रविवार, 10 अगस्त 2008

आजकी ग़ज़ल

अख्तर इमाम रिज़वी
अश्क जब दीदए-तर से निकला
एक काँटा सा जिगर से निकला
फिर न मैं रात गए तक लौटा
डूबती शाम जो घर से निकला
एक मैयत की तरह लागता था
चाँद जब क़ैदे-सहर से निकला
मुझको मंजिल भी न पहचान सकी
मैं की जब गुर्दे-सफर से निकला
हाय दुनिया ने उसे अश्क कहा
खून जो ज़ख्मे-नज़र से निकला
इक अमावस का नसीबा हूँ मैं
आज ये चाँद किधर से निकला

अनवर मसऊद
जो बारिशों में जले, तुंद आँधियों में जले
चराग वो जो बगोलों की चिमनियों में जले
वो लोग थे जो सराबे-नज़र के मतवाले
तमाम उम्र सराबों के पानियों में जले
कुछ इस तरह से लगी आग बादबानों को
की डूबने को भी तरसे जो कश्तियों में जले
यही है फैसला तेरा की जो तुझे चाहे
वो दर्दो-करबो-अलम की कठालियों में जले
दमे-फिराक ये माना वो मुस्कुराया था
मगर वो दीप, कि चुपके से अंखडियों में जले
वो झील झील में झुरमुट न थे सितारों के
चराग थे कि जो चांदी की थालियों में जले
धुंआ धुंआ है दरख्तों की दास्ताँ अनवर
कि जंगलों में पले और बस्तियों में जले
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गुरुवार, 7 अगस्त 2008

होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

बातें इधर-उधर की उडाने में बेवक़ूफ़
कुर्सी पे ऐंठ अपनी जताने में बेवक़ूफ़
गिरते हैं दूसरों को गिराने में बेवक़ूफ़
माहिर हैं चोट खाने खिलाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

पूरा कभी हुआ न कोई जिंदगी का खब्त
रहता है बात-बात पे बस बरहमी का खब्त
कजरव हैं, फिर भी रखते हैं आला-रवी का खब्त
ख़ुद नाचते हैं सबको नचाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

मक्खन लगाए जो भी समझते हैं उसको दोस्त
नखरे उठाये जो भी समझते हैं उसको दोस्त
पास आए-जाए जो भी समझते हैं उसको दोस्त
डूबे हैं ऐसे दोस्त बनाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

फिसले कभी इधर कभी उस सिम्त जा पड़े
आका के गुनगुनाने पे ख़ुद गुनगुना पड़े
हमदर्द कोई टोके, तो क़ह्रे-खुदा पड़े
रहते हैं बंद अपने की खाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

गुड़हल का फूल उनकी नज़र में गुलाब है
जो है फुजूल उनकी नज़र में गुलाब है
हर बे-उसूल उनकी नज़र में गुलाब है
मसरूफ हैं गुलाब उगाने में बेवक़ूफ़
होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

यूँ तो खुदा की शान है नादाँ की बात-चीत
लेकिन अज़ाबे-जान है नादाँ की बात-चीत
बेछत का इक मकान है नादाँ की बात-चीत
फिर भी मगन हैं ख़ुद को गिनाने में बेवक़ूफ़
होते हैं कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़

मैदाने-बेवकूफी में जो बे-मिसाल है
इस दौर में दर-अस्ल वही बा-कमाल है
उसके ही इक़्तिदार का हर सिम्त जाल है
कुदरत के भर गए हैं खज़ाने में बेवक़ूफ़.
होते है कैसे-कैसे ज़माने में बेवक़ूफ़
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ओबैदुल्लाह अलीम की ग़ज़लें

