शनिवार, 1 अगस्त 2009

हमेँ ज़मीन पे रह्ते हुए ज़माना हुआ ।

हमेँ ज़मीन पे रह्ते हुए ज़माना हुआ ।
क़यामे-ख़ुल्दे-बरीं अब तो इक फ़साना हुआ॥

ये शह्र क्या था न आबादियाँ न घर न सड़क,
यहाँ वो आता गया जिस का आबो-दाना हुआ ॥

किवाड़ें घर की नहीं चौखटों के क़ब्ज़े में,
इन्हें ये ग़म है, वो इस घर से क्यों रवाना हुआ ॥

बक़ा के लमहे फ़ना में तलाश करता है,
अजीब शख़्स है मस्ते-ख़्रराब ख़ाना हुआ ॥

ख़याल आता है उस बज़्मे-मह्वशाँ का मुझे,
बहोत से लोग थे ये दिल ही क्यों निशाना हुआ ॥

न मिलना चाहता था वो तो साफ़ कह देता,
वो जा रहा है कहीं ये महज़ बहाना हुआ ॥

ज़माना करता है तशहीर कारनामों की,
के इस जहान में कल ज़िक्र कुछ हुआ न हुआ ॥
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शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

मुड़ के देखा था फ़क़त हो गया पत्थर नाहक़ ।

मुड़ के देखा था फ़क़त हो गया पत्थर नाहक़ ।
ओढ़ना चाहता था माज़ी की चादर नाहक़ ॥

मैं था साहिल पे खड़ा उसके ख़यालात लिये,
ख़ैरियत पूछने आया था समन्दर नाहक़ ॥

हक़-पसन्दी न मेरी कुछ भी मेरे काम आयी,
मिल गयी ख़ाक मेँ अज्दाद की इज़्ज़त नाहक़॥

उसकी तस्वीर तो दिल मेँ ही थी, देखी न गयी,
लोग करते रहे ता-उम्र इबादत नाहक़ ॥

अच्छा-ख़ासा इसी दुनिया के मुताबिक़ था मिज़ाज,
उस में क्यों घोल दिया रंगे-शराफ़त नाहक़ ॥

जिस को बेताबिए-दिल की भी कोई फ़िक्र न हो,
उसकी जानिब हुई माएल ये तबीअत नाहक़ ॥

इतना मसरूफ़ रहा वादों की पर्वा भी न की,
मिल के अहबाब से होती है निदामत नाहक़ ॥
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सोमवार, 27 जुलाई 2009

रह गयीं बिछी आँखें और तुम नहीं आये।

रह गयीं बिछी आँखें और तुम नहीं आये।

मुज़महिल हुईं यादें और तुम नहीं आये ॥

चान्द की हथेली पर रख के सर मुहब्बत से,

सो गयीं थकी किरनें और तुम नहीं आये ॥

ख़त तुम्हारे पढ़-पढ़ कर चांदनी भी रोई थी,

नम थीं रात की पलकें और तुम नहीं आये॥

धूप होके आँगन से छत पे जाके बैठी थी,

कोई भी न था घर में और तुम नहीं आये॥

टुकड़े-टुकड़े हो-हो कर चुभ रही थीं सीने में,

इन्तेज़ार की किरचें और तुम नहीं आये ॥

नीम पर लटकते हैं अब भी सावनी झूलए,

जा रही हैं बरसातें और तुम नहीं आये॥

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शनिवार, 25 जुलाई 2009

असासा ख़्वाबों का मह्फ़ूज़ कर नहीं पाया ।

असासा ख़्वाबों का मह्फ़ूज़ कर नहीं पाया ।
के दिल ने अपना कोई हमसफ़र नहीं पाया॥

हमारी आँखों के शायद चेराग़ रौशन थे ,
अँधेरा आया तो लेकिन ठहर नहीं पाया॥

तमाम ख़्वाहिशें यकबारगी सिमट सी गयीं,
मैं उसके कूचे से होकर गुज़र नहीं पाया॥

हमारे गाँव में अब भी है ठाकुरों का कुंवाँ,
घड़ा जहाँ से दलित कोई भर नहीं पाया॥

तवक़्क़ोआत में बारिश की खेत सूख गये,
घटाओं को भी बहोत मोतबर नही पाया॥

न ले सका मैं कोई काम मसलेहत से कभी,
के सादगी ने मेरी ये हुनर नहीं पाया ॥
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बुधवार, 22 जुलाई 2009

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूं

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूं ।
फिर अपने खेतों के तश्ना लबों को देखता हूं॥

तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देख्ता हूं ।
हया से सिमटी हुई दह्शतों को देखता हूं ॥

दिलों को बाँट दिये और ख़ुद रहीं ख़ामोश,
तअल्लुक़ात की उन सरहदों को देखता हूं ॥

न आयी हिस्से में जिनके ये रोशनी ये हवा,
चलो मैं चलके ज़रा उन घरों को देखता हूं ॥

जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आँखों से उन ताक़तों को देख्ता हूं॥

बहोत थे सहमे हुए लब के बोल तक न सके,
मैं थरथराती हुई काविशों को देखता हूं॥

न जाने कब से फ़िज़ाओं की सुर्ख़ हैं आँखें,
मैं उनमें पलते नये हादसों को देखता हूं॥
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हवाएं हैं गरीबाँ चाक हर जानिब उदासी है।

हवाएं हैं गरीबाँ चाक हर जानिब उदासी है।
मुहब्बत के लिए पागल ज़मीं मुद्दत से प्यासी है॥

शजर पर इन बहारों में नयी कोंपल नहीं फूटी,
पुराने पत्तों की अब ज़िन्दगी बाक़ी ज़रा सी है॥

अयाँ है चान्द के मायूस मुर्दा ज़र्द चेहरे से,
सितारों के जहाँ में भी कहीं कोई वबा सी है ॥

चलो इस शह्र से ये शह्र बेगाना सा लगता है,
सुकूं नापैद है लोगों में बेहद बदहवासी है॥

लबे दरिया भी आजाओ तो कुछ राहत नहीं मिलती,
के पानी में किसी मरज़े नेहाँ की इब्तेदा सी है॥

ख़ुदा को देखना है गर तो मेरे शह्र में आओ,
दिखाऊं सूरतें ऐसी के हर सूरत ख़ुदा सी है॥
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मंगलवार, 21 जुलाई 2009

मकान कितने बदलता रहा मैं घर न मिला।

मकान कितने बदलता रहा मैं घर न मिला।
तमाम उम्र जो दे साथ हम-सफ़र न मिला ॥

ग़ज़ल के फ़न पे क़लम नाक़िदों के चलते रहे,
मगर किसी का भी मेयार मोतबर न मिला ॥

शऊरो-फ़ह्म है तख़्लीक़-कार की दुनिया,
यहाँ फ़सानए-दिल कोई बे-असर न मिला ॥

ठहर के साए में जिसके ज़रा सा दम लेते ,
हमारी राह में ऐसा कोई शजर न मिला ॥

निकालीं सीपियाँ कितने ही ग़ोता-ख़ोरों ने,
जो आबदार हो ऐसा कोई गुहर न मिला ॥
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जिस्म के ज़िन्दाँ में उमरें क़ैद कर पाया है कौन ।

जिस्म के ज़िन्दाँ में उमरें क़ैद कर पाया है कौन ।
दख़्ल क़ुदरत के करिश्मों में भला देता है कौन॥

चान्द पर आबाद हो इन्साँ उसे भी है पसन्द,
उसकी मरज़ी गर न हो ऊंचाइयाँ छूता है कौन ॥

सब नताइज हैं हमारे नेको-बद आमाल के,
किसके हिस्से में है इज़्ज़त दर-बदर रुस्वा है कौन्॥

अक़्ल ने अच्छे-बुरे की दी है इन्साँ को तमीज़,
अपने घर से दुश्मनी पर फिर भी आमादा है कौन॥

इस बशर में हैं दरिन्दों की हज़ारों ख़सलतें,
देखना ये है के इनसे कब निकल पाया है कौन॥
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रविवार, 19 जुलाई 2009

दोस्तों से राब्ता रखना बहोत मुश्किल हुआ।

दोस्तों से राब्ता रखना बहोत मुश्किल हुआ।
कुछ ख़ुशी, कुछ हौसला रखना बहोत मुश्किल हुआ॥

वक़्त का शैतान हावी हो चुका है इस तरह,
दिल के गोशे में ख़ुदा रखना बहोत मुश्किल हुआ॥

किस तरफ़ जायेंगे क्या क्या सूरतें होंगी कहाँ,
ज़ेह्न में ये फ़ैसला रखना बहोत मुश्किल हुआ॥

हो चुके हैं फ़िक्र के लब ख़ुश्क भी, मजरूह भी,
उन लबों पर अब दुआ रखना बहोत मुश्किल हुआ॥

मान लेना चाहिये सारी ख़ताएं हैं मेरी,
आज ख़ुद को बे-ख़ता रखना बहोत मुश्किल हुआ॥

कब कोई तूफ़ाँ उठे, कब हो तबाही गामज़न,
मौसमे-गुल को जिला रखना बहोत मुश्किल हुआ॥
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शनिवार, 18 जुलाई 2009

दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़ ।

दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़ ।
हो आयें चलिए मीर तक़ी मीर की तरफ़ ॥

कहता है दिल के एक झलक उसकी देख लूं ,
उठता है हर क़दम रहे-शमशीर की तरफ़ ॥

मैं चख चुका हुं ख़ाना-तबाही का ज़ायेक़ा ,
जाऊंगा अब न लज़्ज़ते-तामीर की तरफ़ ॥

इक ख़्वाब है के आँखों में आता है बार-बार,
इक ख़ौफ़ है के जात है ताबीरा की तरफ़ ॥

हालाते-शह्र मुझ से जिसे छीन ले गये,
माएल है अब भी दिल उसी जागीर की तरफ़॥

ज़िद थी मुझे के उस से करूंगा न इल्तेजा,
क्यों देखता मैं कातिबे-तक़दीर की तरफ़्॥
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शनिवार, 4 जुलाई 2009

जुनूँ-खेजी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है.

