वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल.
आजका इन्सां समझता है इन्हें बच्चों का खेल.
*******
ग़म, मुसीबत, आहो-ज़ारी, दर्द, सीने की जलन,
जैसे हो एहसास के मैदान में यादों का खेल.
*******
मौत की दहशत भरी आवाज़ ने दहला दिया,
ज़िन्दगी इन्सान की है सिर्फ़ कुछ लम्हों का खेल.
*******
जिन दरख्तों पर लगे हैं फिर्कावारीयत के फल,
बरसों पहले जो उगे थे है ये उन पौदों का खेल.
*******
कौमियत, हुब्बे-वतन, ताईदे-बन्दे मातरम,
इक़्तदारों के लिए हैं बाहमी जंगों का खेल.
*******
दर हकीकत ये चुनावी मरहले हैं साफ़-साफ़,
टूटते, बनते-बिगड़ते, नित नये रिश्तों का खेल,
***************
रविवार, 2 नवंबर 2008
वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल
लेबल:
ग़ज़ल /ज़ैदी जाफ़र रज़ा / वेद,
गीता,
बाइबिल
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
कौमियत, हुब्बे-वतन, ताईदे-बन्दे मातरम,
इक़्तदारों के लिए हैं बाहमी जंगों का खेल.
...आपकी यह गजल महज गजल नहीं है बल्कि मौजूदा वक्ता का दस्तावेज है। जो बात लोग बड़े-बड़े लेख लिखकर कहते हैं वह हकीकत आपने चंद लफ्जों में बयान कर दी। आपकी लेखनी को मैं सलाम करता हूं।
भारतवर्ष मे रहने वाले हिन्दु-मुसल्मानो के बीच भाईचारा बढाने मे आप के द्वारा किए जा रहे अथक प्रयास प्रशसनीय है। सह अस्तित्व को स्वीकारना ही समाधान है, बेहतरी का मार्ग है .....
मौत की दहशत भरी आवाज़ ने दहला दिया,
ज़िन्दगी इन्सान की है सिर्फ़ कुछ लम्हों का खेल.
--यूँ तो सभी शेर बहुत उम्दा!! वाह! बढ़िया संदेश.
एक टिप्पणी भेजें