बरकरार रहता है.
ग़ालिब साहब की मश्हूर ग़ज़ल
इश्क पर ज़ोर नहीं है वो आतिश ग़ालिब,
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने.

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता,
ऐक पत्थर तो तबीअत,से उछालो यारो.
(दुश्यन्त कुमार)
ग़ज़ल की मौसिकी ने बहुत देर रोक लिया
बकौले मीर तक़ी मीर-
अब तो जाते हैं मैकदे से मीर,
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया.