इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रो. शैलेश ज़ैदी के इस्लाम सम्बन्धी विचार इस उद्देश्य से प्रस्तुत किये जा रहे हैं कि इस्लाम को लेकर अनेक ऐसी बातें प्रचलित हैं जिनका वास्तविक इस्लाम से कोई लेना देना नहीं है. प्रो. ज़ैदी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, अरबी, फ़ारसी आदि अनेक भाषाओँ के ज्ञाता हैं और श्रीप्रद कुरान पर अच्छी दृष्टि रखते हैं. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष और आर्ट्स फैकल्टी के डीन रह चुके हैं. नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) के पावन चरित्र पर उनकी काव्य-पुस्तक "असासए-इस्लाम" पर्याप्त चर्चित हो चुकी है. फिर भी यह स्तम्भ खुला मंच है. सार्थक, तर्कयुक्त और स्तरीय विचारों का स्वागत किया जायेगा और इस कृति-पुंज (ब्लॉग) पर उचित स्थान दिया जायेगा. [प. फ़ा.]
इस्लाम 'दीन' है, धर्म या मज़हब नहीं
सामान्य रूप से मुसलमान इस्लाम को मज़हब समझते हैं. मज़हब अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ रास्ता, आस्था, पंथ, मत इत्यादि होता है. सम्पूर्ण कुर'आन मजीद में 'मज़हब' शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है. होता भी कैसे. जब इस्लाम मज़हब था ही नहीं तो इस शब्द का प्रयोग क्यों होता.? श्रीप्रद कुर'आन को समझने के लिए अरबी भाषा का ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है. यदि ऐसा होता तो अरबों के बीच श्रीप्रद कुर'आन में यह आयत किसी स्थिति में अवतरित न होती -"ये कुर'आन में गौर क्यों नहीं करते, क्या इनके दिलों पर ताले लगे हुए हैं ? गौर करना अक्ल या विवेक का काम है. जो अक्ल या विवेक के दरवाज़े बंद कर देता है वह श्रीप्रद कुर'आन को नहीं समझ सकता. मुसलामानों का बड़ा वर्ग 'अक्ल' में विशवास नहीं रखता. वह ज़हानत (बौद्धिकता) और अक्ल को एक समझता है और उसका ख़याल है कि अक्ल मनुष्य को गुमराह कर सकती है. वह यह नहीं समझना चाहता कि नीर-क्षीर विवेक का नाम है अक्ल. अक्ल वह है जो इंसान को अच्छे-बुरे की तमीज सिखाती है. जबकि ज़हानत इंसान को अच्छाई और बुराई दोनों दिशाओं में ले जा सकती है.
श्रीप्रद कुर'आन में 'अक्ल' के पक्ष में बयालीस आयतें उपलब्ध हैं. मुसलमान इन आयातों पर विचार नहीं करना चाहता. उर्दू भाषा में दो शब्द प्रचलित हैं. एक ऐन से लिखा जाने वाला अक़लीयत शब्द जिसका अर्थ है विवेकशीलता और दूसरा अलिफ़ से लिखा जाने वाला अक़लीयत शब्द जिसका अर्थ है अल्पसंख्यक. भारत में मुसलमान शरीअताचार्यों के लिए दूसरा शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है. पहले शब्द से उन्हें शरी'अत-विरोधी होने की गंध आती है. ऐसी स्थिति में श्रीप्रद कुर'आन कुछ भी कहता हो इस्लाम को मज़हब मान लेने से उनके स्वनिर्मित सम्प्रदायों की रक्षा होती है. यदि वे इस्लाम को दीन मानते तो विभिन्न सम्प्रदायों में न बंटते. कारण यह है कि दीन दो चार दस नहीं होता जब कि मज़हब या मसलक सैकड़ों हो सकते हैं.
श्रीप्रद कुर'आन ने जिस प्रकार 'ला इलाह, इल्लल्लाह' ( नहीं है कोई परम सत्ता सिवाय अल्ल्लाह के) के माध्यम से परम सत्ता के एकत्त्व का बीज-बिन्दु स्थिर किया, उसी प्रकार 'इन्नद-दीन इन्दल्लाहिल-इस्लाम' (परम सत्ता के निकट यदि कोई दीन है तो वह इस्लाम है) के माध्यम से आस्था के एकत्व का बीज-बिन्दु भी स्थिर किया. श्रीप्रद कुर'आन ने इस आस्था को ही सर्वत्र विशेष महत्त्व दिया है. ध्यान से देखना चाहिए कि श्रीप्रद कुर'आन में कहीं भी मुसलामानों को संबोधित नहीं किया गया. जहाँ भी संबोधित किया गया है ईमान वालों को संबोधित किया गया है. स्पष्ट है कि मुसलमान होना सही अर्थों में ईमान वाला होने का पर्याय नहीं है. इस्लाम के अन्तिम नबी हज़रत मुहम्मद (स.) का कृपाशील व्यक्तित्व भी केवल मुसलामानों के लिए नहीं, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए है. उन्हें "रह्मतुल्मुस्लिमीन" नहीं, 'रहमतुल-आलमीन" कहा गया है.
नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) ने मक्का के मुशरिकों का ध्यान आस्था के जिस बीज-बिन्दु की ओर आकृष्ट किया वह परम सत्ता के एकत्त्व का बीज-बिन्दु था. उन्होंने यह नहीं कहा कि "कूलू मुहम्मदुन रसूलल्लाह" अर्थात कहो कि मुहम्मद (स.) अल्लाह के रसूल हैं. उन्होंने सदैव यही फरमाया कि "कूलू ला-इलाह-इल्लल्लाह तुफ़्लहू" अर्थात कहो कि नहीं है कोई परम सत्ता सिवाय अल्लाह के, तुम्हारी भलाई होगी. इस 'कहो' का यह अर्थ हरगिज़ नहीं है कि किसी समय खड़े होकर नारा लगा लो. यदि अरबों को आस्था का यह बीज-बिन्दु दिया जाता कि "अल्लाहु इलाहुन" अर्थात अल्लाह उपास्य है, तो पूरा अरब बिना किसी आपत्ति के इसे स्वीकार कर लेता. कारण यह है कि अल्लाह को तो वे पहले से मानते थे. किंतु दुशवारी यह थी कि अल्लाह से इतर भी बहुतों को उपास्य मानते थे. सच्चाई यह है कि अरब के मुशरिकों को अल्लाह को मानने में आपत्ति नहीं थी, उन्हें अल्लाह को एकमात्र परम सत्ता मानने में आपत्ति थी. इस्लाम की विशेषता यह है कि उसने बहुत से खुदाओं को एक कर दिया( अजअललअलिहत इलाहौं वाहिदन ).
दीन शब्द का अर्थ शब्दकोशों में तलाश करना पर्याप्त भ्रामक हो सकता है. जो लोग श्रीप्रद कुरआन को आसमानी ग्रन्थ मानते हैं उन्हें मनुष्य के बनाए हुए शब्दकोशों में भटकने के बजाय श्रीप्रद कुरआन में ही इस शब्द का अर्थ खोजना चाहिए. ध्यान देने की बात यह है कि अल्लाह की प्रशस्ति और प्रशंसा के बाद सूरह फातिहा में सबसे पहले जिस शब्द से परिचित कराया गया वह दीन शब्द है - "मालिकि-यौमिद्दीन" अर्थात न्याय के दिन का स्वामी. श्रीप्रद कुरआन के कुछ व्याख्याता और अनुवादक इसका अर्थ 'इन्साफ के दिन का मालिक' भी करते हैं. किंतु इन्साफ करने वाला मुंसिफ कहलाता है और अल्लाह के नामों में उसका कोई नाम मुंसिफ नहीं है. इन्साफ बराबर से आधा-आधा (निस्फ़-निस्फ) कर देने को कहते हैं. इन्साफ बाह्य सुबूतों के आधार पर किया जाता है. अल्लाह अन्तर्यामी है और उसे किसी बाह्य सुबूत की अपेक्षा नहीं है . इसीलिए वह 'आदिल' है मुंसिफ नहीं. अनुवाद अद्ल के दिन का मालिक किया जाना चाहिए. स्पष्ट है कि श्रीप्रद कुरआन ने दीन का अर्थ बताया न्याय, अद्ल, जस्टिस. मज़हब या धर्म इस अर्थ का संकेत नहीं करते. श्रीप्रद कुरआन की दृष्टि में दीन वह है जो मनुष्य को सत्य और असत्य के बीच निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है. श्रीप्रद कुरआन ने भी अपना परिचय इसी ढंग से कराया है -"बैयिनातिम -मिनल्हुदा वल्फुर्कान" अर्थात जो सत्य और असत्य के मध्य विभाजक रेखा खींचता हो. अर्थात न्यायशील हो. अभिप्राय यह है कि जो श्रीपद कुरआन है वही दीन है.
आज दीन और मज़हब एक दूसरे के समानार्थक हो गए हैं. किंतु यह दीन शब्द को सरलीकृत करके उसकी आत्मा को ठेस पहुंचाना है. दीन सम्पूर्ण जनमानस के लिए परमसत्ता का एक अदभुत वरदान है जबकि मज़हब मनुष्य की बुद्धि की उपज है. जिन लोगों की दृष्टि में दीन परमसत्ता के एकत्व का परिचायक है वो इस्लाम का प्रारंभ नबीश्री हज़रत आदम से करते हैं और इस्लाम को अनादि और अनंत मानते हैं. किंतु जिनके अवचेतन में इस्लाम एक मज़हब है वो इसे कुल चौदह सौ वर्षों की चौहद्दियों में बंद कर देते हैं.
श्रीप्रद कुरआन के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि सच्चे दीन की नक़्ल में बहुत से दीन बना लिए गए. किंतु सच्चा दीन एक ही है. मजहबों का एक जैसा दिखायी देना उनका एक होना नहीं है. दीन के नाम से जो इमीटेशन तैयार किये गए उन्हें श्रीप्रद कुरआन "अहवा" शब्द से याद करता है. अर्थात वासना या स्वार्थवश जन्मी इच्छाएं . रास्ते बहुत से हो सकते हैं किंतु हर रास्ता "सिराते-मुस्तकीम" अर्थात सीधा-सच्चा रास्ता नहीं हो सकता.
संसार के जितने भी मज़हब हैं उनका सम्बन्ध या तो किसी व्यक्ति विशेष से है या किसी भूभाग से. उदाहरण के तौर पर ईसाई कहने पर इस मज़हब का सम्बन्ध नबीश्री हज़रत ईसा से जुड़ता है. यहूदी मज़हब का सम्बन्ध नाबिश्री हज़रत याकूब के बेटे 'यहूदा' से है. यदि आप उन्हें इस्राईली कहें तो 'इस्राईल' स्वयं हज़रत याकूब की उपाधि है. बौद्ध मज़हब की निस्बत हज़रत महात्मा बुद्ध से है. पारसी मज़हब का सम्बन्ध फारस की धरती से है. हिंदू मज़हब हिंद की धरती से जुड़ा है. स्पष्ट है कि जब मज़हब का सम्बन्ध किसी व्यक्ति या धरती के भूभाग से होगा तो चूंकि उसकी निस्बत सीमित है इसलिए मज़हब भी सीमित ही होगा. इस्लाम की निस्बत न किसी व्यक्तित्व से है न किसी धरती से. वह हाशमी नहीं है, हिजाज़ी नहीं है, मुहम्मदी नहीं है. कुछ लोगों ने उसे दूसरे मजहबों कि नक़्ल में मुहम्मडन कहने का प्रयास किया. किंतु इस्लाम के अन्तिम नबी (स.) ने कभी यह नहीं कहा कि यह मेरा दीन है, मैं इसका प्रवर्तक हूँ. नबी श्री हज़रत मुहम्मद (स.) इस्लाम के व्याख्याता, अन्तिम नबी और रसूल हैं, प्रवर्तक नहीं.
***************************** ( क्रमशः )
4 टिप्पणियां:
उत्तम लेख...शायद इस्लाम पर इससे ज्यादा इमानदाराना ढ़ंग से विचार किए गए लेख मेरे सामने नहीं आए। अगर आप अपने ब्लॉग को ब्लॉगवाणी पर लिंक दें तो और भी लोगों को पढ़ने में सहूलियत हो। बधाई स्वीकार करें।
मैने अपने अनेक मुस्लिम मित्रों से कहा कि वे मुझे एक ऐसी पुस्तक बतायें, जो मेरे डिक्शन और समझ की वेवलेंथ पर इस्लाम को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हो। ऐसी पुस्तक पर मुझे मिल नहीं सकी। और आपका यह लेख तो पूरी तरह स्वीकार्य व्याख्या है। यही नहीं, इसमें और हिन्दू विचारधारा में दार्शनिक द्वन्द्व भी नजर नहीं आता।
अच्छा लगा यह लेख।
(आप वर्ड वेरीफिकेशन का झंझट हटा दें तो सुभीता रहे।)
इस्लाम के बारे में लोगों में ज़्यादा गलतफहमियां इसलिए हैं क्योंकि ज्यादातर ख़ुद मुस्लिम्स को अपने मज़हब के बारे में कुछ नही पता.
आपने एक अच्छी सीरीज शुरू की है, आशा है इससे लोगों की इस्लाम के प्रति धारणाएं बदलेंगीं।
और हाँ, कमेंट बॉक्स से वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें, इससे इरीटेशन होती है।
एक टिप्पणी भेजें