सोमवार, 23 जून 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [ क्रमशः-1 ]

[ 1 ]
चरन कमल बन्दौं हरि राई.
जाकी कृपा पंगु गिरी लंघै, अंधे कौ सब कछु दरसाई.
बहिरौ सुनै, गुंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई.
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बन्दौं तिहि पाई.


मैं तो बस मालिके-कुल हरी राय के
हूँ कँवल जैसे चरनों में सज्दाकुनां
जिनका फ़ैज़ो-करम हो तो मफ़्लूज भी
पार करले पहाड़ों की ऊंचाइयां
जिनकी आंखों में बीनाई मुतलक़ न हो
देख लें वो भी कुदरत की रानाइयां
बहरे उनकी इनायत से सुनने लगें
और गूंगों को मिल जाए फिर से जुबां
मुफ़लिसों का मुक़द्दर बदल जाय यूँ
सर पे शाहों की रख कर चलें छतरियां
मेरे आक़ा हैं ऐ 'सूर' दर्द-आशना
पाए-अक्दास का उनके हूँ मैं मद'ह-ख्वाँ
[ 2 ]
नमो नमो करुनानिधान.
चितवत कृपा कटाच्छ तुम्हारी,मिटि गयो तम अग्यान..
मोह निशा कौ लेश रह्यो नहिं, भयो विवेक विहान..
आतम रूप सकल घाट दरस्यो, उदय कियो रवि ज्ञान..
मैं मेरी अब रही न मेरे, छूट्यो देह अभिमान..
भावै परो आजुही यह तन, भावै रहो अमान..
मेरे जिय अब यहै लालसा, लीला श्री भगवान..
श्रवन करौं निसि बासर हित सौं, सूर तुम्हारी आन..


अस्सलाम ऐ दर्दमंदी के समंदर अस्सलाम
पड़ते ही चश्मे - इनायत आप की
मिट गई ज़ुल्मत जहालत की तमाम
उल्फ़ते-दुनिया की शब् रुख़सत हुई
सुब्हे - अक़्लो - होश का फैला निज़ाम
जिसमे-खाकी में नज़र आया जमाले-रुए-ज़ात
आफताब इरफ़ान का रौशन हुआ बालाए-बाम
मिट गई मैं और मेरी की हवस
रह न पाया जिस्म का पिन्दारे-खाम
'सूर' की है आप से यह सिद्क़े-दिल से आरज़ू
रोज़ो-शब् सुनाता रहूँ मैं आपकी लीला मदाम
[ 3 ]
अविगत गति जानी न परै.
मन-बच-कर्म अगाध, अगोचर, किहि बिधि बुधि संचरै..
अति प्रचंड पौरुष बल पाएं, केहरि भूख मरै..
अनायास, बिनु उद्यम कीन्हें, अजगर उदर भरै..
रीतै भरै भरै फुनि ढारै, चाहै फेरि भरै..
कबहुँक तृन बूडै पानी मैं, कबहुँक सिला तरै..
बागर तैं सागर करि डारै, चहुँ दिसि नीर भरै..
पाहन बीच कमल बिकसावै, जल मैं अगिनि जरै..
राजा रंक, रंक तैं राजा, लै सिर छत्र धरै..
'सूर' पतित तरि जाई छिनक मैं, जो प्रभु नेकु ढरै ..


किस तरह जाने कोई औसाफ़े-ज़ाते-लामकां
नफ़्स वो रखता नहीं आज़ाद है वो नुत्क़ से
और अमल उसका, किसी पर भी नहीं होता अयां
कैसे फिर ये अक्ल बन सकती है उसकी राज़दां
शेर को माबूद ने बख्शी है ताक़त बे पनाह
भूक से मरता है वो, कुदरत की देखो खूबियां
और अजगर जो पड़ा रहता है हिलता तक नहीं
पेट भर लेता है, खालिक उसपे है यूँ मेह्रबां
ज़र्फ़ वो चाहे तो भर दे, भरके फिर खाली करे
और मरज़ी हो, दोबारा भर दे यकता हुक्मरां
गर्क हो जाता है तिनका बतने-दरया में कभी
और कभी पानी पे पत्थर मिस्ले-तिनका है रवां
वो अगर चाहे, समंदर कर दे रेगिस्तान को
उसकी मरज़ी हो तो हो सैलाब ता अरज़ो-समां
हुक्म हो उसका तो पत्थर में भी खिल जाए कमल
हो अगर उसकी रज़ा दरया बने आतिश-फ़िशां
वो अगर चाहे तो कर दे शाह को पल में गदा
और अगर चाहे बना दे वो गदा को हुक्मरां
'सूर' कहते हैं कि हो जाए अगर उसका करम
हो शिफ़ाअत आसियों की, पाएं वो तसकीने-जां
[ 4 ]
सोई रसना जो हरि गुन गावै.
नैनन की छबि यहै चतुरता ज्यों मकरंद मुकुन्दहि ध्यावै..
निर्मल चित तौ सोई सांचौ, कृष्ण बिना जिय और न भावै..
श्रवनन की जु यहै अधिकाई,सुनि रस कथा सुधा रस प्यावै..
कर तेई जो स्यामहि सेवै, चरनन चलि वृन्दाबन जावे..
'सूरदास' जैये बलि ताके, जो हरि जू सों प्रीती बढ़ावै ..


