फ़िज़ा में आइनों के अक्स जब दम तोड़ देते हैं।
रुपहले ख़्वाब सब थक हार कर हम तोड़ देते हैं॥
लिए मजबूरियाँ हम दर-ब-दर फिरते हैं बस्ती में,
कभी ज़ख़्मों की सौग़ातें कभी ग़म तोड़ देते हैं॥
लबालब मय न हो तो लुत्फ़ पीने का नहीं आता,
वो साग़र जिसमें हो मेक़दार कुछ कम तोड़ देते हैं॥
रुलाया है बहोत उसने तुझे अफ़सुरदा लमहों में,
तअल्लुक़ उस से अब ऐ चश्मे पुरनम तोड़ देते हैं॥
जुनूं में होश अपनी ज़िन्दगी का कुछ नहीं होता,
बनाते हैं जिसे हम ख़ुद वो आलम तोड़ देते हैं॥
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1 टिप्पणी:
इतनी अच्छी गज़ल पर एक कमेन्ट ?
बहुत नाइंसाफी है ....
बहुत अच्छा लिखते हैं आप ... बधाई
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