जुनूँ-खेजी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है.
के जिसके फैज़ से क़ौमों का सर ऊंचा भी होता है.

सफ़ीने की मदद को खुद हवाएं चल के आती हैं,
सहूलत के लिए ठहरा हुआ दरिया भी होता है.

मेरी राहों में लुत्फे - नकहते - बादे-बहारी है,
मेरे सर पर महो-खुर्शीद का साया भी होता है.

बजाहिर वो मेरी जानिब से बे-परवा सा लगता है,
मगर एहसास उसको मेरे ज़खमों का भी होता है.

ये मज़्लूमी की चादर मैं जतन से ओढे रहता हूँ,
के लग्जिश से मेरा महबूब कुछ रुसवा भी होता है.

उसी का है करम इस हाल में भी सुर्ख-रू हूँ मैं,
बरतने में वो अक्सर हौसला अफजा भी होता है.

नज़र के सामने रहता है वो कितने हिजाबों में,
मगर ख़्वाबों में जब आता है बे-पर्दा भी होता है.
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सोमवार, 29 जून 2009

ले जाता है ऐ दिल मुझे नाहक़ तू कहाँ और.

ले जाता है ऐ दिल मुझे नाहक़ तू कहाँ और.
गोकुल के सिवा कोई नहीं जाये-अमां और.

जमुना का ये तट और ये मुरली के तराने,
जी चाता है उम्र गुज़र जाये यहाँ और.

ये इश्क के इज़हार की आज़ादी कहाँ है
इस खित्ते को शायद हैं मिले अर्ज़ो-समाँ और.

हर सम्त कदम्बों के दरख्तों के हैं साये,
मुमकिन ही नहीं होती हो खुश्बूए-जिनाँ और.

सच्चाई के अल्फाज़ हैं दोनों के लबों पर
राधा का बयाँ और है कान्हा का बयाँ और.

इस दिल में अगर श्याम मकीं हो नहीं सकते,
हम फिर से बना लेंगे नया एक मकाँ और.
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रविवार, 28 जून 2009

आमिना के लाल का सौन्दर्य मन को भा गया.

आमिना के लाल का सौन्दर्य मन को भा गया.
रूप का लावन्य मानस के क्षितिज पर छा गया.

उसकी लीलाएं अनोखी थीं सभी को था पता,
उसकी छवियों पर निछावर सारा जग होता गया.

हम तिमिर में थे, उजालों में कुछ आकर्षण न था,
रोशनी का अर्थ आकर वो हमें समझा गया.

उसके आने की मिली जब सूचना कहते हैं लोग,
आग फ़ारस की बुझी सारा महल थर्रा गया.

शत्रुओं को उसने दो पल में चमत्कृत कर दिया,
चाँद के स्पष्ट दो टुकड़े हुए देखा गया.


गोरे काले सब बराबर हैं ये जब उसने कहा,
शोषकों के दंभ का प्रासाद ही भहरा गया.

उसकी वाणी से परिष्कृत हो गए मन के कलश,
उसकी शिक्षा का हरित-सागर हमें नहला गया.
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श्याम से गर जुड़ा नहीं होता.

श्याम से गर जुड़ा नहीं होता.
दिल किसी काम का नहीं होता.

तुमको ऊधव किसी से प्रेम नहीं,
वर्ना ये सिलसिला नहीं होता.

उस से आँखें अगर नहीं मिलतीं,
रात दिन जागना नहीं होता.

कैसे माखन चुरा लिया उसने,
ग्वालनों को पता नहीं होता.

वो नहीं तोड़ता कभी गागर,
जब भी पानी भरा नहीं होता.

छोड़कर वो अगर नहीं जाता,
जीना यूँ बे-मज़ा नहीं होता.

पैदा गोकुल में जब न होना था,
जन्म हम ने लिया नहीं होता.
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बांसुरी की तान में जीवन की व्याख्याएँ मिलीं.

बांसुरी की तान में जीवन की व्याख्याएँ मिलीं.
आके जमुना तट पे कुछ मीठी निकटताएँ मिलीं.

मेरे अंतर में तो बस गोकुल की छवियाँ थीं मुखर,
जब जहां झाँका मुझे कान्हा की लीलाएँ मिलीं.

राधिका बरसाने में जबतक थीं सब सामान्य था,
जब मिलीं घनश्याम से नूतन मधुरिमाएँ मिलीं.

पांडवों ने सार्थी को चुन लिया, विजयी हुए,
कौरवो ने सैन्य-दल चाहा, विफलताएँ मिलीं.

स्वार्थवश जो युद्ध में कूदे कलंकित हो गए
न्याय पर स्थिर रहे जो उनको गरिमाएँ मिलीं.

लोग कहते हैं हुआ शैलेश ज़ैदी का निधन,
उसके घर कुछ भी न था बस चन्द कविताएँ मिलीं.
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शनिवार, 27 जून 2009

दरिया की गुहर-खेज़ियाँ कब देती हैं आवाज़.

दरिया की गुहर-खेज़ियाँ कब देती हैं आवाज़.
आँखों में ये जब हों तो अजब देती हैं आवाज़.

है तश्ना-लबी चाहे-ज़नखदाँ के सबब से,
प्यासी हैं बहोत धड़कनें जब देती हैं आवाज़.

बज़्मे-लबो-रुखसार में जज़बात की कलियाँ,
बेसाख्ता खिलने के सबब देती हैं आवाज़.

किसके थे मकाँ, इनमें लगाई गयी क्यों आग,
मजबूरियाँ हैं मुह्र-बलब, देती हैं आवाज़.

कुरते के बटन टूटे हैं टांकेगा उन्हें कौन,
तनहाइयां क्यों यादों को अब देती हैं आवाज़.

खलियानों में है ढेर अनाजों का तो क्या है,
कुछ झोंपडियाँ गौर-तलब देती हैं आवाज़.
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गुहर-खेज़ियाँ = मोतियों से भरा होना, तश्ना-लबी = प्यास, चाहे-ज़नखदाँ = ठोढी के कुंएं, बे-साख्ता = सहज रूप से, मुह्र-बलब = मौन,

उल्झे क्या तुझ से महज़ थोडी सी तकरार में हम.

उलझे क्या तुझ से महज़ थोडी सी तकरार में हम.
अजनबी बन के फिरे कूचओ-बाज़ार में हम.

आहनी तौक़ पिन्हाया गया गर्दन में हमें,
और रक्खे गए जिन्दाने-शररबार में हम.

हम थे फनकार ये हमने कभी दावा न किया,
होके महदूद रहे अपने ही घर बार में हम.

आबलापाई के अंदेशों से गाफ़िल न हुए,
शौक़ से बढ़ते रहे वादिये-पुरखार में हम.

भारी पत्थर के तले दब के भी टूटे न कभी,
और घबराए न घिर कर कभी मंजधार में हम.

चीख की तर्ह बियाबानों में गूंजे हर सिम्त,
मुस्कुराते नज़र आये दिले-ग़म-ख्वार में हम.
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शुक्रवार, 26 जून 2009

सच्चाइयां ज़रा भी बयानात में न थीं.

सच्चाइयां ज़रा भी बयानात में न थीं.
फिर भी वो सामईन के शुबहात में न थीं.

पाबंदियां शरीअते-इस्लाम की कहीं,
हिन्दोस्ताँ-मिज़ाज रुसूमात में न थीं.

गौतम के बुत तराश रहा था मैं ख्वाब में,
किरनें मताए-कुफ्र की जज़बात में न थीं.

मैं जितनी देर तुझसे रहा महवे-गुफ्तगू,
तेरे सितम की चोटें खयालात में न थीं.

उन बस्तियों में सिर्फ अँधेरे थे मौजज़न,
कुछ जिंदा आहटें भी मकानात में न थीं.

उस से तअल्लुकात थे हमवार बे-पनाह,
जो तलखियाँ हैं आज, शुरूआत में न थीं.

आखिर मुसीबतों को है क्या मुझसे दुश्मनी,
पहले तो इस तरह ये मेरी घात में न थीं.

मंजधार में भी दिल का सफ़ीना नहीं रुका,
मजबूरियाँ कभी मेरे हालत में न थीं.
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बयानात = वक्तव्यों, सामईन = श्रोताओं, शुबहात = संदेहों, पाबंदियां = प्रतिबन्ध, शरीअते-इस्लाम = इस्लामी धर्म-संहिता, हिन्दोस्ताँ-मिज़ाज = भारतीय स्वभाव वाले, रुसूमात = रीति-रिवाजों, मताए-कुफ्र = काफिर होने की दौलत, महवे-गुफ्तगू= बातचीत में व्यस्त, थे मौजज़न = लहरें मार रहे थे, सफ़ीना = कश्ती.

अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.

अलगनी पर टांग कर कपडे खड़ी थी दोपहर.
आग तन-मन में लगी थी भुन रही थी दोपहर.

हो चुकी है अब ये धरती और सूरज के करीब,
बस इसी चिंता में पागल सी हुयी थी दोपहर.

बर्फ ही पिघले हिमालय से तो कुछ संतोष हो,
होके बेकल मन-ही-मन में सोचती थी दोपहर.

आ गयी नीचे बहोत नदियों के पानी की सतह,
प्यास से बेचैन कर्मों की जली थी दोपहर.

लेप चन्दन का कहीं से आके कर जाती हवा,
हर दिशा में याचना करती फिरी थी दोपहर.
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गुरुवार, 25 जून 2009

सुलाने के लिए तारों भरी रातें नहीं आतीं.

सुलाने के लिए तारों भरी रातें नहीं आतीं.
मुझे वातानुकूलित कक्ष में नींदें नहीं आतीं.

न जाने कब से सूखे हैं हमारे गाँव के पोखर,
नहाने अब वहां चांदी की पाज़ेबें नहीं आतीं.

कोई पौधा कभी बरगद की छाया में नहीं पनपा,
कि उस को धूप देने सूर्य की किरनें नहीं आतीं.

मैं यादों के सहारे धुंधले खाके तो बनाता हूँ,
उभर कर फिर भी वो बचपन की तस्वीरें नहीं आतीं.

हमारी चाहतों में ही कहीं कोई कमी होगी,
किसी निष्कर्ष पर चिंतन की बुनियादें नहीं आतीं.

ये संबंधों की दुनिया ठोस भी है देर-पा भी है,
मगर जब दोनों पक्षों से कभी शर्तें नहीं आतीं.
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भँवरे, तितली, मधुमक्खी सब अपनी धुन में मस्त रहे.

भँवरे, तितली, मधुमक्खी सब अपनी धुन में मस्त रहे.
हम उद्देश्य रहित थे, भटके एकाकी, संत्रस्त रहे.

पुरवाई की शीतलता से रहे अपरिचित सारी उम्र,
लू के तेज़ थपेडों में श्रम करने के अभ्यस्त रहे.

बादल में पानी थे, खेतों में फसलों की आशा थे,
फूलों की अंगड़ाई में खुशबू बनकर पेवस्त रहे.

सीता जी के आंसू पोंछे तो मन को संतोष मिला,
माँ के आशीषों में पंडित ब्रज नारायन चकबस्त रहे.

रमते जोगी थे, गृहस्थ जीवन की माया से थे मुक्त,
अलख जगाया, प्रेम रसायन पीकर मस्त-अलस्त रहे.

पत्थर का टुकडा थे फिर भी आँखें मूँद नहीं पाए,
हमें हटाने की इच्छा से आये जो भी ध्वस्त रहे.
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बुधवार, 24 जून 2009

ज़ुल्मात का तिलिस्म जहां में कहाँ नहीं.

ज़ुल्मात का तिलिस्म जहां में कहाँ नहीं.
दश्ते-तहय्युरात में तारीकियाँ नहीं.

मैं खुद से हमकलाम रहूँ कितनी देर तक,
महफ़िल में कोई शख्स मेरा हमज़ुबां नहीं.

महदूद होके रह गया मैं अपनी ज़ात में,
क्या शिकवा ज़िन्दगी का अगर जाविदाँ नहीं.

समझाऊं कैसे सोज़िशे-दिल की मैं कैफ़ियत,
ये आग इस तरह की है जिसमें धुआँ नहीं.

बेहतर तअल्लुक़ात हुए हैं कुछ इन दिनों,
पहले की तर्ह मुझ पे वो ना-मेहरबां नहीं.

माना के खस्ताहाली में गुज़री है ज़िन्दगी,
लेकिन कभी किसी पे था बारे-गरां नहीं.

उफ़ क्या तपिश है धूप में शिद्दत बला की है,
ज़िन्दा हैं, गो सरों पे कोई सायबाँ नहीं.
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सोमवार, 22 जून 2009

इज़हारे-हक़ का रखता हो जो इन्तेहा का शौक़.

इज़हारे-हक़ का रखता हो जो इन्तेहा का शौक़.
दारो-रसन का हो न उसे क्यों बला का शौक़.

देखे कभी कोई मेरी ज़ंजीर-पा का शौक़.
इन्सां की बेहतरी के लिए है दुआ का शौक़.

खुद भूके रहके बच्चों को सब कुछ खिला दिया,
कुर्बानियों में पलता रहा मामता का शौक़.

कर लेते हैं वो मौत से पहले कुबूल मौत,
जिनके दिलों में होता है उसकी रिज़ा का शौक़.

ज़िक्रे-ख़फी से रूह की दुनिया बदल गयी,
रुखसत हुआ मिज़ाज से हिर्सो-हवा का शौक़.

नैजे की नोक पर भी रहा सर-बलंद मैं,
खंजर तले भी दब न सका कर्बला का शौक़.

दो-जिस्म खुशबुओं को मिलाकर है खुश बहोत,
हैरत से देखता हूँ मैं बादे-सबा का शौक़.
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इज़हारे-हक़ = सत्य की अभिव्यक्ति, इन्तेहा = चरम सीमा तक, दारो-रसन = हथकडी-बेडी और सूली, बला = अत्यधिक, ज़ंजीरे-पा = पाँव की ज़ंजीर, रिज़ा = स्वीकृति, ज़िक्रे-खफ़ी = मौन-साधना, हिर्सो-हवा = लोभ लालच, प्रातः की पुरवा हवा.

अब किसे बनवास दोगे [ राम काव्य : पुष्प / 4 ]

पुष्प - 4 : चिन्तन के अन्तरिक्ष

[एक ]
लोग कहते हैं कि विधाता चुनता है
अपनी इच्छानुरूप आदमी को
और लाद देता है उस पर
दुःख- सुख की गठरी,
जिसे चुपचाप ढोने की प्रक्रिया
बन जाती है आदमी की नियति.
और इस नियति पर
नहीं होता आदमी का कोई नियन्त्रण
लोग क्यों नहीं सोचते
कि आदमी के हर निर्णय के साथ
जुड़ा है एक इतिहास
और यह इतिहास करता है रेखांकित
आदमी का आदमी से जुड़ना,
जुड़कर अलग होना,
अलग होकर जुड़े रहना.
इतिहास का यह रेखांकन
बताता है बैर और मैत्री के सन्दर्भ,
सन्दर्भों में निहित मूल्य,
मूल्यों के निर्माण में सक्रिय भूमिकाएँ.
इतिहास कभी थोपता नहीं आदमी पर
होनी अनहोनी घटनाएँ.
बल्कि छोड़ देता है उसे स्वतन्त्र
कुछ चुनने और न चुनने के बीच.
आदमी की यही स्वतन्त्रता
बनाती है उसकी पहचान
और यह पहचान ही करती है रूपायित
आदमी की नियति का ढाँचा.

लक्ष्मण के माथे पर खिंची रेखाएँ,
बनाना चाहती थीं
इतिहास का कुछ और नक्शा.
टूट रहे थे उस नक्शे में
पिता और पुत्र के सम्बन्ध,
टूट रही थीं पुरानी मान्यताएँ ,
आ रही थी विद्रोह की गन्ध.
पर वह, जिसे कहते हैं लोग
मर्यादा पुरूषोत्तम,
जिसे मानता हूँ मैं
तमाम संस्कृतियों का उद्गम,
जिसे पाया है मैंने
स्वार्थमुक्त , सुन्दर और अनुपम.
वह भी बना रहा था एक नक्शा.
और यह नक्शा
बहुत अलग था लक्ष्मण के नक्शे से.
इसमें राजगद्दी की जगह था एक वन- खण्ड ,
विद्रोह की जगह था प्रेम और भाई चारा .
यह नक्शा आम आदमी के लिए था एक सहारा
लक्ष्मण ने ध्यान से देखा था इस नक्शे को
इसकी एक- एक लकीर को
ढीली पड़ गयीं लक्ष्मण के माथे की तनी रेखाएँ
ढीली पड़ गयीं भिंची हुई मुट्ठियाँ
और मुट्ठियों में बन्द भावी योजनाएँ

कुछ चुनने और न चुनने के बीच खड़े लक्ष्मण
खोजने लगे अपनी पहचान
राम के नक्शे के भीतर
महल के एक तारीक झरोखे में खड़ी उर्मिला
देख रही थी लक्ष्मण की आँखों में
इतिहास का बदलाव
बन्धुत्त्व के स्नेहानुबन्ध का गहराता सागर
और उस सागर का बहाव
फैल गयी थीं उसकी आँखों के सामने
ढेर सारी तस्वीर

