बुधवार, 28 मई 2008

अक़लीमे-एहसास / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

या खुदा !
तेरी हम्दो-सना से हमेशा मुझे
आब्नूसी फ़जाओं में रहकर भी
शफ्फाफ़ो-पुर्नूर अफ़कार की
राह मिलती रही.

मैंने मायूसियों के समंदर की मौजों को
तेरी अताअत के रौशन सफ़ीनों की
बे-खौफ रफ़्तार से चीर कर
अक्ल की वादियों का सफ़र तय किया
खुशनवा तायरों ने
जो विज्दान की वह्दतों के शजर पर
शऊरो-नज़र के मुरक़कों की सूरत
थे बैठे हुए
ज़िन्दगी की लताफ़त के नगमे सुनाये मुझे
मैं कभी लुक्मए-नफ्स बनकर
हिदायात से तेरी गाफ़िल नहीं हो सका
रफ़अते-ज़ाते-इन्साँ की तह्कीक़ के जोश में
नफ्स को अपने मैं
मुखतलिफ ज़ावियों से परखता रहा
मैंने पाया तेरे जल्वए-नूर को हर जगह
या खुदा !
मैं तेरी दस्तगीरी का मुहताज हूँ
पहले भी मैंने मांगी थी तेरी मदद
आज भी मांगता हूँ
के गंजे-गरांमाया से भी कहीं ज़्यादा है
तेरी इमदाद का वज़न मेरे लिए
ला-शरीक और यकता समझता हूँ मैं
दिल की गहराइयों से तुझे
मेरा ईमान ही एक ऐसा ज़खीरा है
जिसकी बदौलत मैं हँसते हुए
सामना करता आया हूँ खतरात का
तेरी खुशनूदियों की जिया से हैं रौशन
मेरे रास्ते.
इस से पहले के मैं और कुछ
अपने हालात का ज़िक्र तुझ से करूं
अपने कम-इल्म होने का इक़रार करते हुए
पूछना चाहता हूँ के मुझको
कहाँ और कब और क्यों तूने पैदा किया ?
क्यों मेरा ज़हन परवाज़ करता है उन वादियों में
के जिनसे मैं वाकिफ नहीं ?
क्यों मेरे क़ल्ब में ऐसी चिंगारियां जाग उठती हैं
जिनको तेरे नूर के रौज़नों का
तबस्सुम समझता हूँ मैं ?
या खुदा !
अपने एहसास को क्या करूं ?
मुझको महसूस होता है
ख़ुद अपनी आंखों से देखा है मैंने
के मैं -
ला-मकाँ सरहदों में कभी
पायए-अर्श की कील था
मुझको जड़कर बहोत खुश हुए थे मलक
क्योंकि मैं उनकी हर ज़र्ब को
तेरा अतिया समझकर
तेरा शुक्र हर लह्ज़ा करता रहा
मैंने देखा के जब तूने आदम के पुतले को
सर ता क़दम शाहकार अपनी तख्लीक का पाया
तू खुश हुआ
तूने रूहे-मुक़द्दस को अपनी कुछ इस तरह फूँका
के आदम ने जिसमे-बशर की हरारत को
साँसों में महसूस करके,
तेरी हम्द की
इस हरारत का इरफ़ान जिन्नो-मलक को ज़रा भी न था
फिरभी तामील में तेरे हुक्मे-मुक़द्दस की
सारे मलक सर-ब-सज्दा हुए
एक इबलीस था जिसको इनकार था मैं तेरी रूह का लम्स पाकर
शरारे कहीं क़ल्ब में अपने महसूस करने लगा
मेरी ये कैफ़ियत देखकर
तूने मुझको मुहब्बत से
आदम की प्यालीनुमा नाफ़ में रख दिया
मैं निगाहों में इबलीस की चुभ गया.
या खुदा !
ये ज़मीं तेरी, जिस से मैं अब खूब मानूस हूँ
इस से उस वक्त वाकिफ़ न था
जब मैं आदम के हमराह आया था इसपर तेरे अर्श से.
तूने फ़रमाया कुरआन में
तूने लोहे को पैदा किया
मेरा एहसास कहता है मुझसे, के मैं ही वो लोहा था
जिसको ज़मीं पर उतारा गया.
मुझको आदम ने
तेरी रज़ा की लताफत के अर्के-गुलअन्दाम से
पहले पिघलाया
फिर खुशबुओं के इकहरे बदन में
इनायत को याद करके तेरी
जज़्ब कुछ इस तरह कर दिया
मैं फ़क़त खुशबुओं का जहाँ रह गया
मैंने देखा के आदम की औलाद ने
एक की दूसरे पर फज़ीलत गवारा न की
खूने-नाहक बहा
और बातिल के जुल्मों का
एक सिलसिला सा शरू हो गया .

