गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से।
हुशियार हमें रहना है इतिहास के छल से॥
विश्वास न था मन में तो क्यों आये यहाँ आप,
इक पल में हुए जाते हैं क्यों इतने विकल से॥
क्या आगे सुनाऊं मैं भला अपनी कहानी,
प्रारंभ में ही हो गये जब आप सजल से॥
मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥
ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से॥
सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥
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5 टिप्पणियां:
ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से
Bahut achche.Likhte rahiye.
एक बहुत अच्छी ग़ज़ल पढ़ने को मिली युग-विमर्श पर।
सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥************
सुंदर रचना ।
सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥
....क्या करें ! मानव का स्वभाव ही कुछ ऐसा है ..........
छल करने वालों को यही सब तो अच्छा लगता है.....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है ... हर शेर बेहतरीन है ...
इनमे से भी ये शेर मुझे बहुत अच्छा लगा -
मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥
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