तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं।
मैं उसपे करता हूं क्यों एतबार सोचता हूं॥
इनायत उसकी कोई ख़ास तो नहीं मुझ पर,
ये जान उसपे करूं क्यों निसार सोचता हूं॥
दरख़्त के वो समर हैं बलन्दियों पे बहोत,
रसाई मेरी कहाँ, बार-बार सोचता हूं॥
शिकायतें मैं कभी कोई उससे कर न सका,
वो हो न जाये कहीं शर्मसार सोचता हूं॥
किसी का दिल ही नहीं साफ़ है किसी के लिए,
भरा है ज़हनों में गर्दो-ग़ुबार सोचता हूं॥
न कोई तन्ज़ न कुछ तब्सेरा ही मैं ने किया,
फिर उसके दिल में चुभा कैसे ख़ार सोचता हूं॥
बदल के रास्ता अपना मैं मुत्मइन न हुआ,
के ये भी गुज़रा उसे नागवार सोचता हूं॥
मैं जितना चाहता हूं उसका ज़िक्र ही न करूं,
उसी के बारे में बे-अख़्तियार सोचता हूं॥
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nice
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