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मंगलवार, 1 जुलाई 2008

बहादुरशाह ज़फ़र [1775-1862 ] की यादगार ग़ज़लें

[ 1 ]
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्रो-क़रार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
चश्मे-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
उनकी आंखों ने खुदा जाने किया क्या जादू
कि तबीअत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी
क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
खू तेरी हूरे-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
[ 2 ]
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सका, मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ
पए-फातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढाये क्यों
कोई आके शम'अ जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन खिजां में उजड़ गया, मैं उसी की फस्ले-बहार हूँ
[ 3 ]
लगता नहीं है जी मेरा उजडे दयार में
किसकी बनी है आलमे-नापाएदार में
बुलबुल को बागबाँ से न सैयाद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिले-दागदार में
इक शाखे-गुल पे बैठके बुलबुल है शादमाँ
कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालाज़ार में
उम्र-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इन्तेज़ार में
दिन जिंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएंगे कुंजे-मज़ार में
कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूए-यार में.
[ 4 ]
खुलता नहीं है हाल किसी पर कहे बगैर
पर दिल की जान लेते हैं दिलबर कहे बगैर
क्योंकर कहूँ तुम आओ, कि दिल की कशिश से वो
आयेंगे दौडे आप मेरे घर कहे बगैर
क्या ताब क्या मजाल हमारी कि बोसा लें
लब को तुम्हारे लब से मिलाकर कहे बगैर
बेदर्द तू सुने-न-सुने लेक दर्दे-दिल
रहता नहीं है आशिके-मुज़्तर कहे बगैर
तक़दीर के सिवा नहीं मिलता कहीं से भी
दिलवाता ऐ 'ज़फ़र' है मुक़द्दर कहे बगैर
[ 5 ]
दिल की मेरे बेक़रारी मुझ से कुछ पूछो नहीं
शब् की मेरी आहो-ज़ारी मुझ से कुछ पूछो नहीं
बारे-गम से मुझपे रोज़े-हिज्र में इक-इक घड़ी
क्या कहूँ है कैसी भारी मुझसे कुछ पूछो नहीं
मेरी सूरत ही से सब मालूम कर लो हम्दमो
तुम हकीकत मेरी सारी, मुझ से कुछ पूछो नहीं
शाम से ता-सुब्ह जो बिस्तर पे तुम बिन रात को
मैंने की अख्तर-शुमारी, मुझ से कुछ पूछो नहीं
ऐ 'ज़फ़र' जो हाल है मेरा करूँगा गर बयाँ
होगो उनकी शर्मसारी, मुझ से कुछ पूछो नहीं
************************

शुक्रवार, 27 जून 2008

पुरानी शराब / दाग़ देहलवी [ 1831-1905 ]

