क्यों ताज़ा है यादों में अभी तक वही मंज़र।
महफ़ूज़ है आँखों में अभी तक वही मज़र्॥
नक़्श उसके बहोत गहरे हैं क्यों सफ़हए-दिल पर,
आ जाता है ख़्वाबों में अभी तक वही मंज़र्॥
वहशत सी हुआ करती है अहसास से जिसके,
है काली घटाओं में अभी तक वही मज़र्॥
वो कूचए-जानाँ था के मक़्तल की ज़मीं थी,
मिट पाया न बरसों में अभी तक वही मज़र्॥
केसर की कुदालों की है हर चोट नुमायाँ,
तक़्सीम है फ़िरक़ों में अभी तक वही मंज़र्॥
*********
1 टिप्पणी:
nice
एक टिप्पणी भेजें