बुधवार, 30 जुलाई 2008

फ़राग़त / बलराज कोमल

यूँ तेरी निगाहों से गिला कुछ भी नहीं था
इस दिल ने तो बेकार यूँ ही बैठे-बिठाए
वीरानिए-लम्हात को बहलाने की ख़ातिर
अफ़साने गढे, बातें बनायी थीं हज़ारों
ये इश्क का अफसाना जो फिर छेड़ा है तू ने
बेकार है अब वक़्त कहाँ उसको सुनूँ मैं
जब तुमको फ़रागत न थी, अब मुझ को नहीं है।
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3 टिप्‍पणियां:

अमिताभ मीत ने कहा…

आह ! आज का दिन इस नज़्म के नाम.

Udan Tashtari ने कहा…

आनन्द आ गया. पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

गरिमा ने कहा…

सुन्दर!!!