[दो ]
लोग कहते हैं कि अपने सतीत्व के सबूत में
सीता को देनी पड़ी थी अग्नि परीक्षा
और यह परीक्षा ही उतार पायी थी
राम की तनी हुई भौंहों की प्रत्यंचा
लोग शायद नहीं जानते अग्नि परीक्षा का अर्थ
लोग शायद नहीं जानते
आग में तपकर कुन्दन हो जाने की कला
दहक रही थी लंका में राम के विरुद्ध
शत्रुता की जो आग
सीता तपी थीं उस आग के भीतर
और नहीं आ सकी थी
उनके व्यक्तित्व पर कोई आँच
सीता ने बता दिया था
कि आदमी के लिए जरूरी है
आग के बीच से होकर गुजरना
और इस गुजरने में
व्यक्तित्व की गरिमा को बरकरार रखना

फिर वह, जिसे गुजरना पड़ा हो
चौदह वर्षों की विरहाग्नि के बीच से होकर
और जो निकल आया हो
इस आग के भीतर से बेदाग
लोगों को चाहिए कि उससे पूछें
क्या होती है जीवन की अग्निपरीक्षा
क्या होता है अग्नि परीक्षा से गुजरना
और इस गुजरने के बीच
व्यक्तित्व की गरिमा को बरकरार रखना

राम और लक्ष्मण का
मात्र एक निर्णय
छोड़ गया उर्मिला के पास
तपस्या के लिए एक दहकता वन -प्रान्तर
और कंचन जैसा उर्मिला का व्यक्तित्व
सहज ही तब्दील हो गया कुन्दन में
एक लम्बी अग्नि परीक्षा में तप कर

[तीन ]

मैं देख रहा हूँ राजभवन की सियाह दीवारें
दीवारों से चिपके दशरथ की मृत्यु के भयावह चित्र
चित्रों की हथेली पर उगा हुआ एक जंगल
जंगल में दौड़ते भूखे पशु.
मैं देख रहा हूँ घने पेड़ों के बीच से झाँकती
नियति की लाल -लाल आँखें
आँखों में जमा हुआ रक्त
रक्त से फूटती मृत्यु की दुर्गन्ध
मैं देख रहा हूँ उर्मिला के मर्म की पर्तों में जलता
सम्पूर्ण राजभवन
भवन में फैलती आग की लपटें
लपटों के बीच चिटखता
दशरथ का पार्थीव शरीर
चल रहे हैं जिस पर
वरदानों के अग्नि-बाण
राजभवन के भीतर और बाहर
रह गई शेष केवल राख.
कीर्ति के वैभव का इतिहास
राजभवन से दूर
जी रहा है अरण्य-संस्कृति .

मैं देख रहा हूँ
कि सूने सपाट मैदान में बैठी उर्मिला
अंगुलियों से कुरेद रही है जलती हुई राख
धरती की आह बन गयी है एक शब्द
‘राख के ढेर में षोला है न चिंनगारी है '
किन्तु उर्मिला के भावी जीवन की राख
अभी सर्द नहीं हो पायी है
वह जानती है
धरती के संवेदनषील वक्ष में भर देना
अपने चिंतन की हरारत,
अपनी ओजस्विता का ताप.
क्योंकि उसमें अभी शोला भी है
और चिंगारी भी
क्योंकि उसकी माँग का सिन्दूर
राम और सीता का अंगरक्षक बनकर
जी रहा है एक गौरवपूर्ण जिन्दगी .

[चार ]
मैके में संजोई गई आनन्द की स्थितियाँ
ससुराल की त्रासदी में
मेंहदी की तरह पिस कर
हो रही हैं आतुर
विकीर्ण करने को एक नयी लालिमा
दायित्व के तेज और संकल्प की गरिमा ने
तोड़ दी हैं सुषुप्तावस्था की चौहद्दियाँ
उभर आया है नारी का समूचा व्यक्तित्व.
सखियों के मध्य घिरी उर्मिला
कौशल्या और सुमित्रा का ममत्व
और माण्डवी का स्नेह पाकर
लक्ष्मण प्रवास के दुखद घेरे से
निकल आई है बाहर .
राजभवन से जंगल की ओर जाने वाला मार्ग
करने लगा है व्याख्यायित
कर्म योग का एक-एक पहलू
फैल रही है आहिस्ता-आहिस्ता
गुलाबों की खुषबू .

[पाँच ]
आकाश सिमठ कर आ गया है
उर्मिला की मुठ्ठी में ,
खुल गए हैं चेतना के सारे गवाक्ष.
गुनगुनाता है चिन्तन के अन्तरिक्ष में
एक पक्षी .
गोद को हरी-भरी देखना कौन नहीं चाहता
कौन नहीं चाहता बनाना
वात्सल्य की एक तस्वीर
शिशु के लिए बनाती है जब कोई गोद
छोटा सा एक दायरा
तो सामने आ जाता है ममत्व का खाका
और जब यह दायरा
हो जाता है कुछ बड़ा
और समेट लेता है अपने भीतर सम्पूर्ण धरती
तो गहरी हो जाती है विश्वबंधुत्व की रेखाएँ
आदमी को दायरों में बाँटकर देखना
कर देता है धरती को बहुत छोटा
और धरती जब हो जाती है
आदमी के लिए बहुत छोटी
तो पड़ जाती है आदमी और आदमी के बीच दरारें.

दूसरों का दुख होता है
अपने दुख से कहीं अधिक गहरा
पर उस गहराई को आँकने के लिए
जरूरी है आदमी में वह संवेदनशीलता
जो उठाती है आदमी और धरती को बहुत ऊँचा
और धरती और आदमी के संयोग से
जिन्दगी को मिल जाती है एक परिभाषा. '

[छः ]
मैं देखता हूँ चेतना के गवाक्षों में
उर्मिला के चिन्तन का समूचा अन्तरिक्ष
सुनता हूँ अन्तरिक्ष में बजती
जलतरंग की धुनें,
धुनों में हो जाता हूँ गिरफतार
पहन लेता हूँ आवाजों की हथकड़ियाँ
राजवधू बनकर जीवन काट लेना
कहीं अधिक सरल है
जन हिताय जीने से
विष उंडेल देने से बनती नहीं आदमी की पहचान
आदमी की पहचान बनती है विष पीने से.
देश के नक्शे की लकीरें
बांधती हैं सीमाओं में आदमी को
और देश की धरती सिखाती है आज़ादी
आदमी देता है नक्शे की लकीरों को रूप और आकार
आदमी को रूप और आकार देती है धरती.

मैं देखता हूँ उर्मिला को पूरी तरह आश्वस्त
विरह की धधकती ज्वालाएं
नहीं कर पातीं उसे पीड़ित और संत्रस्त.
आदमी जानता है जब धरती के यथार्थ से आँखें मिलाना
तो सिमट जाता है उसकी चेतना में समूचा युग
उर्मिला ने देखा है अपने समूचे युग को
अपनी चेतना के गवाक्षों के भीतर
उसने पहचाना है
धरती के यथार्थ का एक-एक अक्षर.
[ सात ]
दलितों की बस्ती में
नाचती हैं जहाँ सूर्य की किरणें
थिरकती हैं जीवन की रश्मियाँ
कमसिन, जवान और नंगे अंधेरे जहाँ
हँसते हैं प्रकाशयुक्त सहज हँसी
देखता हूँ मैं
कि तैरती है वहाँ की हवा में उर्मिला
सुगंध पुंज बनकर
देखता हूँ मैं कि एक हरी क्रांति
फूटती है धरती से
भर जाती है झोंपडियों के भीतर.
राजभवन आ गया है झुक कर
कच्चे मकानों और फूस के घरों के बराबर.
शबरी के साथ राम करते हैं भोजन.
उर्मिला के माध्यम से अयोध्या में
झुक गया है नीआम्बर,
धरती के चरणों पर.
खोजती हैं सूर्य की किरणें
अपनी उम्र का एक हिस्सा
उर्मिला की सांसों में,
धुंध रहित शामों में,
धुली हुई सुब्हों में,
चमकीली दुपहरियों में.
इतिहास दब गया है वर्त्तमान के नीचे
और हावी हो गई है
देश के मानसून पर कविता
और यह कविता रुदन नहीं है
साधना है
जो खोलती है चिंतन के अन्तरिक्ष.
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रविवार, 21 जून 2009

इबारतों में तसलसुल कहीं नहीं होता.

इबारतों में तसलसुल कहीं नहीं होता.
शऊरो-फ़िक्र को खुद पर यकीं नहीं होता.

असर-पज़ीर न होगा वो ज़लज़ले की तरह,
जो इन्क़लाब के ज़ेरे-ज़मीं नहीं होता.

हमारी वज्ह से तख्लीक़े-कायनात हुई,
न होते हम तो कोई ज़ेबो-जीं नहीं होता.

अजब तमाशा है, कहते हैं ला-मकाँ उसको,
वो कौन दिल है जहां वो मकीं नहीं होता.

रुमूज़े-इश्क़ को महफूज़ रखना लाज़िम है,
जमाले-हुस्न वगरना क़रीं नहीं होता.

वही तो है जो नज़र में समाया रहता है,
सिवाय उसके कोई दिल-नशीं नहीं होता.

तरक़्क़ियाँ न कभी आयीं उसके हिस्से में,
सियासतों में जो बारीक-बीं नहीं होता.