परिचय : नवाब मिर्ज़ा खान, जिन्हें उर्दू जगत 'दाग़ देहलवी' के नाम से जानता है, अदभुत प्रतिभा के कवि थे. दस वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था. 1865 में वे रामपूर चले गए जहाँ वे 24 वर्ष रहे.1891 में हैदराबाद आ गए. यहाँ आकर उन्हें अपूर्व ख्याति मिली. ग़ज़ल के शायर के रूप में वे विशेष चर्चित हुए. उनके कुछ शेर जनता की ज़बान पर आम थे. उदाहरण स्वरुप 'तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही/ तू नहीं और सही, और नहीं और सही,' अथवा 'उर्दू हैं जिसको कहते हमीं जानते हैं 'दाग़' / हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बां की है.' दाग़ ने कुल सोलह हज़ार शेर लिखे. प्रसिद्ध गायक गुलाम अली और गायिका परवीन आबिद ने उनकी गज़लों को अपनी आवाज़ और संगीत से सजाया.
पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
आफ़त की शोखियाँ हैं तुम्हारी निगाह में
महशर के फ़ितने खेलते हैं जल्वागाह में
वो दुश्मनी से देखते हैं, देखते तो हैं
मैं शाद हूँ, कि हूँ तो किसी की नीगाह में
आती है बात बात मुझे याद, बार बार
कहता हूँ दौड़ दौड़ के कासिद से राह में
इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस क़दर
जो टूट कर शरीक हूँ हाले-तबाह में
मुश्ताक़ इस अदा के बहोत दर्दमंद थे
ऐ ‘दाग़’ तुम तो बैठ गए एक आह में
[ 2 ]
बुताने-महवशां उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिसकी जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
हज़ारों हसरतें वो हैं कि रोके से नहीं रुकतीं
बहोत अरमान ऐसे हैं कि दिल के दिल में रहते हैं
खुदा रक्खे मुहब्बत के लिए आबाद दोनों घर
मैं उनके दिल में रहता हूँ, वो मेरे दिल में रहते हैं
ज़मीं पर पाँव नखवत से नहीं रखते परी-पैकर
ये गोया इस मकाँ की दूसरी मंज़िल में रहते हैं
कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं.
[ 3 ]
काबे की है हवस कभी कूए-बुताँ की है
मुझको ख़बर नहीं मेरी मिटटी कहाँ की है
कुछ ताज़गी हो लज़्ज़ते-आज़ार के लिए
हर दम मुझे तलाश नये आसमां की है
हसरत बरस रही है यूँ मेरे मज़ार से
कहते हैं सब ये क़ब्र किसी नौजवाँ की है
क़ासिद की गुफ्तुगू से तसल्ली हो किस तरह
छुपती नहीं वो बात, जो तेरी ज़बां की है
सुनकर मेरा फ़सानए-ग़म उसने ये कहा
हो जाए झूठ सच, यही खूबी ज़बां की है
क्योंकर न आए खुल्द से आदम ज़मीन पर
मौज़ूँ वहीं वो ख़ूब है जो शय जहाँ की है
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बां की है
[ 4 ]
खातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया
दिल लेके मुफ़्त, कहते हैं कुछ काम का नहीं
उलटी शिकायतें रहीं, एहसान तो गया
अफ़्शाए-राज़े-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया, जान तो गया
देखा है बुतकदे में जो ऐ शैख़ कुछ न कुछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया
डरता हूँ देख कर दिले-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यों न हो मेहमान तो गया
गो नामाबर से खुश न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया
होशो-हवासो-ताबो-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं, सामन तो गया
[ 5 ]
ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा
तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परीशान रहा करती है
किसके उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा
ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक्त में आना तेरा
दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं ये फरमाते हैं
तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा
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शनिवार, 21 जून 2008

पसंदीदा शायरी / 'जिगर' मुरादाबादी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
दास्ताने-गमे-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगडी थी कुछ ऐसी कि बनायी न गई
सब को हम भूल गए जोशे-जुनूं में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उनसे भी उठाई न गई

[ 2 ]
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी ,कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बलाए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वह्म रहा मुद्दतों कि जुरअते-शौक़
कहीं न खातिरे-मासूम पर गरां गुज़रे
हरेक मुक़ामे-मुहब्बत बहोत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए, जवां-जवां गुज़रे
खता मुआफ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या-क्या हमें गुमाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं दोज़ख उसी को जन्नत भी
वो जिंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को खबर न हुई
रहे-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
बहोत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद 'जिगर'
वो हादिसाते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे

[ 3 ]
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाँव मुंह फेर कर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सबसे गुज़र जाने वाले

