शुक्रवार, 23 मई 2008

पसंदीदा शायरी / फैज़ अहमद फैज़ [ FAIZ ]

पाँच नज़्में

[ 1 ] मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था के तू है तो दरखशां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दह्र का झगडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सेबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर नुगूँ हो जाए
यूं न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तरीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-बजा बिकते हुए कूचाओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथडे हुए खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीब बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की रहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
[ 2 ] चन्द रोज़ और मेरी जान
चन्द रोज़ और मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हूँ मैं
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है गुफ्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है के हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पेवंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र, के फ़र्याद के दिन थोड़े हैं
अर्साए-दह्र की झुलसी हुई वीरानी में
हम को रहना है, पे यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे नाम गरांबार सितम
आज सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो-रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार
चन्द रोज़ और मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़
[ 3 ] तन्हाई
फिर कोई आया, दिले-ज़ार, नहीं , कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खडाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चराग़
सो गई रास्ता तक-तक के हरेक राह गुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुन्दला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मयोमीना के अयाग़
अपने बे-ख्वाब किवाडों को मुक्फ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा
[ 4 ] बोल ...
बोल, के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुत्वां जिस्म है तेरा
बोल, के जाँ अब तक तेरी है
देख, के आहन गर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने
फैला हरेक ज़ंजीर का दामन
बोल, ये थोड़ा वक्त बहोत है
जिस्मो-ज़बां की मौत से पहले
बोल, के सच ज़िंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले
[ 5 ] सुब्हे-आज़ादी ( अगस्त 1947 )
ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सेहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं
ये वो सेहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार के मिल जायगी कहीं-न-कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त-मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफीनए गमे-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयारे-हुस्न की बेसब्र ख्वाबगाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहोत अज़ीज़ थी लेकिन रूखे-सेहर की लगन
बहोत क़रीं था हसीनाने-नूर का दामन
सुबुक-सुबुक थी तमन्ना, दबी-दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फिराके-ज़ुल्मतो-नूर
सुना है, हो भी चुका है विसाले-मंजिलो-गाम
बदल चुका है बहोत अहले-दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलालो-अज़ाबे-हिज्र-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारए-हिजरां का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगारे-सबा, किधर को गई
अभी चरागे-सरे-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानिए शब में कमी नहीं आई
निजाते-दीदाओ-दिल की घडी नहीं आई
चले चलो के वो मंज़िल अभी नहीं आई
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