मेरे दामन पे औलादे आदम के खूं का
पडा दाग़ ऐसा
मेरी इत्र-बेज़ी सिमट सी गई
शायद औलादे-आदम को मेरी ज़रूरत न थी
मैं भटकता रहा मुद्दतों
और फिर मैंने देखा तेरे नूह को
उनकी कज-फ़ह्म उम्मत ने
तब्लीगे-हक़ का सिला यूं दिया
याद करके तुझे
वो बद-अक़ली पे उम्मत की रोते रहे
उनमें जुल्मो-तशद्दुद को
बर्दाश्त करने की कूव्वत न थी
नौहए-नूह तुझ को पसंद आ गया इस क़दर
शिक्वए-नूह पर तेरी क़ह्हारियत जाग उठी
तूने ये फैसला कर लिया
उम्मते-नूह गर्क़ाब हो
हुक्म पाकर तेरा एक कश्ती बनायी गई
जिसपे कुछ जान्दारों के जोडों के हमराह
जब, खुशबुओं के ज़खीरे को रक्खा गया
आफ़ियत मैंने महसूस की
आसमानों ज़मीनों से उठाती हुई
तेज़ मौजों में सैलाब की
मेरे दामन पे औलादे-आदम ने जो
खूने-नाहक़ का एक दाग़ था रख दिया
सब-का-सब धुल गया
सज्दए शुक्र मैंने किया
सामने मेरी आंखों के गर्क़ाब होता रहा एक जहाँ.
तेरी तौहीद की सुत्वतों ने मेरे ज़हन पर ज़र्ब की
शमएं रौशन हुईं मेरे इद्राक की
मैंने ख़ुद पर जो डाली नज़र
तू-ही-तू था फ़क़त जलवागर
या खुदा !
मेरे एहसास की खुशबुओं को भटकने न दे
तेरी हम्दो-सना के तक़द्दुस भरे पानियों से
वज़ू करके मैं
तेरी रह्मानियत के मुसल्ले पे
करता रहा हूँ नमाज़ें अदा
हिज्रे-यूसुफ़ में, याकूब की चश्मे-पुर्सोज़ से
जितने आंसू बहे
आतिशे-इश्क का एक पिघला हुआ
सुर्ख लावा थे वो
उनको यक्जा किया मैंने हौज़े-करम में तेरे
ताके मैं उन मुहब्बत भरे आंसुओं में नहाकर
तेरे सामने आ सकूँ
मेरे दिल ने कहा
नूह के आंसुओं में था
उम्मत के जुल्मो-तशद्दुद का शिकवा फ़क़त
उनमें कोई हरारत न थी
जबकि याकूब के आंसुओं में
तेरे जल्वए-हुस्न के हिज्र की
जानलेवा हरारत का तेज़ाब था.
या खुदा !
तेरे महबूब से इश्क करता हूँ मैं
ज़िक्र से उसके बेसाख्ता
भीग जाती हैं आँखें मेरी
भीग जाती हैं सर-ता-क़दम मेरी तन्हाइयां
पा-बरहना, सुलगते हुए रेगज़ारों से होकर
गुज़रता है जज़्बात का कारवाँ
हर तरफ़ गूँजती है सदा
इल्म का शहर कुरआन है
मुस्तफ़ा, मुस्तफ़ा
और उस शहर का बाब है सूरए-फ़ातिहा
मुर्तुज़ा, मुर्तुज़ा
पूरा कुरआन है क़ल्बे-मह्बूबे-हक़
जाने-कुरआन है सूरए फातिहा
जिस से ता-हश्र दुनिया को मिलती रहेगी जिला
मुस्तफ़ा-मुस्तफ़ा, मुर्तुज़ा-मुर्तुज़ा
या खुदा !
मैंने इल्म-किताब और हिकमत को
तेरे नबी से है हासिल किया
मेरे इद्राक में है उसी की ज़िया
काश तू बख्श दे मेरी आवाज़ को
लह्ने-दाऊद का सोज़
मैं अपने विज्दान को
अपनी हर साँस के जौहर-नूर से करके आरास्ता
राग छेडूँ इस अंदाज़ से
बज़्मे-क़ल्बे-बशर में चरागाँ हो
ज़ौके-अमल जाग उठे.
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