अज़ीज़ उतना ही रक्खो कि जी संभल जाए
अब इस कदर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मी हैं यूँ तो बहोत, आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मिए-अनफ़ास से पिघल जाए
मुहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
जाहे वो दिल जो तमन्नाए-ताज़ा-तर में रहे
खुशा वो उम्र जो ख़्वाबों में ही बहल जाए
मैं वो चरागे-सरे-रहगुज़ारे-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तनहाइयों में जल जाए
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खयालो-ख्वाब हुई हैं मुहब्बतें कैसी
लहू में नाच रही हैं ये वहशतें कैसी
न शब् को चाँद ही अच्छा न दिन को मेह्र अच्छा
ये हम पे बीत रही हैं क़यामतें कैसी
वो साथ था तो खुदा भी था मेहरबाँ क्या क्या
बिछड़ गया तो हुई हैं अदावतें कैसी
हवा के दोश पे रक्खे हुए च़राग हैं हम
जो बुझ गए तो हवा से शिकायतें कैसी
जो बे-ख़बर कोई गुज़र तो ये सदा दी है
मैं संगे-राह हूँ, मुझ पर इनायतें कैसी
नहीं कि हुस्न ही नैरंगियों में ताक़ नहीं
जुनूँ भी खेल रहा है सियासतें कैसी
ये दौरे-बे-हुनरां है बचा रखो ख़ुद को
यहाँ सदाक़तें कैसी, करामतें कैसी.
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बुधवार, 6 अगस्त 2008

ई. सी. का इलेक्शन / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इब्तिदाई अल्फ़ाज़
यूनिवर्सिटियों में एक्जीक्युटिव काउन्सिल और अकैडेमिक काउन्सिल, यूनिवर्सिटी से मुतअल्लिक़ तमाम इन्तिजामी और इल्मी फैसले करने के बाइस बेहद अहम् समझी जाती हैं. इसमें इलेक्शन के ज़रिये मुन्तखब उस्तादों की भी नुमाइंदगी होती है. इलेक्शन के ज़माने में उस्तादों के तब्सेरे सुनने से तअल्लुक़ रखते हैं. इस नज़्म में यही मंज़र-कशी की गई है. ज़ैदी जाफ़र रज़ा
गूं-गाँ से फिर आबाद हुआ अपना नशेमन
फिर शोर-शराबे का हुआ ज़ोर दनादन
फिर फ़न्ने-सियासत का वसी हो गया दामन
फिर मिल गया हर माहिए-बे-आब को जीवन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन

ज़ूलाजी का है ज़ोर, केमिस्ट्री की फबन है
तादाद पे इंजीनियरिंग अपनी मगन है
हर दिल में मगर साइकोलाजी की चुभन है
तब्दील अखाड़े में हुआ इल्म का मद्फ़न
लो आ गया फिर घूम के ई. सी.का इलेक्शन

कहता है कोई देखो वो क़ातिल है , न जीते
और उसको न दो वोट, वो जाहिल है, न जीते
सीधा है तो क्या, यारो वो पिल-पिल है, न जीते
अच्छे नहीं ये बाहमी तकरार के लच्छन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन

मेडिकोज़ की है राय कि हारेंगे नहीं हम
कहना है तबीबों का कि हम भी हैं नहीं कम
मैदान में है आर्ट्स फैकल्टी की भी छम-छम
सज धज के निकल आए गुलाब और करोटन
लो आ गया फिर घूम के ई. सी. का इलेक्शन
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रक्स / नून मीम राशिद

[ फैज़ अहमद फैज़ और मीरा जी के समकालीन उर्दू कवियों में नून मीम राशिद (1910-1975) आधुनिक उर्दू कविता के जनक माने जाते हैं. गुजरांवाला के एक छोटे से गाँव कोट भग्गा अकाल गढ़ में जन्मे नून मीम राशिद अर्थशास्त्र के एम.ए. थे. यूनाईटेड नेशन में सेवारत रहकर अनेक देशों में घूमते रहे.अंत में लन्दन में निधन हुआ. उनके विरुद्ध हमेशा साजिश होती रही कि उनकी कविता को अधिक लोकप्रियता न मिल सके.उनका प्रथम आजाद नज्मों का संकलन मावरा 1940 में प्रकाशित हुआ.]
ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरजाँ हूँ कहीं ऐसा न हो
रक्स-गह के चोर दरवाज़े से आकर जिंदगी
ढूंढ ले मुझको निशाँ पा ले मेरा
और जुरमे-ऐश करते देख ले