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इबारत = अनुलेख, तसलसुल =तारतम्य, शुऊरो-फ़िक्र = विवेक एवं विचार, असर-पज़ीर = प्रभावित, ज़लज़ला = भूकंप, ज़ेरे-ज़मीं = भूमिगत, तख्लीक़े-कायनात = संसार की सृष्टि, ज़ेबो-जीं = सज्जा, लामकां = वह जो आवास से मुक्त हो, मकीं = आवासित, रुमूज़े-इश्क़ = प्रेम के रहस्य, महफूज़ = सुरक्षित, लाज़िम = अनिवार्य, जमाले-हुस्न = रूप-सौन्दर्य, वगरना = अन्यथा, क़रीं = निकट, दिलनशीं = हृदयस्थ, बारीक-बीं = सूक्ष्म-दर्शी.

शुक्रवार, 19 जून 2009

ग़मों से होगा हमारे वो बाख़बर तय है.

ग़मों से होगा हमारे वो बाख़बर तय है.
कभी तो आँख हुई होगी उसकी तर तय है.

बदी को नेकियों से उन्सियत नहीं होती,
जहां में वज्हे-तसादुम हैं खैरो-शर तय है.

कोई अभी कोई ताखीर से करेगा सफ़र,
मगर हरेक के हिस्से में ये सफ़र तय है.

किसी भी शख्स को कमज़ोर क्यों समझते हो,
कहीं है ज़र तो होगा कहीं ज़बर तय है.

वो इल्म क्या के नहीं ज़ौ-फिशानियाँ जिस में,
गुहर की आब पे ही क़ीमते-गुहर तय है.

ये वि शजर है जो मम्नूअ है बशर के लिए,
टिकेगी आके यहीं नीयते-बशर तय है.

वो गुमशुदा भी नहीं और गुमशुदा भी है,
मिज़ाज उसका है दुनिया से बाला-तर तय है.

जो नक़्दे-शेर की लज्ज़त से आशना ही न हो,
अदीब कैसा भी हो है वो कम-नज़र तय है.

मराक़बे में किये जो मकाल्मे हम ने,
शऊरे-नफ़्स में हैं नक्शे-मोतबर तय है.
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बदी = बुराई, उन्सियत = लगाव, वज्हे-तसादुम = टकराव का कारण, ताखीर = विलंब, ज़ौ-फिशानियाँ = दीप्ति / चमक-दमक, गुहर = मोती, आब = कान्ति, मम्नूअ = निषिद्ध, गुम-शुदा = खोया हुआ, बालातर = बहुत ऊंचा, नक़्दे-शेर = शेर की परख, कम-नज़र =सकीर्ण दृष्टि वाला, मराक़बे में = समाधिस्थ स्थिति में, मकाल्मे = सवाद, शऊरे-नफ़्स =आत्मा की जाग्रतावस्था, नक्शे-मोतबर = विश्वसनीय चिह्न.

हर रास्ता जो हक़ का है दुश्वार-तलब है.

हर रास्ता जो हक़ का है दुश्वार-तलब है.
आज़ादिए-अफ़कार सरे-दार तलब है.

क़ीमत में अगर सर भी वो मांगे तो नहीं ग़म,
वो साग़रे-उल्फ़त मुझे सौ बार तलब है.

जो तेरी रिज़ा के लिए घर-बार लुटा दे,
ऐसा ही मेरे रब मुझे किरदार तलब है.

देखो के वो करता है तहे-तेग़ भी सज्दा,
जानो के उसे नफ़्स का ईसार तलब है.

फ़ैयाज़िये-खालिक़ पे फ़रिश्ते भी हैं शशदर,
एज़ाज़ को मुझ जैसा ख़तावार तलब है.

इदराक के करता हो चरागों को जो रौशन,
आँखों को वही मंज़रे-खूँबार तलब है.
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हक़ = सत्य, दुश्वार-तलब = कठिनाईयों से पूर्ण, आज़दिये-अफ़कार = विचारों की स्वतंत्रता, सरे दार = सूली के ऊपर, तलब = अपेक्षित, साग़रे-उल्फ़त = प्रेम का प्याला, रिज़ा = स्वीकृति / पसंदीदगी, किरदार = चरित्र, तहे-तेग = तलवार के नीचे, ईसार = दूसरों के हित के लिए किया गया त्याग, फ़ैयाज़िये-खालिक = परमात्मा की कृपाशीलता, शशदर = आर्श्चय-चकित, एज़ाज़ = सम्मान, इदराक = बौद्धिकता, मंज़रे-खूँबार = रक्त बरसाता दृश्य,

बुधवार, 17 जून 2009

ज़रूरीयात हैं महदूद, ख्वाहिशें हैं बहोत.

ज़रूरीयात हैं महदूद, ख्वाहिशें हैं बहोत.
दिलो-दिमाग की आपस में क्यों ज़िदें हैं बहोत.

ये घाटियाँ जो हैं बर्फ़ीली वादियों से घिरी,
बदलते मौसमों की इन में आहटें हैं बहोत.

हमारे कारवां जिन रास्तों से गुज़रेंगे,
लुटेरे सुनते हैं उन रहगुज़ारों में हैं बहोत.

ये रिश्तेदारियां कैसी हैं खानदानों की,
के खून एक है फिर भी अदावतें हैं बहोत.

पड़ोसियों में बजाहिर तो बात होती है,
मगर है लोगों का कहना के चाश्मकें हैं बहोत.

न सिर्फ़ मस्लकों में लोग हो गए तक़सीम,
छुपी दिलों में सभी के कुदूरतें हैं बहोत.

चुनी है अपने लिए हक़ की राह तुमने अगर,
रहे ख़याल यहाँ आज़्माइशें हैं बहोत.
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ज़रूरीयात = आवश्यकताएं, महदूद = सीमित, रहगुज़ारों = रास्तों, अदावतें = शत्रुताएं, मस्लकों = सम्प्रदायों, तकसीम = विभाजित, कुदूरतें = मलिनताएँ, आज़माइशें = परीक्षाएं.

मंगलवार, 16 जून 2009

दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.

दिलों में ज़ख्म था, लब मुस्कुराते रहते थे.
हम अपना घर इसी सूरत सजाते रहते थे.

हरेक गाम पे ये ज़िन्दगी थी ज़ेरो-ज़बर,
तगैयुरात हमें आज़माते रहते थे.

वो चाहते थे भरम हो किसी की आहट का,
हवा के झोंके थे, परदे हिलाते रहते थे.

तअल्लुकात न थे, रस्मो-राह फिर भी थी,
तसव्वुरात में हम आते-जाते रहते थे.

ये बात सच है के हम खस्ता-हाल थे, लेकिन,
गिरे-पड़ों को हमेशा उठाते रहते थे.

न देख पाये कभी भी किसी की तश्ना-लबी,
मयस्सर आब था जितना पिलाते रहते थे.

ये जानते हुए इम्काने-रौशनी कम है,
हवा की ज़द में भी शमएँ जलाते रहते थे.
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सब कुछ रवां-दवाँ है बज़ाहिर सुकून है।

सब कुछ रवां-दवाँ है बज़ाहिर सुकून है।

बस ज़िन्दगी गराँ है बज़ाहिर सुकून है.

काग़ज़ की कश्तियों में हैं साँसों के क़ाफ़्ले,

दरिया हरीफ़े-जाँ है बज़ाहिर सुकून है.

चस्पाँ दिलों के दर पे है दहशत का इश्तेहार,

हर शख्स बे-ज़ुबाँ है बज़ाहिर सुकून है.

ज़ेरे-लिबासे-तक़वा सियः-कारियाँ हैं आम,

ईमान खूँ-चकाँ है बज़ाहिर सुकून है.

अंदेशए - शरारते - बे-जा फ़िज़ा में है,

मंज़र शरर - फ़िशां है बज़ाहिर सुकून है।

************************

रवां-दवाँ = गतिशील, गराँ = महँगी, हरीफ़े-जाँ = जान का दुश्मन, चस्पाँ =चिपका हुआ, इश्तेहार =विज्ञापन, ज़ेरे-लिबासे-तक़वा =सात्विकता के वस्त्रों के नीचे, सियः कारियाँ = काले धंधे, खूँ-चकाँ = खून से भरा हुआ, अंदेशए-शरारते-बेजा = बेतुके उपद्रव की आशंका, शरर-फ़िशां = चिंगारियों से भरा हुआ।

सोमवार, 15 जून 2009

अबतक साथ निभाया है तो चन्द दिनों की ज़हमत और.
मंज़िल साफ़ नज़र आती है, थोडी सी बस हिम्मत और.

साग़रो-सहबा की सरगोशी से बिल्कुल बे-पर्वा थे,
ख्वाब सजा लेते थे बैठे-बैठे थी वो ताक़त और.

पेड़ों का झुरमुट था, झील का नीला-नीला पानी था,
आँखों की कश्ती में सैर सपाटों की थी लज्ज़त और.

कितने ही औसाफे-हमीदा देख रहे थे हम में लोग,
किसको पता था फूल खिलाएगी तदबीरे-मशीयत और.

अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
इस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.

कासए-सर में भर के शराबे-इश्क़ पियो तो बात बने,
मुह्र-बलब रह जाए शरीअत, देख के रंगे तरीक़त और.
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साग़रो-सहबा =प्याला और मदिरा, सरगोशी = कानाफूसी, औसाफे-हमीदा = सत्व-गुण, तदबीरे-मशीयत = दैव-शक्ति के प्रबंध, ज़ात = व्यक्तित्व, वुजूद = अस्तित्व, कास'ए सर = सर का प्याला, मुह्र-बलब = मौन, शरीअत =इस्लामी धर्म-संहिता, तरीक़त = ब्रह्म-ज्ञान,

सभी आबद्ध उत्तर-आधुनिक अनुशासनों से हैं.

