वो सही मानों में जांबाज़ थे
जाँ अपनी गँवा बैठे फ़राइज़ के लिए,
ज़िन्दगी ने किया झुक-झुक के सलाम
मौत ने उनकी जवांमर्दी के क़दमों पे
गिराया ख़ुद को
और पाकीज़ा फ़राइज़ के कई बोसे लिए.
कूवतें देती रही मुल्क की तहज़ीब उन्हें,
नापसंदीदा हमेशा से थी तखरीब उन्हें,
उनमें था हौसला,
वो जानते थे क्या है वतन की इज़्ज़त.
खूँ में थी उनके रवां गंगो-जमन की इज़्ज़त.
उनको मालूम था
इक खेल सियासत का है दहशत-गर्दी.
लाज़मी है कि कुचल दें उसको,
मौत से अपनी मसल दें उसको.
बस यही सोच के वो
आसमाँ छूती हुई आग में भी कूद पड़े,
साँस जबतक थी लड़े, खूब लड़े.
ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.
इनसे रौशन है मेरे मुल्क का नाम.
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गुरुवार, 27 नवंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
वोट की राजनीति ने आतंकी हमलों से निपटने की दृढ इच्छाशक्ति खत्म कर दी है, खुफिया तंत्र की नाकामयाबी की वजह भी सत्ता है, संकीर्ण हितों- क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, लिंग- से ऊपर उठ कर सोचने वाले नेता का अभाव तो समाज को ही झेलना होगा, मुंबई हमलों के बारे में सुनने के बाद मैं काफ़ी बेचैन हूँ. सवाल है ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी का या कुछ और. इसे मैं सिर्फ़ राजनीतिक नाकामी कहूंगा जिसकी वजह से भारत में इतनी बड़ी आतंकवादी घटना हुई.नेताओं से सिर्फ़ भ्रष्टाचार की उम्मीद की जा सकती है !
'बहुत दिनों से है ये सिलसिला सियासत का
कि जब जवान हों बच्चे,तो क़त्ल हो जायें।'
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