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
रक्स की ये गरदिशें
एक मुबहम आसिया के दौर हैं
कैसी सरगर्मी से गम को रौंदता जाता हूँ मैं
जी में कहता हूँ कि हाँ
रक्स-गह में जिंदगी के झांकने से पेश्तर
कुल्फतों का संग्रेज़ा एक भी रहने न पाय

ऐ मेरी हम-रक्स मुझको थाम ले
जिंदगी मेरे लिए
एक खुनी भेडिये से कम नाहीं
ऐ हसीनो-अजनबी औरत उसी के डर से मैं
हो रहा हूँ लम्हा-लम्हा और भी तेरे क़रीब
जानता हूँ तू मेरी जाँ भी नहीं
तुझसे मिलने का फिर इम्काँ भी नहीं
तू ही मेरी आरजूओं की मगर तमसील है
जो रही मुझसे गुरेज़ाँ आज तक

ऐ मेरे हम-रक्स मुझको थाम ले
अहदे पारीना का मैं इन्सां नहीं
बंदगी से इस दरो-दीवार की
हो चुकी है हैं ख्वाहिशें बेसोजो-रंगों-नातवाँ
जिस्म से तेरे लिपट सकता तो हूँ
जिंदगी पर मैं झपट सकता तो हूँ
इस लिए अब थाम ले
ऐ हसीनो-अजनबी औरत मुझे अब थाम ले
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तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो / मीरा जी

[मीरा जी (1912-1949) उन गिने-चुने उर्दू कवियों में हैं जो अपनी छोटी सी जिंदगी में बड़ी सी पहचान छोड़ गए.गुजरानवाला में जन्मे मुहम्मद सनाउल्लाह सनी दर को मीरा सेन के इश्क ने मीरा जी बना दिया.उनके पिता इंडियन रेलवेज़ में इंजिनियर थे. लेकिन मीरा जी अपना घर छोड़कर बंजारों की जिंदगी गुजारना अपना मुक़द्दर बना चुके थे. स्कूल से नाम जरूर कटवा लिया लेकिन गहन अध्ययन के स्कूल की स्थायी सदस्यता कभी नहीं छोड़ी. अदबी दुनिया लाहौर, साकी दिल्ली और ख़याल बम्बई जैसी उच्च साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़े रहे.कुछ वर्षों आल इंडिया रेडियो दिल्ली में भी काम किया. संस्कृत और फ्रेंच साहित्य से प्रभावित थे. विशेष रूप से बादलेयर से. उर्दू कविता में प्रतीकात्मकता को जन्म देने का श्रेय मीरा जी को है. संस्कृत कवि दामोदर गुप्त और फ़ारसी कवि उमर खैयाम का अनुवाद करके उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवा लिया. किंतु जिंदगी को शराब में इस गहराई तक डुबो चुके थे कि तैर कर बाहर निकलने का कोई रास्ता बचा नहीं रह गया.]
तुमने तहरीक मुझे दी थी कि जाओ देखो
चाँद तारों से परे और भी दुनियाएं हैं
तुमने ही मुझसे कहा था कि ख़बर ले आओ
मेरे दिल में वहीं जाने की तमन्नाएं हैं

और मैं चल दिया, कुछ गौर किया कब इसपर
कितना महदूद है इंसान की कूवत का तिलिस्म
बस यही जी को ख़याल आया तुम्हें खुश कर दूँ
ये न सोचा कि यूँ मिट जायेगा राहत का तिलिस्म

और अब हम्दमियो-इशरते-रफ़्ता कैसी
आह अब दूरी है, दूरी है, फ़क़त दूरी है
तुम कहीं और कहीं मैं नहीं पहले हालात
लौट के आभी नहीं सकता ये मजबूरी है

मेरी किस्मत की जुदाई तुम्हें मंज़ूर हुई
मेरी किस्मत को पसंद आयीं न मेरी बातें
अब नहीं जलवागहे-खिल्वते शब अफ़साने
अब तो बस तीरओ तारीक हैं अपनी रातें
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मंगलवार, 5 अगस्त 2008