सभी आबद्ध उत्तर-आधुनिक अनुशासनों से हैं.
ये सच्चाई है सब की सोच के आयाम बदले हैं.

चढाते थे कभी श्रद्धा से गंगाजल जो सूरज को,
उन्हीं हाथों ने उसकी ऊर्जा के मार्ग खोजे हैं.

स्वयं मैं अक्षरों को पढ़ना चाहूँ पढ़ नहीं सकता,
मेरी जीवन कथा के पृष्ठ सब पानी में डूबे हैं.

कलाओं में कोई लालित्य कैसे ढूंढ पायेगा,
फलक की भंगिमाओं के सभी तेवर अनोखे हैं.

अहिंसा शब्द सुनने में बहोत अच्छा सा लगता है,
मगर व्यवहार में हिंसा के हर सू बोलबाले हैं.

ये शैक्षिक योग्यताएं सांसदों को कब अपेक्षित हैं,
वो शिक्ष और है जिस से चुनावों में वो जीते हैं.

*****************

रविवार, 14 जून 2009

अभिशप्त अकिंचन अमर ज्योति : डायरी के पन्ने 6



रात के साढे ग्यारह बज रहे थे और आँखों में हलकी-हलकी सी नींद झांकने लगी थी. मेज़ से एक ग़ज़ल-संग्रह उठाकर बिस्तर पर लेट गया. कुछ पन्ने उल्टे थे कि एक शेर पर दृष्टि अटक गयी - कोई पूछे मेरा परिचय तो यही कह देना / एक अभिशप्त अकिंचन के सिवा कुछ भी नहीं. शायार का अकिंचन और अभिशप्त होना और फिर भी अश'आर से अंतस में सहज ही प्रवेश कर जाने वाली एक दूधिया अमर ज्योति के एहसास से गुज़रना आर्श्चय जनक था. अकिंचन होना अभिशप्त होना है या अभिशप्त होने में अकिंचन होने का आभास है ! कुछ भी हो, परिस्थितियाँ यदि किसी को अभिशप्त और अकिंचन बना दें तो उसके अंतर-चक्षु स्वतः ही खुल जाते हैं, अपनी पूरी ज्योति के साथ. और इस ज्योति में अमरत्व के स्वरों की धड़कनें पढ़ी जा सकती हैं.
शायर सदियों और लम्हों को माद्दीयत के फ़ीते से नहीं नापता. विध्वंस और रचनात्मकता से क्रमशः इनमें संकुचन और विस्तार आ जाता है. यह प्रक्रिया खुली आँखों से देखने से कहीं अधिक एहसास के राडार पर महसूस की जा सकती है. बात सामान्य सी है किन्तु उसका प्रभाव सामान्य नहीं है - सदियाँ उजाड़ने में तो दो पल नहीं लगे / लम्हे संवारने में ज़माना गुज़र गया. यह विध्वंसात्मक प्रक्रिया जो सदयों को पल-दो-पल में उजाड़ कर रख देती है मंदिरों और मस्जिदों में शरण लेती है और सूली तथा कारावास के रास्ते खोल देती है.रोचक बात ये है कि अपने इस कृतित्व को यह खिरदमंदी का नाम देती है. बात भी ठीक है -जुनूँ का नाम खिरद पड़ गया खिरद का जुनूँ / जो चाहे आपका हुस्ने-करिश्मा-साज़ करे. यहाँ भी शायर की यही समस्या है - इधर मंदिर उधर मस्जिद, इधर ज़िन्दाँ उधर सूली / खिरद-मंदों की बस्ती में जुनूँ वाले किधर जाएँ. इन परिस्थितियों में अहले-जुनूँ की धार्मिक आस्थाएं यदि एक प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ी हो जाएँ तो आर्श्चय क्या है - यूँ तो इस देश में भगवान बहोत हैं साहब / फिर भी सब लोग परीशान बहोत हैं साहब. परिस्थितियों का अंतर-मंथन करना एक जोखिम भरा कार्य है. किन्तु यह अकिंचन और अभिशप्त शायर, जिसकी आँखों में कल का सपना है, खतरों से कतराता नहीं, उनका सामना करता है. और एक सीधा सवाल दाग़ देता है - चीमटा, छापा-तिलक, तिरशूल, गांजे की चिलम / रहनुमा अब मुल्क के इस भेस में आयेंगे क्या ? या फिर - थी खबर नोकीले करवाए हैं सब हिरनों ने सींग / भेड़िया मंदिर में जा पहोंचा, भजन गाने लगा.
ग़ज़ल की शायरी बहुत आसान नहीं है.मिसरे बराबर कर लेना ही ग़ज़ल के शिल्प की परिधियों को समझने के लिए पर्याप्त नहीं. ग़ज़ल का फलक माशूक से बात-चीत की इब्तिदाई सरहदें बहुत पहले पार कर चुका है. आज उसका वैचारिक फलक उन सभी संस्कारों को अपने भीतर समेटे हुए है जो इस उत्तर आधुनिक युग की मांग को पूरा करते हैं. किन्तु ग़ज़ल का धीमे स्वरों में बजने वाला साज़ अपने प्रभाव में बादलों का गर्जन और दामिनी की चमक समेट लेने में पूरी तरह सक्षम है. हाँ शब्दों का मामूली सा कर्कश लहजा इसके शरीर पर ही नहीं इसकी आत्मा पर भी खरोचें बना देता है. मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि है आँखों में कल का सपना है का रचनाकार इस तथ्य से परिचित भी है और इसके प्रति जागरूक भी.
अभी कल यानी चौदह जून की बात है, दिन के ग्यारह बजे थे मैं अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ने के लिए निकलने वाला था. अचानक मोबाइल की घंटी बजी. हेलो, मैं अमर ज्योति बोल रहा हूँ. मुझे शैलेश जी से बात करनी है.
जी मैं शैलेश हूँ.
फिर मेरे और अपने ब्लॉग के सन्दर्भ. अलीगढ़ में ही आवास होने की चर्चा. किसी समय घर आने की पहल. ग़ज़ल संग्रह के छपने की सूचना.
शाम के साढे पांच बजे थे. दरवाज़े पर बेल हुयी. पहले एक भद्र महिला का कोमल स्वर -क्या 55 नंबर का मकान यही है ? जी हाँ. क्या प्रोफेसर शैलेश जैदी ... जी मैं ही हूँ, अन्दर तशरीफ़ लायें. और फिर साथ में एक सज्जन का सहारे से आगे बढ़ना. आदाब मैं अमर ज्योति हूँ.
इस तरह मेरी पहली और अभी तक की आख़िरी मुलाक़ात डॉ. अमर ज्योति नदीम और उनकी पत्नी से हुयी. आँखों में कल का सपना है, ग़ज़ल संग्रह जिसका विमोचन होना अभी शेष है, साथ लाये थे. सब कुछ बहोत अच्छा लगा. ढेर सारी बातें हुयीं. माहौल कुछ गज़लमय सा हो गया, और फिर खुदा हाफिज़ की औपचारिकता.
अभीतक मैंने जितने भी हिंदी के ग़ज़ल-संग्रह पढ़े हैं, दो-एक अपवादों को छोड़ दिया जाय, तो शायद ही कोई रचनाकार ऐसा हो जिसकी हर ग़ज़ल में दो-एक शेर मन को छू जाते हों. डॉ. अमर ज्योति नदीम भी ऐसे ही एक अपवाद हैं. मतले तो विशेष रूप से उनके बहुत सशक्त हैं. कुछ-एक उदाहरण देकर अपनी बात की पुष्टि करना चाहूँगा -नहीं कोई भी तेरे आस-पास क्यों आखिर / सड़क पे तनहा खडा है उदास क्यों आखिर, कभी हिंदुत्व पर संकट, कभी इस्लाम खतरे में / ये लगता है के जैसे हों सभी अक़्वाम खतरे में, पसीने के, धुँए के जंगलों में रास्ता खोजो / गये वो दिन के जुल्फों-गेसुओं में रास्ता खोजो, कह गया था मगर नहीं आया / वो कभी लौट कर नहीं आया, यही आँख थी के जनम-जनम से जो भीगने को तरस गयी / इसी खुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गयी, दरो-दरीचओ-दीवारो-सायबान था वो / जहां ये उम्र कटी, घर नहीं, मकान था वो, मुद्दतों पहले जहां छोड़ के बचपन आये / बारहा याद वो दालान वो आँगन आये इत्यादि.
अमर ज्योति नदीम की विशेषता ये है कि उनके कथ्य की पूँजी बहुत सीमित नहीं है. रिक्शे वाले से लेकर किसान और गोबर बीनती लड़कियों तक, पंक्ति में लगे हुए मज़दूरों के जमघट से लेकर बेरोजगारों की चहलक़दमी तक उनकी दृष्टि सभी की खैरियत पूछना चाहती है. कुछ अशआर देखिये -जेठ मॉस की दोपहरी में जब कर्फ्यू सा लग जाता है / अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले, कैसा पागल रिक्शे वाला / रिक्शे पर ही सो जाता है, ये कौन कट गया पटरी पे रेल की आकर / सुना है क़र्ज़ में डूबा कोई किसान था वो, गोबर भी बीनें तो सूखा क्या मिलता है / आँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से, चले गाँव से बस में बैठे और शहर तक आये जी / चौराहे पर खड़े हैं शायद काम कोई मिल जाए जी, महकते गेसुओं के पेचोखम गिनने से क्या होगा / सड़क पर घुमते बेरोजगारों को गिना जाए,
ज़िन्दगी की चहारदीवारियों के इर्द-गिर्द जो कंटीला यथार्थ पसरा पड़ा है डॉ. अमर ज्योति नदीम कि नज़रें उससे अपना दमन नहीं बचातीं, बल्कि कुछ रुक कर, ठहर कर उसे अपने दामन में भर लेने का प्रयास करती हैं. शायर की यही अभिशप्त अकिंचन पीडा उसके दर्द में ज्योति का संचार करती है और यह ज्योति अमरत्व के पायदान पर खड़ी, आँखों में कल का सपना संजोती दिखाई देती है. ऐसे ही कुछ शेर उद्धृत कर के अपनी बात समाप्त करता हूँ-
पत्थर इतने आये लहू-लुहान हुयी / ज़ख्मी कोयल क्या कूके अमराई में, दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही / हमसे मिलने को मगर आया वहां कोई नहीं, कोई सुनता नहीं किसी की पुकार / लोग भगवान हो गये यारो, कमरे में आसमान के तारे समा गये / अच्छा हुआ के टूट के शीशा बिखर गया, उसे पडोसी बहोत नापसंद करते थे / वो रात में भी उजालों के गीत गाता था, वो खो गया तो मेरी बात कौन समझेगा / उसे तलाश करो मेरा हमज़बान था वो, सुना तो था के इसी राह से वो गुज़रे थे / तलाश करते रहे नक्शे-पा कहीं न मिला, बडकी हुयी सयानी उसकी शादी की क्या सोच रहे हो / दादी पूछेंगी और उनसे कतरायेंगे मेरे पापा, उधर फतवा कि खेले सानिया शलवार में टेनिस / ज़मीनों के लिए हैं इस तरफ श्रीराम खतरे में.
मुझे यकीन है कि डॉ. अमर ज्योति नदीम भविष्य में और भी अच्छी ग़ज़लें कहेंगे. मेरी शुभ-कामनाएं उनके साथ हैं.
शायर : डॉ. अमर ज्योति नदीम, ग़ज़ल-संग्रह : आँखों में कल का सपना है, प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नयी दिल्ली. मूल्य : एक सौ बीस रूपये.
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सोमवार, 27 अप्रैल 2009

