सोमवार, 10 नवंबर 2008

लहरें साहिल तक जब आयीं, चांदी के वरक़ चिपकाए हुए.

लहरें साहिल तक जब आयीं, चांदी के वरक़ चिपकाए हुए.
हम हौले-हौले पानी में, चलते रहे दिल गरमाए हुए.
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वो देखो उधर उस कश्ती पर, दो उजले-उजले कबूतर हैं,
कुछ राज़ की बातें करते हैं, आपस में चोंच मिलाए हुए.
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मैं उनके लिए कूचों-कूचों, छाना किया ख़ाक ज़माने की,
वो सामने मेरी आंखों के, निकले मुझ से कतराए हुए.
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परदेस में बेटा खुश होगा, माँ-बाप के दिल को ढारस है,
फिर भी ये शिकायत रहती है, मुद्दत गुज़री घर आए हुए.
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आँगन में बाँध के अलगनियां, कपडे कल लोग सुखाते थे,
अब शहरों में आँगन ही नहीं,सब हैं सिमटे-सिमटाए हुए।

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मिटटी के चरागों की रौनक़, बिजली के ये कुम्कुमे क्या जानें,
इनसे ही दिवाली रौशन थी, जलते थे क़तार बनाए हुए.
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मैं बाग़ से कल जब गुज़रा था, इक ठेस लगी थी दिल को मेरे,
कुछ फूलों में बे-रंगी थी, कुछ फूल मिले मुरझाये हुए.
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2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

bahut khubsurat gazal,jaise roj marra ki jeevan ka hissa ho har sher

Udan Tashtari ने कहा…

वो देखो उधर उस कश्ती पर, दो उजले-उजले कबूतर हैं,
कुछ राज़ की बातें करते हैं, आपस में चोंच मिलाए हुए.

--वाह!!! शानदार!!