नज़्म
क्या हिंद का जिनदाँ काँप रहा और गूँज रही हैं तक्बीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें
दीवारों के नीचे आ आ कर,यूं जम'अ हुए हैं जिन्दानी
सीनों में तलातुम बिजली का, आंखो में झलकती शमशीरें
भूकों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं
तकदीर के लब पर जुम्बिश है, दम तोड़ रही हैं तदबीरें
आंखों में क़ज़ा की सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का
तखरीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें
क्या उनको ख़बर थी सीनों से, जो खून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बेरंगी से, झल्केंगी हजारों तस्वीरें
संभलो के वो जिनदाँ गूँज उठा, झपटो के वो कैदी छूट गये
उटठो के वो बैठीं दीवारें, दौडो के वो टूटीं ज़ंजीरें
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