ये ग़लत है के वहां हाशिया-आराई न थी.

ये ग़लत है के वहां हाशिया-आराई न थी.
देखती जो उसे आँखों में वो बीनाई न थी.

शुक्र है उसने बयानों में तवाज़ुन बरता,
कुछ भी कह देता वो उसकी कोई रुसवाई न थी.

ऐसी फिकरों में बलंदी नज़र आती कैसे,
जिनकी बुनियाद में मुतलक कोई गहराई न थी.

वो महज़ मेरे तसौव्वुर का करिश्मा निकला,
दर हकीकत कोई पैकर कोई अंगडाई न थी.

किस तरह सामने से हो गया मंज़र ओझल,
आँख हमने तो किसी पल कभी झपकाई न थी.

मेरे आँगन में ही वो पेड़ खडा था लेकिन,
फल गिरे उसके जहां वो मेरी अंगनाई न थी.
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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

दरिया की ये आहिस्ता-ख़रामी कोई देखे.

दरिया की ये आहिस्ता-ख़रामी कोई देखे.
संजीदगिये-ज़ह्न की खूबी कोई देखे.

शतरंज के मुहरों के फ़साने हुए नापैद,
तस्वीर बिसातों की है उलटी कोई देखे.

आवाज़ए-हक़ गूंजने से आज है क़ासिर,
हर क़ल्ब सदाओं से है खाली कोई देखे.

वो आग के दरिया से निकल आया सलामत.
साहिल पे हुई ग़र्क़ वो कश्ती कोई देखे.

क्या बात है, क्यों शोला-फ़िशां हो गया कुहसार,
लावा है रवां आग है बहती कोई देखे.

हर लह्ज़ा हुआ करती है हर फ़िक्र की तरदीद,
हैरानो-परीशान है जो भी कोई देखे.
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बुधवार, 22 अप्रैल 2009

वो आसमानों से रखता है हमसरी का जुनूं.

वो आसमानों से रखता है हमसरी का जुनूं.
ज़मीन-दोज़ न कर दे उसे उसी का जुनूं.

जदीदियत का धुंआ भर रहा था आँखों में,
ठहर सका न वहां फिक्रो--आगही का जुनूं.

सवाले-सूदो-ज़ियाँ उसके सामने कब था,
नुमायाँ करता रहा उसको सादगी का जुनूं.

नसीहतों से है अंदेशा संगबारी का,
शबाब पर है ज़माने में गुमरही का जुनूं.

नतीजा सिर्फ ये था उसकी खुद-कलामी का,
के रास आया उसे शरहे-बेखुदी का जुनूं.

मुहर्रेकात हैं तख्लीक़े-नौ के आवारा,
समेटता है इन्हें दिल की बेकली का जुनूं.

ज़मीं की क़ूवते-बर्दाश्त को न अब परखो,
तबाह-कुन है बहोत उसकी बरहमी का जुनूं.
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

ज्वालामुखी से आग का पानी उबल पड़ा.

ज्वालामुखी से आग का पानी उबल पड़ा.
सागर को सूंघता हुआ शोला निकल पड़ा.

आकाश की लगाम समंदर के पास थी,
बारिश की चाह में कोई बादल मचल पड़ा.

पर्वत के गर्भ में किसी झरने का शोर था,
इच्छा हुई जगत की तो बाहर उछल पड़ा.

थोडी सी जान शेष है अब भी पठार में,
छूकर शरीर देखिये कबसे है शल पड़ा.

धरती का वक्ष फट गया कुछ ऐसी प्यास थी,
मालिश फुहारें करती रहीं पर न कल पड़ा.

पेड़ों में कितनी आग थी चिंतित न था कोई,
हलकी रगड़ हुई तो ये जंगल ही जल पड़ा.
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रविवार, 19 अप्रैल 2009

मन के नीरव कुञ्ज में वंशी की मीठी तान पर.

मन के नीरव कुञ्ज में वंशी की मीठी तान पर.
गोपियों के नृत्य की अनुपम छटा है शान पर. .

इन कदम्बों के ये कुसुमित पुष्प गहरे हैं बहोत,
कुछ चकित होते नहीं ये प्यार के अनुदान पर.

देख कर चंचल नयन की भाव भीनी भावना,
हो गयीं राधा समर्पित कृष्न की मुस्कान पर.

अब नहीं आता कभी मन में किसी का भी विचार,
दृष्टि केन्द्रित हो चुकी है अब उसी के ध्यान पर.

हम गली-कूचों में गोकुल के उसे देखा किये,
हमने पायी उसकी महिमा आज भी पर्वान पर.

दी थी जमुना की रुपहली रेत ने चेतावनी,
देखो पग रखना संभल कर प्रेम के सोपान पर.
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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

प्रयास मन कभी ऐसे अनर्थ का न करे.

प्रयास मन कभी ऐसे अनर्थ का न करे.
के सुन के बांसुरी, गोकुल की कल्पना न करे.

मैं उसके प्यार को मन में उतार बैठा हूँ,
दवा ये ऐसी नहीं है जो फ़ायदा न करे.

रहेगी कैसे वो जीवित कभी विचारों में,
दिलो-दिमाग़ को आकृष्ट जो कला न करे.

हुआ हूँ उससे अलग, पर ये हो नहीं सकता,
के उसके पक्ष में ये मन कभी दुआ न करे.

पसंद आये न कोई तो साथ क्यों रहिये,
जो साथ रहना है तो दिल कभी बँटा न करे.

न जाने कबसे है नारी विमर्श चर्चा में,
घरों में फिर भी किसी के असर ज़रा न करे.

जमें न पाँव कभी जिसके अंगदों की तरह,
वो लंकाधीशों में जाने का हौसला न करे.
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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

धर्म की दीमक हुआ करती है वैसे भी सशक्त.

धर्म की दीमक हुआ करती है वैसे भी सशक्त.
लोकतांत्रिक कुर्सियों पर दृष्टि है इसकी सशक्त.

स्वात-घाटी से कोई अनुबंध हो सकता न था,
होते सत्ता में अगर थोडा भी ज़रदारी सशक्त.

पाके जन-आधार विकसित जब हुई संकीर्णता,
नींव कट्टर-पंथ की होती गयी खुद ही सशक्त.

उस अयोध्या में परस्पर प्रेम से रहते थे सब,
धर्म के भूकंप ने आकर घृणा कर दी सशक्त.

साम्प्रदायिक भाषणों में और कुछ हो या न हो,
राजनेताओं की इनसे हो गयी कुर्सी सशक्त.

