बुधवार, 30 जुलाई 2008

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे / जगन्नाथ आज़ाद

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह दामने-मशरिक़ में सेहर होती है
ज़र्रे-ज़र्रे को तजल्ली की ख़बर होती है
और जब नूर का सैलाब गुज़र जाता है
रात भर एक अंधेरे में बसर होती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जैसे गुलशन में दबे पाँव बहार आती है
पत्ती-पत्ती के लिए ले के निखार आती है
और फिर वक़्त वो आता है कि हर मौजे-सबा
अपने दामन में लिए गर्दो-गुबार आती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह महवे-सफर हो कोई वीराने में
और रस्ते में कहीं कोई खियाबाँ आ जाय
चन्द लम्हों में खियाबाँ के गुज़र जाने पर
सामने फिर वही दुनियाए-बियाबाँ आ जाय
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे
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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

डा० साहब,हृदय से मेरा प्रणाम स्वीकार करें। ब्लागों पर टहलते-टहलते आपके ब्लाग तक पहुँचा और लगातार पाँच घण्टे तक तब तक पढ़ता रहा,जब तक पूरा ब्लाग समाप्त नहीं कर लिया। कभी पढ़ा था-स हितकरः इति साहित्यः! जो हितकर है वही साहित्य है।ब्लाग की सम्पूर्ण रचनाएँ चाहे वह आप की हों या किसी अन्य की,जहाँ समाजोपयोगी हैं वहीं आपके शुद्ध,परिष्कृत,एवं द्वन्द्व रहित मानसिकता को अपनें सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ व्यक्त करतीं हैं।भांति-भांति के वाद-विवाद से ग्रसित भारतीय समाज एवं विद्वान से लगनें वाले लोग हितकर छोड़ नाम और दाम के नश्वर- लोभ में रुचिकर गढ़नें में लगे हों, वहाँ आप जैसे शाश्वत मूल्याधारित चिन्तक,रचनाकार एवं शुद्ध भारतीय के लिए मै इतना ही कह सकता हूँ कि ॥ जीवेम शरदः शतम ॥