[ 4 ]
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं

[ ५ ]
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है

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शुक्रवार, 20 जून 2008

पुरानी शराब / हैदर अली ‘आतिश’ दिहलवी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझको खल्क़े-खुदा गाइबाना क्या
ज़ेरे-ज़मीं से आता है गुल, सोज़ ज़रबकफ़
क़ारूं ने रास्ते में लुटाया ख़ज़ाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्ते-ख़ाक
बामे-बलंद, यार का है आस्ताना क्या
चारों तरफ़ से सूरते-जानां हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना-खाना क्या
तब्लो-अलम है पास न अपने है मुल्को-माल
हम से ख़िलाफ़ होके करेगा ज़माना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
आतिश गज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या
[ 2 ]
इंसाफ़ की तराजू में तोला, अयाँ हुआ
यूसुफ़ से तेरे हुस्न का पल्ला गराँ हुआ
मादूम दागे-इश्क़ का दिल से निशाँ हुआ
अफ़सोस, बे-चराग़ हमारा मकाँ हुआ
देखा जो मैं ने उसको समंदर की आँख से
गुलज़ार आग हो गई, सुम्बुल धुंवां हुआ
तू देखने गया लबे-दरया जो चाँदनी
उस्द्तादा तुझको देख के आबे-रवां हुआ
इन्सां को चाहिए के न हो नागवारे-तब'अ
समझे सुबुक उसे जो किसी पर गराँ हुआ
अल्लाह के करम से बुतों को किया मुतीअ
ज़ेरे-नगीं क़लम-रवे-हिन्दोस्तां हुआ
क़ातिल की तेग़ से रहे-मुल्के-अदम मिली
आहन हमारे वास्ते संगे-निशाँ हुआ
फ़िकरे- बलंद ने मेरी ऐसा किया बलंद
आतिश ज़मीने-शेर से पस्त आसमां हुआ
[ 3 ]
वहशते-दिल ने किया है वो बियाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरते-इन्सां पैदा
दिल के आईने में कर जौहरे-पिन्हाँ पैदा
दरो-दीवार से हो सूरते-जानां पैदा
बाग़ सुनसान न कर इनको पकड़ कर सैयाद
बादे-मुद्दत हुए हैं मुर्गे-खुश-इल्हाँ पैदा
रूह की तर्ह जो दाखिल हो वो दीवाना है
जिसमे-खाकी समझ उसको जो हो ज़िन्दाँ पैदा
बे-हिजाबों का मगर शहर है अक्लीमे-अदम
देखता हूँ जिसे, होता है वो उरयां पैदा
एक गुल ऐसा नहीं होवे खिज़ाँ जिसकी बहार
कौन से वक्त हुआ था ये गुलिस्ताँ पैदा
मूजिद इसकी है सियह-रोज़ी हमारी 'आतिश'
हम न होते तो न होती शबे-हिजरां पैदा
[ 4 ]
तेरी मस्ताना आंखों पर न गर्दिश का असर देखा
मए-गुलरंग से सौ-सौ तरह पैमाना भर देखा
मुसाफ़िर ही नज़र आया, नज़र आया जो दुनिया में
जिसे देखा, उसे आलूदए- गर्दे-सफ़र देखा
नया ग़म्ज़ा किया सैयाद ने अपने असीरों से
किया आज़ाद उसे, जिस मुर्ग़ को बे बालो-पर देखा
ख़बर इक दिन न ली, पूछा न हाल अपने फ़क़ीरों का
वो शाहे-हुस्न, हमने बादशाहे-बेखबर देखा
तड़पते देख कर मुझको कहा हंस कर ये उस बुत ने
खुदा के दोस्त को रंजो-अलम में बेशतर देखा
बदख्शां-ओ-यमन छाना, लगाए गोते दरया के
न लब सा लाल, ऐ 'आतिश', न दंदां सा गुहर देखा
[ 5 ]
आशियाना, न क़फ़स औ न चमन याद आया
आँख खुलने भी न पायी थी कि सैयाद आया
एक दिन हिचकी भी आई न मुझे गुरबत में
मैं कभी तुमको न ऐ अहले-वतन याद आया
सोज़िशे-दिल मेरी क्या बनके क़लम लिक्खेगा
मोम हो हो के है बह जाने को फ़ौलाद आया
सज्दए-शुक्र ज़मीं पर न करूँ मैं क्योंकर
आसमां से है मेरा रिज़के-खुदादाद आया
देखले फिर ये तमाशा नज़र आने का नहीं
सामने आंखों के है आलमे-ईजाद आया
दर्गहे-यार मुरादों की महल है 'आतिश'
शाद याँ से है गया, जब कोई नाशाद आया
***********************