करके नर-संहार लोकप्रीयता ऐसी मिली,
सब चकित से रह गए, होते गए मोदी सशक्त.

भूमिकाएं अब चुनावों की बहोत रोचक सी हैं,
सब दलों ने चुन लिए हैं अपने कुछ साथी सशक्त.

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रविवार, 29 मार्च 2009

मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.

मैं शिव नहीं हूँ, के गंगा जटा से निकलेगी.
मनुष्य हूँ, ये मेरी साधना से निकलेगी.

नहा के आया हूँ मंदाकिनी के तट से अभी,
कला संवर के मेरी हर सदा से निकलेगी.

वो द्रौपदी थी जिसे पांडव थे हार चुके,
न कोई महिला कभी यूँ सभा से निकलेगी.

कटा हुआ वो अंगूठा हूँ एकलव्य का मैं,
कि जिसकी आह गुरू दक्षिणा से निकलेगी.

कहा था सपनों में 'ल्यूनार्दो' ने मुझसे कभी,
ये 'कैथारीना' ही 'मोनालिज़ा' से निकलेगी.

करेंगे यज्ञ युधिष्ठिर कि मुक्त पाप से हों,
दुआ शगुन की, दलित आत्मा से निकलेगी.

मिथक के बिम्ब नहीं हैं कहीं त्रिवेणी में,
बस एक श्रद्धा की छाया फ़िज़ा से निकलेगी.
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शनिवार, 28 मार्च 2009

हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.

हम इतने तजस्सुस से न देखें तो करें क्या.
जानें तो सही, लोगों की हैं आरज़ुएं क्या.
छुपती है कहाँ चेहरे पे आई हुई सुर्खी,
एहसास है, कहती हैं ये कानों की लवें क्या.
वो कहते हैं अच्छा नहीं लोगों से उलझना,
होता हो कहीं ज़ुल्म, तो खामोश रहें क्या.
क्यों खैरियतें पूछते हैं आप मुसलसल,
देना भी अगर चाहें, जवाब आपको दें क्या.
देहलीज़े-सियासत में क़दम रखना है मुश्किल,
किसको है खबर कब यहाँ तूफ़ान उठें क्या.
हर लम्हा तो रहती है उसे फ़िक्र हमारी,
आँखों में किसी शख्स की अब और चुभें क्या.
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.

ये आँखें जब कभी इतिहास के मलबे से निकलेंगी.
हमें विशवास है अलगाव के फंदे से निकलेंगी.

किसी मस्जिद में तुलसीदास का बिस्तर लगा होगा,
अज़ानें भी किसी मंदिर के दरवाज़े से निकलेंगी.

बजाहिर जो दिखाई दे वही सच हो नहीं सकता,
गुबारों की तहें क़ालीन के नीचे से निकलेंगी.

परिस्थितियों से लड़ते लेखकों के दिन भी लौटेंगे,
विदेशों की तरह जब पुस्तकें रुतबे से निकलेंगी.

हमारे संस्कारों की जड़ें मज़बूत हैं अब भी,
ज़मीनें तोड़ कर दुनिया के हर गोशे से निकलेंगी.

छुपी हैं आज प्रतिभाएं जो पिछडेपन के परदे में,
समय अनुकूल होने पर ये खुद परदे से निकलेंगी.

स्वयं अपने ही घर वाले सुनेंगे किस तरह उनको,
वो आहें भीगने पर रात जो चुपके से निकलेंगी.

गुरुवार, 26 मार्च 2009

रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.

रचनाओं में झलकता नहीं आत्मा का रंग.
भौतिक प्रदर्शनों ने है छीना कला का रंग.
उद्योग के विकास के हैं रास्ते खुले,
हर स्वस्थ-प्रक्रिया में है संभावना का रंग.
उत्साह ने प्रशस्त किये पथ, तो चल पड़ा,
सीमाओं में बंधा न किसी भी युवा का रंग.
अब झांकते हैं विश्व के वातायनों से हम,
अब किस में बाप-दादा की है संपदा का रंग.
दुख है तो संसदीय शिथिलताओं पर हमें,
क्या लौट पायेगा कभी निश्चिन्तता का रंग.
संसद के ये चुनाव अशिक्षित समाज को,
देते नहीं विचारों की स्वाधीनता का रंग.
कर्जे ने तोड़ दी है कमर हर किसान की,
सरकार है खुदा, तो उड़ा है खुदा का रंग.
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रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.

रिक्त हैं आँखों से सपने, नींद भी है लापता.
शून्य में साँसें टंगी हैं, ज़िन्दगी है लापता.
कैसी नीरवता है, ध्वनियाँ तक नहीं होतीं कहीं,
पाश में हैं सब तिमिर के, रोशनी है लापता.
गाँव के सन्नाटे पथ में रात बस भीगी ही थी,
सब ठगे से हैं, वधू की पालकी है लापता.
जी चुके जितना था जीना,लक्ष्य अब कोई नहीं,
किस दिशा में जाएँ, क्या सोचें, ख़ुशी है लापता.
हम न सुन पाए उजालों की कभी शहनाईयां,
राग जिसमें थे हजारों, वो नदी है लापता.
हम पुराने लोग सीखें कैसे ये जीने के ढब,
टीम-टाम इतने बहोत हैं, सादगी है लापता।
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सोमवार, 23 मार्च 2009

घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.

घर पे ऐसे लोग आकर सांत्वना देते रहे.
चोट गहरी जो निरंतर बारहा देते रहे.

आत्मा तक जिनके हर व्यवहार से घायल मिली,
हम उन्हें भी निष्कपट होकर दुआ देते रहे.

अब किसी सद्कर्म की आशा किसी से क्या करें,
अनसुनी करते रहे सब, हम सदा देते रहे.

प्यार संतानों का घट कर आ गया उस मोड़ पर,
आश्रम बूढों को छत का आसरा देते रहे.

कुछ परिस्थितियाँ बनीं ऐसी कि घर के लोग भी,
एक चिंगारी को वैचारिक हवा देते रहे.

ये किवाडें डबडबाई आँख से कहतीं भी क्या,
चौखटों के नक्श वैभव का पता देते रहे.

कैसे दिन थे वो अँधेरी कन्दरा में भूख की,
थपथपाकर हम भी बच्चों को सुला देते रहे.
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दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.

दुविधाओं में क्यों पड़ते हो, साथ चलो.
सहयात्री निश्चित अच्छे हो, साथ चलो.

आत्मीय पाओगे, कुछ विशवास करो,
ऐसी बातें क्यों करते हो, साथ चलो.

देखो प्रातः ने आँखें खोली होंगी,
रात कटी, अब क्यों बैठे हो, साथ चलो.

इधर - उधर भटकोगे गलियों - कूचों में,
किस अतीत के मतवाले हो, साथ चलो.

आँखें बिछी हुई हैं सबकी राहों में,
तुम आखिर क्या सोच रहे हो, साथ चलो.
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शुक्रवार, 20 मार्च 2009

मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.

मैं हताशाओं के घेरे में नहीं था.
रोशनी में था, अँधेरे में नहीं था.
पर्वतों सा एक भी नैराश्य मन की,
संहिताओं के सवेरे में नहीं था.
चक्षुओं में था सुरक्षित वो तमाशा,
सांप में विष था, सँपेरे में नहीं था.
नोकरी की खोज में निकला था प्रातः,
रात बीती और डेरे में नहीं था.
मैं हुआ अस्तित्व में उसके समाहित,
प्राण का पंछी बसेरे में नहीं था.
एक पल का भी वियोजन हो न पाया,
वो मगर 'मैं' और 'मेरे' में नहीं था.
मैं स्वतः लुटता रहा निःशब्द होकर,
कौन सा गुण उस लुटेरे में नहीं था.
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कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.

कहीं भी शान्ति का स्थल नहीं है.
कि मन शीतांशु सा शीतल नहीं है.
लिये हैं सिन्धु सा ठहराव आँखें,
विचारों में कोई हलचल नहीं है.
भटकता हूँ मैं क्यों निस्तब्धता में,
मेरी उलझन का कोई हल नहीं है.
मैं देखूं क्या यहाँ संभावनाएं,
कि पौधों में कोई कोंपल नहीं है.
मरुस्थल करवटें लेते हैं मन में,
कि उद्यानों में भी अब कल नहीं है.
नहीं कोई भगीरथ मेरे भीतर,
मेरी आँखों में गंगाजल नहीं है.
अनाथों सी हैं अब संवेदनाएं,
सरों पर प्यार का आँचल नहीं है.
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बुधवार, 18 मार्च 2009

कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.

कोई वक़्त ऐसा न था जब न मुसीबत टूटी.
वज़'अ पर अपनी मैं क़ायम था, न हिम्मत टूटी.
फ़ैसले हैं जो बनाते हैं मुक़द्दर की लकीर,
कोई लेकर नहीं आता कभी क़िस्मत टूटी.
कभी आंधी, कभी बारिश, कभी यख-बस्ता हवा,
इस नशेमन पे तो सौ तर्ह की आफ़त टूटी.
न रहा होश ही बाक़ी न रिवायत का ख़याल,
हाय किस चीज़ पे कमबख्त ये नीयत टूटी.
कितने ही करता रहा जिसकी हिफाज़त के जतन,
आखिरी मोड़ पे आकर वो रिफ़ाक़त टूटी.
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