रविवार, 27 जुलाई 2008

पसंदीदा नज़्में / साहिर लुधियानवी

1. तुम चली जाओगी
तुम चली जाओगी परछाइयां रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाइयां रह जायेंगी
तुम इसी झील के साहिल पे मिली हो मुझसे
जब भी देखूंगा यहीं मुझको नज़र आओगी
याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी.
2. सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के
कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफिज़ खुदी के
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये पुर-पेच गलियाँ, ये बे-ख्वाब बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

तअफ़्फ़ुन से पुर, नीम-रौशन ये गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बहकी हुई खोखली रंग-रलियाँ
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
तनफ़्फ़ुस की उलझन पे तबले की धन-धन
ये बे-रूह कमरों में खांसी की ठन-ठन
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये गूंजे हुए क़ह्क़हे रास्तों पर
ये चारों तरफ़ भीड़ सी खिड़कियों पर
ये आवाज़े खिंचते हुए आंचलों पर
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये फूलों के गजरे ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें ये गुस्ताख फिक़रे
ये ढलके बदन औ ये मद्कूक चेहरे
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये भूकी निगाहें हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ सीनों की जानिब
लपकते हुए पाँव जीनों की जानिब
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

यहाँ पीर भी आ चुके हैं जवां भी
तनू-मंद बेटे भी, अब्बा मियाँ भी
ये बीवी भी है और बहेन भी है मां भी
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

मदद चाहती है ये हौवा की बेटी
यशोदा की हमजिंस राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत जुलेखा की बेटी
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये गलियां, ये कूचे, ये मंज़र दिखाओ
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

3. रह्बराने कौम के नाम

आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर
देखे थे हमने जो वो हसीं ख्वाब क्या हुए
दौलत बढ़ी तो मुल्क में अफ्लास क्यों बढ़ा
खुश-हालीए-अवाम के असबाब क्या हुए
जो अपने साथ-साथ गए कूए-दार तक
वो दोस्त, वो रफीक, वो अहबाब क्या हुए
क्या मोल लग रहा है शहीदों के खून का
मरते थे जिन पे हम वो सजायब क्या हुए
बेकस बरहनगी को कफ़न तक नहीं नसीब
जम्हूरियत-नवाज़,बशर-दोस्त, अम्न-ख्वाह
ख़ुद को जो ख़ुद दिए थे वो अलकाब क्या हुए
मज़हब का रोग आज भी क्यों ला-इलाज है
वो नुस्खाहाए नादिरो-नायाब क्या हुए
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक्जह्तिए-हयात के आदाब क्या हुए
सहराए-तीरगी में भटकती है जिंदगी
उभरे थे जो उफक पे वो महताब क्या हुए

मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनाहगार तुम भी हो
ऐ रह्बराने कौम, खतावार तुम भी हो
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1 टिप्पणी:

Sajeev ने कहा…

आपकी पसंद मेरी पसंद से मिलती है, क्या 'आवाज़ " के लिए साहिर लुधियानवी पर एक अर्तिक्ले लिख सकती हैं.....मुझसे संपर्क करें sajeevsarathie@gmail.com पर