सोमवार, 16 जून 2008

पसंदीदा शायरी / क़तील शिफ़ाई

तीन ग़ज़लें
[ १ ]
मंज़र समेट लाये हैं जो तेरे गाँव के
नींदे चुरा रहे हैं वो झोंके हवाओं के
तेरी गली से चाँद ज़ियादा हसीं नहीं
कहते सुने गए हैं मुसाफ़िर ख़लाओं के
पल भर को तेरी याद में धड़का था दिल मेरा
अब दूर तक भंवर से पड़े हैं सदाओं के
ज़ादे-सफर मिली है किसे राहे-शौक़ में
हमने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
जब तक न कोई आस थी ये प्यास भी न थी
बेचैन कर गये हमें साए घटाओं के
हमने लिया है जब भी किसी राह्ज़न का नाम
चेहरे उतर गये हैं कई रहनुमाओं के
उगलेगा आफताब कुछ ऐसी बला की धुप
रह जायेंगे ज़मीन पे कुछ दाग छाँव के
जिंदा थे जिन की सर्द हवाओं से हम 'क़तील'
अब ज़ेरे-आब हैं वो जज़ीरे वफ़ाओं के
[ 2 ]
राब्ता लाख सही काफिला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक्त की रफ़्तार के साथ
ग़म लगे रहते हैं हर आन खुशी के पीछे
दुश्मनी धूप की है सायए-दीवार के साथ
किस तरह अपनी मुहब्बत की मैं तक्मील करूँ
गमे-हस्ती भी तो शामिल है गमे-यार के साथ
लफ्ज़ चुनता हूँ तो मफ़हूम बदल जाता है
इक-न-इक खौफ भी है जुरअते -इजहार के साथ
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बनकर
जान ले ले मेरी सैयाद मगर प्यार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आयें किसी गालिब से 'क़तील'
हजरते-'जौक' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
[ 3 ]
रंग जुदा, आहंग जुदा, महकार जुदा
पहले से अब लगता है गुलज़ार जुदा
नग्मों की तख्लीक का मौसम बीत गया
टूटा साज़ तो हो गया तार से तार जुदा
बेज़ारी से अपना-अपना जाम लिये
बैठा है महफ़िल में हर मैख्वार जुदा
मिला था पहले दरवाज़े से दरवाज़ा
लेकिन अब दीवार से है दीवार जुदा
यारो मैं तो निकला हूँ जाँ बेचने को
तुम अब सोचो कोई कारोबार जुदा
सोचता है इक शायर भी, इक ताजिर भी
लेकिन सबकी सोच का है मेआर जुदा
क्या लेना इस गिरगिट जैसी दुनिया से
आए रंग नज़र जिसका हर बार जुदा
किस ने दिया है सदा किसी का साथ 'क़तील'
हो जाना है सबको आखिरकार जुदा
*************************

रविवार, 15 जून 2008

पसंदीदा शायरी / अहमद फ़राज़

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस न हो खिल्वते-गम से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा
तुम सरे-राहे-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-रफाक़त से उतर जायेगा
ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं, कोई तो साहिल पे उतर जायेगा
ज़ब्त लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का 'फ़राज़'
जालिम अबके भी न रोयेगा तो मर जायेगा
[ 2 ]
खामोश हो क्यों दादे-जफ़ा क्यों नहीं देते
बिस्मिल हो, तो कातिल को दुआ क्यों नहीं देते
वहशत का सबब रौज़ने-जिनदाँ तो नहीं है
महरो-महो-अंजुम को बुझा क्यों नहीं देते
इक ये भी तो अंदाज़े-इलाजे-गमे-जाँ है
ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यों नहीं देते
मुंसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते
रह्ज़न हो तो हाजिर है मताए-दिलो-जाँ भी
रहबर हो तो मंजिल का पता क्यों नहीं देते
क्या बीत गई अबके 'फ़राज़' अहले-चमन पर
याराने-क़फ़स मुझको सदा क्यों नहीं देते
[ 3 ]
इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएं
इश्क़ भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएं कीमिया हो जाएं
अबके गर तू मिले तो हम तुझ से
ऐसे लिप्तें तेरी क़बा हो जाएं
बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएं
[ 4 ]
अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें
तू खुदा है न मेरा इश्क़ फरिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
आज हम दार पे खैंचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें
अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माजी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख्स तमन्ना के सराबों में मिलें
[ 5 ]
बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
के ज़हरे-गम का नशा भी शराब जैसा है
कहाँ वो कुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फिराक का आलम भी ख्वाब जैसा है
इसे कभी कोई देखे कोई पढे तो सही
दिल आइना है तो चेहरा किताब जैसा है
'फ़राज़' संगे-मलामत से ज़ख्म-ज़ख्म सही
हमें अज़ीज़ है, खानाखाराब, जैसा है.
****************

