[ १ ] मधुर मधुर मेरे दीपक जल
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा धुल रे मृदु तन'
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल गल !
पुलक,पुलक मेरे दीपक जल !
सारे शीतल कोमल नूतन
मांग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल'
सिहर सिहर मेरे दीपक जल
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर सा उर जलता,
विद्युत् ले घिरता है बादल !
विहंस विहंस मेरे दीपक जल !
द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम
बसुधा के जड़ अन्तर में भी,
बंदी है तापों की हाचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !
मेरे निःश्वासों से दुस्तर,
सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !
सीमा ही लघुता का बंधन
है अनादि तू मत घडियां गिन,
मैं दृग के अक्षय-कोशों से
तुझमें भरती हूँ आंसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !
तब असीम तेरे प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम् के अणु अणु में विद्युत् सा-
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !
तू जल जल जितना होता क्षय
या समीप आता छलनामय
मधुर मधुर में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !
[ २ ] धूप सा तन, दीप सी मैं
उड़ रहा नित एक सौरभ धूम लेखा में बिखर तन
खो रहा निज को अथक आलोक साँसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन पल
औ विसर्जन पुलक उज्जवल
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन और समीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाए
रश्मि विद्युत् ले प्रलय रथ पर भले तुम शांत आए
पंथ से मृदु स्वेद कण चुन
छाँह से भर प्राण उन्मन
तम् जलधि में नेह का
मोती रचुंगी सीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
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मंगलवार, 24 जून 2008
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