गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

देह मे जब तक भटकती सांस है/घनश्याम मौर्य

महोदय,

मै आप्के युग विमर्श ब्लॉग का नियमित रूप से अनुसरण करता हूँ. इस पर उत्कृष्ट एवं स्तरीय रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं. हिंदी साहित्य का प्रेमी होने के साथ ही मैं हिंदी में काव्य-रचना भी करता हूँ. अपनी एक ग़ज़ल आपके ब्लॉग पर प्रकाशन हेतु भेज रजा हूँ. कृपया अपने ब्लॉग पर इसे प्रकाशित करने हेतु विचार करने का कष्ट करें.

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Ghanshyam Maurya
283/459, Garhi Kanora
Lucknow-226011U.P.

देह मे जब तक भटकती सांस है.

त्रास के होते हुए भी आस है.

दर्द कितना भी भयानक हो मगर,

मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.

पी रहा कोई सुधा कोई गरल,

किंतु अपने पास केवल प्यास है.

रास्ते मे आयेंगे तूफान जो,

हो रहा उनका हमे आभास है.

राज्सत्ता हो मुबारक आपको,

भाग्य मे अपने लिखा वन वास है.
घनश्याम मौर्य

    लखनऊ, उत्तर प्रदेश

1 टिप्पणी:

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

देह मे जब तक भटकती सांस है.

त्रास के होते हुए भी आस है.

दर्द कितना भी भयानक हो मगर,

मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.

वाह!
दर्द में मुस्कुराना भी तो कला ही है