सोमवार, 9 जून 2008

जमीलुद्दीन आली के दोहे

सदियों के अम्बार में भगवन, दीजो कभी दिखाय
एक ही दिन जब कोई किसी को, दुःख ना देने पाय
ओ दीवार पुरानी हट जा, तेज़ है जनता धार
तेरी बंसी नहीं बजेगी, चलेगी अब तलवार.
बाबूगीरी करते हो गये, आली को दो साल
मुरझाया वह फूल सा चेहरा, भूरे पड़ गये बाल
टूट गये तेरे खेल-खिलौने, छिन गये तेरे फूल
आली मत अब वापस आना, लोग गये तुझे भूल
साँवरी बंगला नारी जिसकी, आँखें प्रेम-कटोरे
प्रेम कटोरे जिनके अन्दर, कन कन दुखों के डोरे
पहने मौलसिरी के कंठे, सूंघे सुर्ख गुलाब
पाकिस्तान में जो हों आली, दिल्ली में थे नवाब
अपना तो जीवन है आली, साधू का व्यवहार
हम में ऐसे ढंग कहाँ जो, करते देश सुधार
बीर बहूटी रंगत वाली, इक नारी अंग्रेज़
बात में कितनी सीधी-सादी, घात में कितनी तेज़
इक लाहौर की तीखी बांकी, पढी-लिखी, मगरूर
शायर को आवारा कहवे, अफ़सर को मजदूर
ये गदराया बदन तेरा ये जोबन रस ये चाल
अरी मराठन हम परदेसी, सुन तो हमारा हाल
अग्नी पूजें, सूरज पूजें, पूजें जल और नाग
आली अपनी नार को पूजें, ये आली के भाग
आली से ही मान करे है, आली से ही प्यार
बावरे-बावरे नयनों वाली, है कितनी हुशियर
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