ज़बाँ वो है जो हरि की मद्ह गाये
वही है चश्मे-खुशअतवार जिस में
जमाले-हुस्न का परतव समाये
वही है क़ल्बे-सिद्दीको-मुतःहर
जिसे बे कृष्न कोई शय न भाये
वही है गोश का हुस्ने-समाअत
जो सुनकर रस कथा अमृत पिलाये
वही है हाथ जो है श्याम की खिदमत में मसरूफ़
वही है पाँव, जो चलकर के वृन्दाबन को जाये
फ़िदा हो जाइए सूर उस बशर पर
जो दिल में श्याम की उल्फ़त बढाए
[ 5 ]
आजु हौं एक एक करि टरिहौं
कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपुन भरोसैं लरिहौं..
हौं तो पतित सात पीढीन कौ,पतितै ह्वै निस्तरिहौं..
अब हौं उघरि नचत चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं
कत अपनी परतीति नसावत, मैं पायो हरि हीरा
'सूर' पतित तबहीं उठिहैं प्रभु, जब हँसि दैहौ बीरा


आज तो फ़ैसला होकर ही रहेगा यारब
या तो मैं बाक़ी रहूँगा, या रहोगे तुम ही
मैं फ़क़त अपने भरोसे पे लडूंगा यारब
सात पुश्तों से हूँ आसीओ-गुनहगार हुज़ूर
हूँ इसी हाल में बखशिश का तलबगार हुज़ूर
बेझिझक सामने हर एक के उरियां हो कर
झूम कर नाचूँगा मैं दस्त-ब-दामां हो कर
आपकी शाने-करीमी की उठा दूँगा नक़ाब
अज़मतें आपकी बे-परदा करूँगा यारब
क्यों मिटाने पे हैं आमादा हुज़ूर अपना वक़ार
मैं ने तो पाया हरी जैसा है हीरा सरकार
होके खुश आप जब आसी पे करेगे रहमत
'सूर' कहते हैं उसी वक़्त उठूंगा यारब.
[ 6 ]
अविगत गति कछु कहत न आवै.
ज्यों गूंगे मीठे फल कौ रस, अन्तरगत ही भावै..
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै..
मन बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै..
रूप,रेख,गुन, जाति जुगति बिनु, निरालम्ब मन चक्रित धावै..
सब बिधि अगम बिचारहिं ताते, 'सूर' सगुन लीला पद गावै..


ज़ाते-मुत्लक़ की हकीक़त कभी कहते न बने
जैसे गूंगा कोई, लज्ज़त किसी मीठे फल की
दिल में महसूस करे और बयाँ कर न सके
लज्ज़ते-आला सुकूं-बख्श है हर इक के लिए
क़ल्ब पहोंचे न , सुखन उसको कभी छू न सके
उस से वाकिफ़ है फ़क़त वो, जो उसे पा जाये
सूरतो-खाकाओ-औसाफ़े-ज़मानी के बगैर
नस्ल की क़ैद से पाक और दलाएल से बलंद
बे सुतूं अक़्ल तअज्जुब में रहे सरगर्दां
फ़िक्र क़ासिर है, किसी तर्ह नहीं उसका गुज़र
इसलिए 'सूर' ने औसाफ़े मजाजी के ये नगमे गाये
[ 7]
मेरे गुन अवगुन चित न बिचारौ.
कीजै लाज सरन आये की, रबि सुत त्रास निबारौ..
जोग,जग्य, जप-तप नहिं कीन्हौं, बेद बिमल नहिं भाख्यौ ..
अति रस लुब्ध स्वान जूठन ज्यों, अनत नाहिं चित राख्यौ..
जिहिं जिहिं ज्योनि फिरयो संकट बस, तिहिं तिहिं यहै कमायौ
काम क्रोध मद् लोभ ग्रसित ह्वै, विषय परम विष खायौ..
जो मसि गिरिपति घोरि उदधि मैं, लै सुर तरु बिधि हाथा.
मम कृत दोस लिखै बसुधा भरि, तऊ नाहिं मिति नाथा.
तुम सर्बग्य सबै बिधि समरथ, असरन सरन मुरारी..
मोह समुद्र 'सूर' बूडत है, लीजै भुजा पसारी..


नेकी बदी पे मेरी न कुछ गौर कीजिये
आया हूँ मैं अमान में रख लीजिये मुझे
डर मुझसे दूर मौत का फ़िल्फ़ौर कीजिये
कोई रियाज़ कोई इबादत न की कभी
वैदिक रिचाओं की भी तिलावत न की कभी
दुनिया की लज्ज़तों से रहा इस तरह घिरा
जूठन को जैसे देख के कुत्ता है दौड़ता
जुज़ उल्फ़ते-जहाँ न कहीं और दिल गया
ठोकर मुसीबतों ने खिलाई जिधर - जिधर
लाया कमा के सिर्फ़ गुनाहों के मालो-ज़र
गुस्सा, गुरूर, हिर्सो-हवस, ख्वाहिशाते-बद
चख कर ये सारे ज़हर कमाई हयाते-बद
कोहे-सियाह को भी समंदर में घोल कर
कुदरत उठाके हाथ में फिरदौस का शजर
कोताहियाँ मेरी जो लिखे कुल ज़मीन पर
तहरीर हो न पायेंगी कुछ हैं वो इस कदर
तुम हो अलीम क़ादिरे-मुतलक़ हो ऐ खुदा
बे-आसरों का एक तुम्हीं तो हो आसरा
डूबे कहीं न 'सूर' समंदर में हिर्स के
बाजू पकड़ के उसका बचा लीजिये उसे..
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क्रमशः

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