उम्र की चिड़िया
हर सुबह
उम्र की एक चिड़िया
मेरे कमरे में आकर
चहचहाती है. मैं दर्द से भीगे
शब्दों का चुग्गा
उसे चुगाता हूँ
ऐसा महसूस होता है कि मैं-
बहुत सहज हो गया हूँ.
चिड़िया उड़ जाती है फुर्र से
कुछ देर बाद और
मैं दर्शक बना इधर-उधर
ताकता रह जाता हूँ.
मेरे अपने भीतर की
सारी जली-अधजली कहानियाँ
बाहर छिटक पड़ती हैं
जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं होता
इसे तुम चाहे मेरी कमज़ोरी
समझो या
मूक विवशता!
जीवन का शेष सत्य
सिर्फ् यही बचा है
जिसे मैंने बहुत संभाल कर रखा है,
अगली पीढ़ी के लिए.
बिछुड़ी हुई उम्र पता नहीं
कब आकर मेरे दरवाजे पर
दस्तक दे जाए.
मैंने घुटन से मुक्ति का उपाय
सोच लिया है.
दरवाजों पर बंदनवार सजा ली है,
कृत्रिम प्रकाश-किरणों की
निरंतर गहराते जा रहे
दर्द की विसंगति को भोगना
बड़ा कठिन हो गया है मेरे लिए
चिड़िया तो अब सुबह ही आयेगी
अभी तो सामने पहाड़-सी
दोपहरी और पूरी रात
यमदूत की तरह खड़ी है!
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-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail:
sudhirsaxenasudhi@yahoo.com
रविवार, 2 नवंबर 2008
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1 टिप्पणी:
बहुत सुधि कविता लिखी है आप ने ..बधाई ....
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