गुरुवार, 29 मई 2008

पसंदीदा शायरी / फैज़ की ग़ज़लें


[ 1 ]
गुलों में रंग भरे, बादे-नौ-बहार चले
चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है, यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-खुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह, तेरे कुंजे-लब से हो आगाज़
कभी तो शब, सरे-काकुल से मुश्क्बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिजरां
हमारे अश्क तेरी आकिबत संवार चले
[ 2 ]
तेरी उम्मीद , तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत, न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिले-नासुबूर बे क़ाबू
कलाम तुझ से नज़र को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है.
कहाँ गए शबे-फुर्क़त के जागने वाले
सितारए सहरी हम कलाम कब से है
[ 3 ]
तुम आए हो, न शबे-इंतज़ार गुजरी है
तलाश में है सहर, बार - बार गुज़री है
जुनूं में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है
अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
हुई है हज़रते-नासेह से गुफ्तुगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कूए-यार गुज़री है
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहोत नागवार गुज़री है
न गुल खिले हैं, न उनसे मिले न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
चमन पे गारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बे-करार गुज़री है
[ 4 ]
कभ-कभी याद में उभरते हैं नक्शे-माज़ी मिटे-मिटे से
वो आज़माइश दिलो-नज़र की वो कुर्बतें सी, वो फ़ासले से
कभी-कभी आरजू के सेहरा में, आ के रुकते हैं क़ाफले से
वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उन्वां विसाल के से
निगाहों-दिल को क़रार कैसा निशातो-ग़म में कमी कहाँ की
वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार की है उल्फत नए सिरे से
बहोत गरान है ये ऐशे-तनहा कहीं सुबुकतर कहीं गवारा
वो दर्दे-पिन्हाँ के सारी दुनिया रफीक़ थी जिसके वास्ते से
तुम्हीं कहो रिन्दों-मुह्तसिब में है आज शब कौन फ़र्क ऐसा
ये आके बैठे हैं मैकदे में वो उठके आए हैं मैकदे से
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