गुरुवार, 19 जून 2008

मुक्तिबोध ने कहा था

1. जनता का साहित्य'

जनता का साहित्य', जनता को तुरत समझ में आने वाला साहित्य हरगिज़ नहीं. अगर ऐसा होता तो किस्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते. साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं. सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलंदी, बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनाने या पढने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है. वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार. किंतु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वाराताभी सम्भव है जब स्वयं सुनाने वाला या पढने वाले की अवस्था शिक्षित की हो. [ फरवरी 1953 ]

2. 'प्रगतिशीलता' और मानव-सत्य

'मनुष्य-सत्य' का अनादर करने वाले साधारण रूप से दो परस्पर विरोधी क्षेत्रों से आते है. एक वे, जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खड़ा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं - जो उसमें फिट हो जाय वह प्रगतिशील, और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी. यह उनका प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रस्तुत और अप्रस्तुत, मुखर और गोपनीय निर्णय होता है. ये लोग उत्पीडित मध्य-वर्ग के जीवन के तत्त्वों से दूर अलग-अलग होते हैं. भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबी के कितने ही हिमायती क्यों न हों, इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध, अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की बहुमुखी प्रवृत्तियों से निपीडित होता है. बोधहीन बौद्धिकता का शिकार, यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है, उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता.

दूसरे क्षेत्र के प्रतिनिधि कष्टग्रस्त जीवन के कारण कवि में उतपन्न हुई अंतर्मुखता का उपयोग अपने लिए करना चाहते हैं. वे उस अंतर्मुखता के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर, उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं की वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूट कर अलग हो जाय.

[नई दिशा, मई 1955]

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