[ 1 ]
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
[ 2 ]
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जनता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
[ 3 ]
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.
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बुधवार, 23 जुलाई 2008
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2 टिप्पणियां:
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
--बहुत उम्दा...वाह!पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
मेरे सबसे प्रिय आधुनिक उर्दू शायरों में एक हैं शक़ेब जलाली. उनकी ये ग़ज़लें यहां पहुंचाने का शुक्रिया.
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