[ 1 ] तप रे मधुर मधुर मन
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर विधुर मन !
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्त्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन
ढल रे ढल आतुर मन !
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-मुक्त बन
निज अरूप में भर स्वरुप, मन
मूर्त्तिमान बन निर्धन !
गल रे गल निष्ठुर मन !
[ 2 ] भारत माता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा जमुना में आंसू जल
मिटटी की प्रतिमा उदासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !
दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन
अधरों में चिर नीरव रोदन
युग युग के तम् से विषंण मन
वह अपने घर में प्रवासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !
तीस कोटि संतान, नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन
नतमस्तक तरु-ताल निवासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !
स्वर्ण शस्य पर पद-तल लुंठित
धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित
क्रंदन कम्पित अधर मौन स्मित
राहू ग्रसित शरदिंदु हासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !
चिंतित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित
नमित नयन नभ वाश्पाच्छादित
आनन् श्री छाया शशि उपमित
ज्ञानमूढ़ गीता प्रकाशिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !
सफल आज उसका तप संयम
पिला हिंसा स्तन्य सुधोपम
हरती जन-मन भय, भव तन भ्रम
जग जननी जीवन विकासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !
[ 3 ] विजय
मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में
मैं भक्ति ह्रदय में भर लाई
वह प्रीती बनी उर परिणय में.
जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिती हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास मांगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं !
प्राणों की तृष्णा हुई लीन,
स्वप्नों के गोपन संचय में,
संशय भय मोह विषाद हीन,
लज्जा करुणा में निर्भय मैं.
लज्जा जाने कब बनी मान
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान
कैसे ! कब ? करती विस्मय मैं.
उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं
पापों अभिशापों की थी घर,
वरदान बनी मंगलमय मैं.
बाधा-विरोध अनकूल बने
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहंस मृदु फूल बने
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में.
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बुधवार, 25 जून 2008
कविता के हस्ताक्षर / जयशंकर प्रसाद [ 1889-1937 ]
[ 1 ] हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पन्थ है, बढे चलो बढे चलो !
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृ-भूमि के
रुको न शूर साहसी !
अराति-सैन्य-सिन्धु में,सुवाडवाग्नि से जलो
प्रवीर हो, जयी बनो - बढे चलो बढे चलो !
[ 2 ] अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा.
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा.
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुमकुम सारा.
लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीद निज प्यारा.
बरसाती आंखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल
लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहाँ किनारा.
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे भारती ढुलकाती सुख तेरे
मदिर ऊंघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा.
[ 3 ] बीती विभावरी
बीती विभावरी जाग री.
अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा घाट ऊषा नगरी.
खग कुल कुल कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी.
अधरों में राग अमंद लिए, अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली, आंखों में भरे विहाग री.
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हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पन्थ है, बढे चलो बढे चलो !
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृ-भूमि के
रुको न शूर साहसी !
अराति-सैन्य-सिन्धु में,सुवाडवाग्नि से जलो
प्रवीर हो, जयी बनो - बढे चलो बढे चलो !
[ 2 ] अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा.
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा.
सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुमकुम सारा.
लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीद निज प्यारा.
बरसाती आंखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल
लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहाँ किनारा.
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे भारती ढुलकाती सुख तेरे
मदिर ऊंघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा.
[ 3 ] बीती विभावरी
बीती विभावरी जाग री.
अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा घाट ऊषा नगरी.
खग कुल कुल कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी.
अधरों में राग अमंद लिए, अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली, आंखों में भरे विहाग री.
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लेबल:
कविता के हस्ताक्षर
मंगलवार, 24 जून 2008
कविता के हस्ताक्षर / महादेवी वर्मा [1907-1987 ]
[ १ ] मधुर मधुर मेरे दीपक जल
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा धुल रे मृदु तन'
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल गल !
पुलक,पुलक मेरे दीपक जल !
सारे शीतल कोमल नूतन
मांग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल'
सिहर सिहर मेरे दीपक जल
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर सा उर जलता,
विद्युत् ले घिरता है बादल !
विहंस विहंस मेरे दीपक जल !
द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम
बसुधा के जड़ अन्तर में भी,
बंदी है तापों की हाचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !
मेरे निःश्वासों से दुस्तर,
सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !
सीमा ही लघुता का बंधन
है अनादि तू मत घडियां गिन,
मैं दृग के अक्षय-कोशों से
तुझमें भरती हूँ आंसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !
तब असीम तेरे प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम् के अणु अणु में विद्युत् सा-
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !
तू जल जल जितना होता क्षय
या समीप आता छलनामय
मधुर मधुर में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !
[ २ ] धूप सा तन, दीप सी मैं
उड़ रहा नित एक सौरभ धूम लेखा में बिखर तन
खो रहा निज को अथक आलोक साँसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन पल
औ विसर्जन पुलक उज्जवल
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन और समीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाए
रश्मि विद्युत् ले प्रलय रथ पर भले तुम शांत आए
पंथ से मृदु स्वेद कण चुन
छाँह से भर प्राण उन्मन
तम् जलधि में नेह का
मोती रचुंगी सीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
*********************
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा धुल रे मृदु तन'
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल गल !
पुलक,पुलक मेरे दीपक जल !
सारे शीतल कोमल नूतन
मांग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल'
सिहर सिहर मेरे दीपक जल
जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर सा उर जलता,
विद्युत् ले घिरता है बादल !
विहंस विहंस मेरे दीपक जल !
द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम
बसुधा के जड़ अन्तर में भी,
बंदी है तापों की हाचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !
मेरे निःश्वासों से दुस्तर,
सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !
सीमा ही लघुता का बंधन
है अनादि तू मत घडियां गिन,
मैं दृग के अक्षय-कोशों से
तुझमें भरती हूँ आंसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !
तब असीम तेरे प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम् के अणु अणु में विद्युत् सा-
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !
तू जल जल जितना होता क्षय
या समीप आता छलनामय
मधुर मधुर में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !
[ २ ] धूप सा तन, दीप सी मैं
उड़ रहा नित एक सौरभ धूम लेखा में बिखर तन
खो रहा निज को अथक आलोक साँसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन पल
औ विसर्जन पुलक उज्जवल
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन और समीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाए
रश्मि विद्युत् ले प्रलय रथ पर भले तुम शांत आए
पंथ से मृदु स्वेद कण चुन
छाँह से भर प्राण उन्मन
तम् जलधि में नेह का
मोती रचुंगी सीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
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