शुक्रवार, 30 मई 2008

पसंदीदा शायरी / नासिर काज़मी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
गए दिनों का सुराग लेकर किधर से आया, किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो
बस एक मोती सी छब दिखाकर, बस एक मीठी सी धुन सुनाकर
सितारए-शाम बनके आया, ब'रंगे-ख्वाबे-सेहर गया वो
खुशी की रुत हो के गम का मौसम, नज़र उसे ढूंडती है हरदम
वो बूए-गुल था के नग्मए-जाँ, मेरे तो दिल में उतर गया वो
न अब वो यादों का चढ़ता दर्या, न फुर्सतों की उदास बरखा
युंही ज़रा सी कसक है दिल में, जो ज़ख्म गहरा था भर गया वो
कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी, बदल चला रंगे-आसमां भी
जो रात भारी थी टल गई है, जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो
शिकस्तः-पा राह में खडा हूँ, गए दिनों को बुला रहा हूँ
जो क़ाफला मेरा हमसफ़र था, मिसाले-गरदे-सफर गया वो
हवस की बुनियाद पर न ठहरा, किसी भी उम्मीद का घरौंदा
चली जरा सी हवा मुखालिफ़, गुबार बनकर बिखर गया वो
वो मयकदे को जगाने वाला, वो रात की नींद उडाने वाला
ये आज क्या उसके जी में आई, के शाम होते ही घर गया वो
वो जिसके शाने पे हाथ रखकर, सफ़र किया तूने मंज़िलों का
तेरी गली से, न जाने क्यों, आज सर झुकाए गुज़र गया वो
वो हिज्र की रात का सितारा, वो हमनवा हमसुखन हमारा
सदा रहे नाम उसका प्यारा, सुना है कल रत मर गया वो
वो रात का बेनवा मुसाफिर, वो तेरा शायर वो तेरा नासिर
तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो
[ 2 ]
कुछ यादगारे-शहरे-सितमगर ही ले चलें
आए हैं इस गली में तो पत्थर ही ले चलें
यूं किस तरह कटेगा कड़ी धूप का सफ़र
सर पर खयाले-यार की चादर ही ले चलें
ये कह के छेड़ती है हमें दिल-गिरफ्त्गी
घबरा गए हैं आप तो बाहर ही ले चलें
इस शहरे-बेचराग में जायेगी तू कहाँ
आ ऐ शबे- फिराक तुझे घर ही ले चलें
[ 3 ]
आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो
ये क्या के रोज़ एक सा गम एक सी उम्मीद
इस रंजे-बेखुमार की अब इन्तेहा भी हो
टूटे कभी तो हुस्ने-शबो-रोज़ का तिलिस्म
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो
दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों
घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो
जुज़ दिल कोई मकान नहीं दह्र में जहाँ
रहज़न का खौफ भी न रहे दर खुला भी हो
हर शय पुकारती है पसे-परदए- सुकूत
लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो
[ 4 ]
जुर्मे-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक में भी कुछ सुना ही दे
इश्क में हम नहीं ज़ियादा तलब
जो तेरा नाज़े-कम-निगाही दे
तूने तारों से शब की मांग भरी
मुझको इक अश्के-सुब्ह-गाही दे
बस्तियों को दिए हैं तूने चराग
दस्ते-दिल को भी कोई राही दे
उम्र भर की नवागरी का सिला
ऐ खुदा कोई हमनवा ही दे
ज़र्दरू हैं वरक ख्यालों के
ऐ शबे-हिज्र कुछ सियाही दे
गर मजाले-सुखन नहीं नासिर
लबे-खामोश से गवाही दे
[ 5 ]
इन सहमे हुए शहरों की फजा कुछ कहती है
कभी तुम भी सुनो, ये धरती क्या कुछ कहती है
ये ठिठरी हुई लम्बी रातें कुछ पूछती हैं
ये खामोशी आवाज़नुमा कुछ कहती है
सब अपने घरों में लम्बी तान के सोते हैं
और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है
कभी भोर भए, कभी शाम पड़े, कभी रात गए
हर आन बदलती रुत की हवा कुछ कहती है
नासिर आशोबे- ज़माना से गाफ़िल न रहो
कुछ होता है जब ख़ल्के-खुदा कुछ कहती है
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