बुधवार, 30 जुलाई 2008

वज़ीर आगा की एक ग़ज़ल

सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊं वो झोंका जो मेरे पास नहीं
पिघल चुका हूँ तमाज़त में आफताब की मैं
मेरा वुजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं
मेरे नसीब में कब थी बरहनगी अपनी
मिली वो मुझको तमन्ना कि बे-लिबास नहीं
किधर से उतरे कहाँ आके तुझ से मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रू-शनास नहीं
खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं
लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बॉस नहीं
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