शुक्रवार, 5 मार्च 2010

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को।
निकालेगा वही इस इन्तेशार से मुझ को॥

बलन्दियाँ उसे मुझ में फ़लक की आयीं नज़र,
उठा के लाया वो गर्दो-ग़ुबार से मुझ को॥

तलाश करता हूं दश्ते-जुनूँ में जिस शय को,
वो खींच लायी ख़िरद के हिसार से मुझ को॥

मैं फूल ज़ुल्फ़ों में उसकी सजाने निकला हूं,
गिला कोई भी नहीं नोके-ख़ार से मुझ को॥

हवेलियों का पता खंडहरों से मिलता है,
लगाव क्यों न हो नक़्शो-निगार से मुझ को॥

भटक रहा हूं मैं वीरानों में इधर से उधर,
बुलाता है कोई उजड़े दयार से मुझ को॥

मैं जैसा भी हूं बहरहाल मुत्मइन हूं मैं,
मुहब्बतें हैं दिले-सोगवार से मुझ को॥
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2 टिप्‍पणियां:

रानीविशाल ने कहा…

हवेलियों का पता खंडहरों से मिलता है,
लगाव क्यों न हो नक़्शो-निगार से मुझ को॥
भटक रहा हूं मैं वीरानों में इधर से उधर,
बुलाता है कोई उजड़े दयार से मुझ को॥
behag khubsurat gazal....Dhanywaad!!

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

मोहतरम डा. शैलेश ज़ैदी साहब...आदाब
ब्लॉगवाणी के ज़रिये आपके ब्लॉग तक आया हूं...
अब से पहले ऐसी उल्झन किसी ब्लॉग पर पेश नहीं आई..
वजह है-
आपका ’टिप्पणीकारों से निवेदन’
''ऐसी टिप्पणियाँ जो कवि सम्मेलनों और मुशायरों में की जाती हैं
अर्थात -'वाह', 'बहुत सुंदर', 'साधुवाद' इत्यादि, हमारे लिए अर्थ-हीन हैं''
अगर कलाम अच्छा लगे, तो क्या टिप्पणीकार को ये हक़ भी नहीं होता?
बहरहाल...
कोशिश रहेगी कि इन लफ़्ज़ों से बचा जाये..
ग़ज़ल कुछ अलग अंदाज़ में रही.
ये शेर-
बलन्दियाँ उसे मुझ में फ़लक की आयीं नज़र,
उठा के लाया वो गर्दो-ग़ुबार से मुझ को..
नोट कर लिया गया है....
मैं फूल ज़ुल्फ़ों में उसकी सजाने निकला हूं,
गिला कोई भी नहीं नोके-ख़ार से मुझ को..
शेर हौसले का पैग़ाम देता है....