बुधवार, 28 अप्रैल 2010

बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं

बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं॥
अनवरत साथ दूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी प्रतिबद्धता का ये आशय कहाँ,
झूट को सच कहूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं हूँ मानव,कोई तोता - मैना नहीं,
जो पढाओ पढूँ मैं ये संभव नहीं॥
पत्थरों में प्रतिष्ठित करूँ प्राण मैं,
सब के आगे झुकूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी अपनी व्यथाएं भी कुछ कम नहीं,
आप ही की सुनूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं अदालत में जनता की जब हूं खड़ा,
रात को दिन लिखूँ मैं ये संभव नहीं॥
अपने अन्तःकरण का गला घोट कर्।
ब्र्ह्म हत्या करूं मैं ये संभव नहीं॥
********

3 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

waah..........bahut khoob.

नरेश चन्द्र बोहरा ने कहा…

पत्थरों में प्रतिष्ठित करूँ प्राण मैं,
सब के आगे झुकूँ मैं ये संभव नहीं॥

क्या खूब लिखा है आपने. बहुत ही अच्छा.

दिलीप ने कहा…

waah kya khoob likha...