शुक्रवार, 13 जून 2008

पसंदीदा शायरी / अहमद नदीम क़ास्मी

तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
गुल तेरा रंग चुरा लाये हैं गुल्ज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में
मुझसे कतरा के निकल जा मगर ऐ जाने-हया
दिल की लौ देख रहा हूँ तेरे रुख्सारों में
हुस्ने-बेगानए-एहसासे-जमाल अच्छा है
गुंचे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में
ज़िक्र करते हैं तेरा मुझसे ब-उनवाने-जफ़ा
चारा-गर फूल पिरो लाये हैं तलवारों में
मुझको नफरत से नहीं प्यार से मस्लूब करो
मैं तो शामिल हूँ मुहब्बत के गुनाहगारों में
[ 2 ]
किसको कातिल मैं कहूँ किसको मसीहा समझूं
सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं, किसे क्या समझूं
वो भी क्या दिन थे के हर वह्म यकीं होता था
अब हकीकत नज़र आए तो उसे क्या समझूं
दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उट्ठे
ऐसे माहौल में अब किसको पराया समझूं
ज़ुल्म ये है के है यकता तेरी बेगाना-रवी
लुत्फ़ ये है के मैं अबतक तुझे अपना समझूं
[ 3 ]
लबों पे नर्म तबस्सुम रचा के धुल जाएँ
खुदा करे मेरे आंसू किसी के काम आएँ
जो इब्तिदाए-सफर में दिए बुझा बैठे
वो बदनसीब किसी का सुराग़ क्या पाएँ
तलाशे-हुस्न कहाँ ले चली खुदा जाने
उमंग थी के फ़क़त ज़िंदगी को अपनाएँ
न कर खुदा के लिए बार-बार ज़िक्रे-बहिश्त
हम आसमां का मुक़र्रर फरेब क्यों खाएँ
तमाम मैकदा सुनसान मैगुसार उदास
लबों को खोल के कुछ सोचती हैं मीनाएँ
************

पसंदीदा शायरी / पं. ब्रिज नारायन चकबस्त

ग़ज़ल
दर्दे-दिल पासे-वफ़ा जज़्बए-ईमाँ होना
आदमीयत है यही औ यही इन्साँ होना
नौ-गिरफ्तारे-बला तर्जे-फुगाँ क्या जानें
कोई नाशाद सिखा दे उन्हें नालाँ होना
रह के दुनिया में है यूं तर्के-हवस की कोशिश
जिस तरह अपने ही साए से गुरेजाँ होना
ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़हूरे-तरतीब
मौत क्या है, इन्हीं अज्ज़ा का परीशाँ होना
दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का
वल्वलों के लिए मुमकिन नहीं ज़िनदाँ होना
गुल को पामाल न कर लालो-गुहर के मालिक
है इसे तुर्रए - दस्तारे - ग़रीबाँ होना
है मेरा ज़ब्ते- जुनूँ जोशे - जुनूँ से बढ़कर
नंग है मेरे लिए चाक - गरीबाँ होना
*******************************

