सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

तुम मुवर्रिख़ हो / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

तुम मुवर्रिख़ हो जिस तर्ह चाहो हमें
तल्ख़ियों से भरे
मस्ख़ औराक़ का एक हिस्सा बना दो।
हमारे सभी कारनामे मिटा दो।
हमें दफ़्न कर दो, सुला दो।
मगर याद रखना
के हम कल इसी ख़ाक से फिर उठेंगे।

हम इस मुल्क में आये थे,
ख़ुल्द की ख़ुश्बुओं का ज़ख़ीरा समझ कर इसे,
हमने इस को लगाया गले
बेशक़ीमत तराशा हुआ
नूर अफ़रोज़ हीरा समझकर इसे।
जब भी कोई ज़रूरत पड़ी
इसकी इज़्ज़त पे हमने कभी आँच आने न दी,
जानते थे मुहब्बत का पैकर इसे,
ख़ुश हुए सौंप कर सर इसे।
इसको रूहानी नग़मे सुनाते रहे
और रिशियों को इसके मुक़द्दस समझते हुए,
उनके हमराह
वहदानियत के तस्व्वुर की गुलकारियों से
चमन-दर-चमन
दौलते-इश्क़ खुलकर लुटाते रहे।
सारी बातें भुला कर तुम्हें
याद बस ये रहा
हमला आवर थे हम
यानी इन्साँ नहीं,
सिर्फ़ लश्कर थे हम्।
हम न हुजवैरी थे
और न चिश्ती, सुहर्वरदी या क़ादरी
अल्बेरूनी भी शायद न थे
सिर्फ़ हम ग़ज़नवी और ग़ोरी थे,
बाबर थे हम
नफ़रतों का समन्दर थे हम
तुम ने ज़िन्दा हक़ायक़ उठाकर सभी
ताक़ पर रख दिये
जितने बाग़ात हमने लगाये
तुम्हें वो भी शायद न अच्छे लगे
अम्न से सारी क़ौमें रहीं भाइयों की तरह
हुस्नो-इख़लाक़ के ख़ुशनज़र साहिलों की तरह
क़द्र कुछ भी मुहब्बत की तुमने न की
तुम मुवर्रिख़ हो जिस तर्ह चाहो हमें
तल्ख़ियों से भरे
मस्ख़ औराक़ का एक हिस्सा बना दो
हमारे सभी करनामे मिटा दो
हमें दफ़्न करदो, सुला दो
मगर याद रखना
के हम कल इसी ख़ाक से फिर उठेंगे।
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