तीन ग़ज़लें
[ १ ]
मंज़र समेट लाये हैं जो तेरे गाँव के
नींदे चुरा रहे हैं वो झोंके हवाओं के
तेरी गली से चाँद ज़ियादा हसीं नहीं
कहते सुने गए हैं मुसाफ़िर ख़लाओं के
पल भर को तेरी याद में धड़का था दिल मेरा
अब दूर तक भंवर से पड़े हैं सदाओं के
ज़ादे-सफर मिली है किसे राहे-शौक़ में
हमने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
जब तक न कोई आस थी ये प्यास भी न थी
बेचैन कर गये हमें साए घटाओं के
हमने लिया है जब भी किसी राह्ज़न का नाम
चेहरे उतर गये हैं कई रहनुमाओं के
उगलेगा आफताब कुछ ऐसी बला की धुप
रह जायेंगे ज़मीन पे कुछ दाग छाँव के
जिंदा थे जिन की सर्द हवाओं से हम 'क़तील'
अब ज़ेरे-आब हैं वो जज़ीरे वफ़ाओं के
[ 2 ]
राब्ता लाख सही काफिला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक्त की रफ़्तार के साथ
ग़म लगे रहते हैं हर आन खुशी के पीछे
दुश्मनी धूप की है सायए-दीवार के साथ
किस तरह अपनी मुहब्बत की मैं तक्मील करूँ
गमे-हस्ती भी तो शामिल है गमे-यार के साथ
लफ्ज़ चुनता हूँ तो मफ़हूम बदल जाता है
इक-न-इक खौफ भी है जुरअते -इजहार के साथ
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बनकर
जान ले ले मेरी सैयाद मगर प्यार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आयें किसी गालिब से 'क़तील'
हजरते-'जौक' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
[ 3 ]
रंग जुदा, आहंग जुदा, महकार जुदा
पहले से अब लगता है गुलज़ार जुदा
नग्मों की तख्लीक का मौसम बीत गया
टूटा साज़ तो हो गया तार से तार जुदा
बेज़ारी से अपना-अपना जाम लिये
बैठा है महफ़िल में हर मैख्वार जुदा
मिला था पहले दरवाज़े से दरवाज़ा
लेकिन अब दीवार से है दीवार जुदा
यारो मैं तो निकला हूँ जाँ बेचने को
तुम अब सोचो कोई कारोबार जुदा
सोचता है इक शायर भी, इक ताजिर भी
लेकिन सबकी सोच का है मेआर जुदा
क्या लेना इस गिरगिट जैसी दुनिया से
आए रंग नज़र जिसका हर बार जुदा
किस ने दिया है सदा किसी का साथ 'क़तील'
हो जाना है सबको आखिरकार जुदा
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सोमवार, 16 जून 2008
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