मंगलवार, 4 नवंबर 2008

उसको इंसान न कहिये जो कभी प्यार न दे.

उसको इंसान न कहिये जो कभी प्यार न दे.
ज़ख्म ही देता रहे, जज़्बए-ईसार न दे.
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बाहमी नफ़रतें बढ़ती ही चली जाती हैं,
वक़्त से कहदो कि ये रोज़ की तकरार न दे.
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बेटा लायक़ न हो हर माँ को है मंज़ूर मगर,
मेरे मालिक कोई बेटा कभी ग़द्दार न दे.
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सामने आ के कहे जिसको है कहना जो भी,
चोट आहिस्ता से जाकर पसे-दीवार न दे.
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एक दो बार तो मुमकिन है वो करले बर्दाश्त,
बेवफ़ा होने का इल्ज़ाम तू हर बार न दे.
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घर के अफ़राद की जानों का जो दुश्मन हो जाय,
घर के माहौल में ऐसा कोई बीमार न दे.
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तुझको मालूम है, कहता हूँ तुझे अपना रफ़ीक़,
गुल अगर दे नहीं सकता है, न दे, खार न दे.
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जज़्बए-ईसार= दूसरों के हित के लिए अपना हित त्यागने की भावना. बाहमी= आपसी. पसे-दीवार=दीवार के पीछे. अफ़राद=व्यक्तियों. रफ़ीक़=मित्र.

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

तुझको मालूम है, कहता हूँ तुझे अपना रफ़ीक़,
गुल अगर दे नहीं सकता है, न दे, खार न दे.


--बहुत खूब!!

Unknown ने कहा…

बहुत सुंदर रचना है. वधाई.