चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
शऊरे-अहले-नज़र देखता है नाबीना.
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दिखायी देते नहीं रास्ते मुहब्बत के,
हमारा मुल्क भी अब हो गया है नाबीना.
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मिलाते हैं जो सियासत के साथ मज़हब को,
समझते हैं वो यक़ीनन, खुदा है नाबीना.
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खड़ा है फ़ाक़ा-कशों की मुंडेर पर लेकिन,
तरक़्क़ियों को दुआ दे रहा है नाबीना.
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जला रहा है वो इस घर में नफ़रतों के दिए,
कहूँ मैं क्या कि वो अब हो चुका है नाबीना.
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जब आया था वो तो आँखें भी थीं शऊर भी था,
मगर वो बज़्म से होकर उठा है नाबीना.
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रविवार, 9 नवंबर 2008
चराग़ राह में लेकर चला है नाबीना.
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1 टिप्पणी:
जला रहा है वो इस घर में नफ़रतों के दिए,
कहूँ मैं क्या कि वो अब हो चुका है नाबीना.
बहोत खूब बहोत मज़ा आया आपके ब्लॉग पे आकरके रचनाएँ पढ़ने को मिली जो मुश्किल से ही मिलती है आपका मेरे ब्लॉग पे भी बहोत स्वागत है ...
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