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा / अली सरदार जाफ़री

फिर एक दिन ऐसा आएगा
आंखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे
और बर्गे-ज़बां से नुत्क़ो-सदा
की हर तितली उड़ जायेगी

इक काले समंदर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हंसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
खूं की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रागिनियाँ सो जायेंगी
और नीली फ़िज़ा की मख़मल पर
हंसती हुई हीरे की ये कनी
ये मरी जन्नत मेरी ज़मीं
इसकी सुब्हें इसकी शामें
बे जाने हुए बे समझे हुए
इक मुश्ते-गुबारे-इन्सां पर
शबनम की तरह रो जायेंगी

हर चीज़ भुला दी जायेगी
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में ?

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊंगा
बच्चों के दहन से बोलूंगा
चिडियों की जुबां में गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे, धरती से
और कोपलें अपनी ऊँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती-पत्ती कली-कली
अपनी आँखें फिर खोलूंगा
सरसब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तोलूँगा
मैं रंगे-हिना आहंगे-ग़ज़ल
अंदाजे-सुखन बन जाऊँगा.
रुख्सारे-उरूसे-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा

जाड़े की हवाएं दामन में
जब फ़स्ले-खिजां को लायेंगी
रह्वों के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों में मेरे
हंसने की सदाएं आएँगी
धरती की सुनहली सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर किस्सा मेरा अफसाना है
हर आशिक है सरदार यहाँ
हर माशूका सुल्ताना है

मैं एक गुज़रता लम्हा हूँ
अय्याम के अफसूँ खाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़े-सफ़र हो जाऊँगा
माजी की सुराही के दिल से
मुस्तकबिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाऊँगा
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मेडिकल कालेज का एक कमरा और मैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इब्तिदाई अल्फाज़
जनवरी 1991 में जब मैं हार्ट अटैक की ज़द में आया, मुझे यूनिवर्सिटी के मेडिकल कालेज में डाल दिया गया. अस्पतालों से मैं बहोत घबराता था और उन्हें खुदा जाने क्यों इलाज-गाह के बजाय क़त्ल-गाह समझता था. चालीस-पैतालीस दिन अस्पताल में रहना कोई मामूली बात न थी. सुबह शाम कार्डियोग्राफी, ज्यादा बोलने पर पाबंदी, कभी नब्ज़ देखने और कभी टेम्परेचर देखने के लिए रोज़ नई नई नर्सों का आना जाना, टाइलेट के अलावा चलने फिरने की कत्तई इजाज़त नहीं, अजब मुसीबत थी. इन हालात में नज्में ग़ज़लें लिखने के आलावा और करता भी क्या. ये नज़्म मेडिकल कालेज के इसी तजरबे और एहसास की तर्जुमान है. [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]
धडकनों के पेचो-ख़म का ढूँढने निकला था हल
दफ़अतन झपटे मेरी जानिब दरिन्दाने-अजल
रहमते-यज़दाँ ने लेकिन की हिफ़ाज़त बर-महल
इज़्तिराबे-क़ल्ब ने पाया सुकूने-लायज़ल

इस्तिलाहे-आम में कहते है जिसको अस्पताल
मुद्दतों जिसको समझता आया मैं जाए-क़िताल
सरहदें जिसकी मेरी नज़रों में थीं काँटों का जाल
अब करम-फ़रमा हैं मुझ पर, उसकी आंखों के कँवल

सुब्ह आते ही, छिड़क जाती है अफ़्शां चार सू
नूरो-नगहत, संदलीं साग़र से करते हैं वज़ू
भावनाओ-तल'अतो-फरजाना के जामो-सुबू
नर्मिए-साक़ी से मयनोशी का जारी है अमल

वैसे तो पाबंदियां रहती हैं मुझपर बेशुमार
लब हिलाना जुर्म है, और बोलना ना-साज़गार
दस्तो-पा हैं, फिर भी चलने का नहीं है अख़तियार
खून की रफ़्तार, नब्जों का चलन, बैते-ग़ज़ल

