रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
मुज़महिल हुईं यादें, और तुम नहीं आये.
*******
उसके मांग की अफ़्शां, चाँद की हथेली पर,
रख के सो गयीं किरनें, और तुम नहीं आये.
*******
ख़त तुम्हारे पढ़-पढ़ कर, चाँदनी भी रोई थी,
नम थीं रात की पलकें, और तुम नहीं आये.
*******
धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
कोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
*******
टुकड़े-टुकड़े हो-हो कर, चुभ रही थीं सीने में,
इंतज़ार की किरचें, और तुम नहीं आये.
*******
नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
**************
गुरुवार, 20 नवंबर 2008
रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
3 टिप्पणियां:
नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
bahot khub sahab kitni komalta se aape aapni shikayat samane rakhi hai ,bahot pasand aai ye ghazal .. dhero sadhuwad aapko...
धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
कोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
लाजवाब शायरी...वाह...जिंदाबाद...जिंदाबाद...
नीरज
'नम थीं रात की पलकें…'
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
एक टिप्पणी भेजें