पुरानी शराब / मोमिन खां 'मोमिन' देहलवी

सात ग़ज़लें
[ 1 ]
असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज, राहत फज़ा नहीं होता
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता
नारसी से द'आम रुक तो रुक
मैं किसी से खफा नहीं होता
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
हाले-दिल यार को लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
क्यों सुने अर्ज़े- मुज्तरिब मोमिन
सनम आख़िर खुदा नहीं होता
[ 2 ]
नावक अंदाज़ जिधर दीदए- जानां होंगे
नीम बिस्मिल कई होंगे, कई बेजां होंगे
ताबे-नज्जारा नहीं आइना क्या देखने दूँ
और बन जायेंगे तस्वीर जो हैरां होंगे
फिर बहार आये, वही दश्त-नवर्दी होगी
फिर वही पाँव, वही खारे-मुगीलां होंगे
नासिहा दिल में तू इतना तो समझ अपने के हम
लाख नादां हुए, क्या तुझसे भी नादां होंगे
तू कहाँ जायेगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाबे -अदम में शबे-हिजरां होंगे
एक हम हैं के हुए ऐसे पशेमान के बस
एक वो हैं के जिन्हें चाह के अरमां होंगे
मिन्नते-हज़रते- ईसा न उठाएंगे कभी
ज़िंदगी के लिए शर्मिंदए- एहसां होंगे
उम्र तो सारी कटी इश्के-बुतां में मोमिन
आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे
[ 3 ]
मार ही डाल मुझे चश्मे-अदा से पहले
अपनी मंज़िल को पहोंच जाऊं क़ज़ा से पहले
हश्र के रोज़ मैं पूछूँगा खुदा से पहले
तू ने रोका नहीं क्यों मुझको खता से पहले
ऐ मेरी मौत ठहर उनको ज़रा आने दे
ज़हर का जाम न दे मुझको दवा से पहले
हाथ पहोंचे भी न थे जुल्फे-दोता तक मोमिन
हथकडी डाल दी जालिम ने खता से पहले
[ 4 ]
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आपका दिल भी मेरी तरह
न ताब हिज्र में है न आराम वस्ल में
कमबख्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह
गर चुप रहें तो हम गमे-हिजरां से छूट जाएं
कहते तो हैं भले को वो, लेकिन बुरी तरह
न जाए वां बने है न बिन जाए चैन है
क्या कीजिये हमें तो है मुश्किल सभी तरह
लगती हैं गालियाँ भी तेरी मुझको क्या भली
कुर्बान तेरे, फिर मुझे कह ले इसी तरह
हूँ जां-बलब बुताने-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहाँ में जीते हैं मोमिन इसी तरह
[ 5 ]
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें के हो गए मजबूर जी से हम
हम से न बोलो तुम, इसे क्या कहते हैं भला
इन्साफ कीजे, पूछते हैं आप ही से हम
क्या गुल खिलेगा देखिये है फ़स्ले-गुल तो दूर
और सूए-दश्त भागते हैं कुछ अभी से हम
क्या दिल को ले गया कोई बेगाना आशना
क्यों अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
[ 6 ]
वो जो हम में तुम में करार था, तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हें याद हो के न याद हो.
वो नये गिले, वो शिकायतें, वो मज़े-मज़े की हिकायतें
वो हरेक बात पे रूठना, तुम्हें याद हो के न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुई, जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयां से पहले ही भूलना, तुम्हें याद हो के न याद हो
सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो
कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हें याद हो के न याद हो
हुए इत्तेफाक से गर बहम , वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिल- ए- मलामते-अक़रबा, तुम्हें याद हो के न याद हो
कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू, तो इशारतों ही से गुफ्तुगू
वो बयान शौक़ का बरमाला, तुम्हें याद हो के न याद हो
वो बिगाड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हरेक अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो
जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूँ मोमिने-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो
[ 7 ]
शब, तुम जो बज्मे-गैर में, आँखें चुरा गए
खोये गए हम ऐसे, के अगयार पा गए
मजलिस में उसने पान दिया अपने हाथ से
अगयार सब्ज़-बखत थे, हम ज़ह्र खा गए
गैरों से हो वो पर्दानशीं क्यों न बे-हिजाब
दम-हाय बे-असर मेरा परदा उठा गए
दुनिया से मैं गया जो नहीं नाज़ से कहा
अब भी गुमाने-बद न गए तेरे, या गए
ऐ मोमिन आप कब से हुए बंदए -बुतां
बारे हमारे दरमियाँ हजरत भी आगये
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