मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

इस तर्ह इस जहाँ ने बनाया मकीं हमें

इस तर्ह इस जहाँ ने बनाया मकीं हमें।
हम हैं सफ़र में इसकी ख़बर तक नहीं हमें॥
करते हैं ख़्वहिशात के तामीर क्यों महल,
रहने को सिर्फ़ चाहिए दो गज़ ज़मीं हमें॥
पाले हैं हमने साँप हमे ये पता न था,
अब डस रही है अपनी ही ख़ुद आस्तीँ हमें॥
क़ातिल अदा है जानता हूं इसके बावजूद,
इस जाँ से भी अज़ीज़ है वो नाज़नीं हमें॥
अब हम कभी न आयेंगे इसके फ़रेब में,
बरबाद कर चुका है ये ख़्वाबे-हसीं हमें॥
क्या हुस्न है के ख़ुद पे नहीं मेरा अख़्तियार,
बे-साख़्ता झुकानी पड़ी है जबीं हमें॥
ग़मगीन मैं ज़रूर हूं मायूस मैं नहीं,
समझा रहा है कबसे ये क़ल्बे-हज़ीं हमें॥
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मकीं=मकान में रहने वाला ।, ख़्वाहिशात=इच्छाएं ।, तामीर=निर्माण ।क़ातिल-अदा=क़त्ल कर देने का हाव-भाव रखने वाला ।अज़ीज़=प्रिय।नाज़नीं=सुकुमारी।ख़्वाबे-हसीं=सुन्दर स्वप्न्।बेसाख़्ता=अनायास्।ग़मगीन=दुखी।क़ल्बे-हज़ीं=व्याकुल हृदय्।

1 टिप्पणी:

रानीविशाल ने कहा…

करते हैं ख़्वहिशात के तामीर क्यों महल,
रहने को सिर्फ़ चाहिए दो गज़ ज़मीं हमें॥
Waah ! bahut gahari baat behad khubsurati ke sath ....ye sher dil ko chu gaya mere lekin puri gazal hi bahut behtreen hai! aapne Shabdaarth ke sath prastut kiya ye bahut hi sarahniya hai ....Aabhar!