तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
गुल तेरा रंग चुरा लाये हैं गुल्ज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में
मुझसे कतरा के निकल जा मगर ऐ जाने-हया
दिल की लौ देख रहा हूँ तेरे रुख्सारों में
हुस्ने-बेगानए-एहसासे-जमाल अच्छा है
गुंचे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में
ज़िक्र करते हैं तेरा मुझसे ब-उनवाने-जफ़ा
चारा-गर फूल पिरो लाये हैं तलवारों में
मुझको नफरत से नहीं प्यार से मस्लूब करो
मैं तो शामिल हूँ मुहब्बत के गुनाहगारों में
[ 2 ]
किसको कातिल मैं कहूँ किसको मसीहा समझूं
सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं, किसे क्या समझूं
वो भी क्या दिन थे के हर वह्म यकीं होता था
अब हकीकत नज़र आए तो उसे क्या समझूं
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उट्ठे
ऐसे माहौल में अब किसको पराया समझूं
ज़ुल्म ये है के है यकता तेरी बेगाना-रवी
लुत्फ़ ये है के मैं अबतक तुझे अपना समझूं
[ 3 ]
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
खुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ
जो इब्तिदाए-सफर में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ
तलाशे-हुस्न कहाँ ले चली खुदा जाने
उमंग थी के फ़क़त ज़िंदगी को अपनाएँ
न कर खुदा के लिए बार-बार ज़िक्रे-बहिश्त
हम आसमां का मुक़र्रर फरेब क्यों खाएँ
तमाम मैकदा सुनसान मैगुसार उदास
लबों को खोल के कुछ सोचती हैं मीनाएँ
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शुक्रवार, 13 जून 2008
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