बेडियाँ पैरों में, हाथों में पिन्हा कर हथकडी
कार्डियोग्राफी की लैला, आफतों की फुलझडी
दिन में दो-दो बार मुझको छेड़ती है दो घड़ी
तायरे-आज़ाद को मुश्किल से मिल पाता है कल

नर्मो-नाज़ुक उँगलियों के लम्स से नब्ज़ों के तार
झनझना उठते हैं अज ख़ुद, बे झिझक बे-अख़तियार
साज़े-दिल पर राग बज उठते हैं बालाए-शुमार
ये वो मौसीकी है जिसका कुछ नहीं नेमुल्बदल

मुझको डर है उँगलियों से होके कोई सुर्ख रंग
मेरी नब्ज़ों में न दर आए कहीं मिस्ले-फ़िरंग
और फिर आहिस्ता-आहिस्ता बना ले इक सुरंग
यूँ कहीं तामीर हो जाए न उल्फ़त का महल

मुझको ये जन्नत न रास आएगी तेरी ऐ खुदा
गफ़लत-आगीं वो खुमार आलूद है इसकी हवा
मुझसे कहती है मुहब्बत से मेरे दिल की सदा
ऐ क़लन्दर ! अब यहाँ से चल, यहाँ से दूर चल

जगमगाती शमओं के हर नीम-वा लब को सलाम
सर्व-क़द रौशन दरीचों के हर इक ढब को सलाम
इस म'आलिज-गाह के दीवारोदर सबको सलाम
जा रहा हूँ मैं, कि दिल क़ाबू में है कुछ आज-कल
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पसंदीदा शायरी / अख्तर शीरानी

दो ग़ज़लें
निकहते-ज़ुल्फ़ से नींदों को बसा दे आकर
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर
किस क़दर तीरओ-तारीक है दुनिया मेरी
जल्वए-हुस्न की इक शमअ जला दे आकर
इश्क़ की चाँदनी रातें मुझे याद आती हैं
उम्रे-रफ़्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर
जौके-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क़ को मगरूर बना दे आकर
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मस्ताना पिए जा यूँ ही मस्ताना पिए जा
पैमाना तो क्या चीज़ है मयखाना पिए जा
कर गर्क मयो-जाम गमे-गर्दिशे अयियाम
अब ए दिले नाकाम तू रिन्दाना पिए जा
मयनोशी के आदाब से आगाह नहीं तू
जिया तरह कहे साक़िए-मयखाना पिए जा
इस बस्ती में है वहशते-मस्ती ही से हस्ती
दीवाना बन औ बादिले दीवाना पिए जा
मयखाने के हंगामे हैं कुछ देर के मेहमाँ
है सुब्ह करीब अख्तरे-दीवाना पिए जा
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सोमवार, 4 अगस्त 2008

प्रोफ़ेसरी / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

[ एक तंज़िया नज़्म, यूनिवर्सिटी के उस्तादों से माज़रत के साथ ]

इल्मो-हुनर की दौड़ है दर्दे - सरी की दौड़
दिन रात जाँ खपाती है दानिशवरी की दौड़
तहकीक़ का तो काम है कुबके दरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़.

कैसा भी कैरियर हो न कुछ फ़िक्र कीजिये
गढ़ गढ़ के, कारनामों का बस ज़िक्र कीजिये
दिलबर समझिये सबको, ये है दिलबरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

गर डीन आपका है, चेयरमैन आपका
बस जान लीजिये कि है सुख चैन आपका
इक छोटी-मोटी है ये फ़क़त फ़्लैटरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़

कुछ शैखे-जामिया से तअल्लुक़ बनाइये
रूठे हों देवता जो उन्हें भी मनाइए
जादू ज़बान बनिए, है जादूगरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

प्रोमोशनों के दौर में है और भी मज़ा
अच्छा बुरा है कौन, ये है कौन देखता
होती है आज थोक में सौदागरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में, प्रोफेसरी की दौड़

आलिम अगर नहीं हैं, तो बन जाइये जनाब
मैटर उडा उड़ा के, बना लीजिये किताब
चोरी का रास्ता है उड़नतश्तरी की दौड़
अच्छी है सबसे दौड़ में प्रोफेसरी की दौड़.
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