सोमवार, 19 जनवरी 2009

यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।

यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।

कहीं बेचैनियाँ होंगी, कहीं आतश-फिशां होंगे।

हमारी अम्न की बातें, महज़ झूठी तसल्ली हैं,

न गुज़रेंगे अगर जंगों से कैसे शादमां होंगे।

तरक्की-याफ़ता कौमों की बातों का भरोसा क्या,

अभी हमसे हैं मिलते, कल खुदा जाने कहाँ होंगे।

ख़याल इस बात का रखना भी हमको लाज़मी होगा,

वही कल होंगे दुश्मन आजके जो राज़दाँ होंगे।

हमें अंजाम भी मालूम है अक़दाम का अपने,

यहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे, वहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे।

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लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।

लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।

विद्रोह से भरा हुआ चिंतन समेट लो।

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कुछ होश भी है तुमको कड़कती हैं बिजलियाँ,

अच्छा यही है अपना नशेमन समेट लो।

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देखो उमड़ रहा है घटाओं का सिल्सिला,

आँगन में भीग जायेगा ईंधन समेट लो।

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आभास दुख का औरों को होने न दो कभी,

आंखों में तैरता हुआ सावन समेट लो।

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बेटों को जब विदेश में ही मिल रहा हो सुख,

तुम भी ये अपने मोह का बंधन समेट लो।

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सम्भव है आँधियों का न कर पाये सामना,

हल्का बहुत है फूस का छाजन समेट लो।

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रविवार, 18 जनवरी 2009

शान्ति मिल जाती है जब सहमति जताता है विपक्ष.

शान्ति मिल जाती है जब सहमति जताता है विपक्ष.
सोचता कोई नहीं. क्यों मुस्कुराता है विपक्ष.
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पहले मीठी-मीठी बातों से किया करता है खुश,
आक्रामक बनके फिर बिजली गिराता है विपक्ष.
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कोई भी ऐसा नहीं अच्छा लगे जिसको विरोध,
टूटता है धैर्य, जब तेवर दिखाता है विपक्ष.
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ध्यान से देखें तो इसमें ख़ुद हमारा लाभ है,
टिपण्णी करके हमें फिर से जगाता है विपक्ष।

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पक्षधर हो जाएँ हम चाहे किसी सिद्धांत के,
मन के भीतर कुछ टहोके से लगाता है विपक्ष.
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शनिवार, 17 जनवरी 2009

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.
चले गए वो सभी मित्र हौसले देकर.
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ये बात सच है कि मैं दो क़दम बढ़ा न सका,
खुशी मिली मुझे औरों को रास्ते देकर.
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दुखों का काफ्ला ठहरा था मेरे घर आकर,
बिदा हुआ तो गया मुझको रतजगे देकर.
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ये सरहदों का तिलिस्मी स्वभाव कैसा है,
ये हँसता रहता है मुद्दे नये-नये देकर.
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वो लेके आया बसंती हवाओं की खुशबू,
जुदा हुआ वो मुझे ज़ख्म कुछ हरे देकर.
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खुली है खिड़कियाँ उतरेगा चाँद कमरे में,
मैं उसको रोकूंगा कुछ ख्वाब चुलबुले देकर.
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मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.

मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.
ज़िन्दगी की चाह इतनी क्यों है, ये समझूँ कहाँ.
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क्या तअल्लुक़ है मेरा, क्यों क़ैद हूँ इस जिस्म में,
देखना चाहूँ अगर खुदको तो मैं देखूं कहाँ.
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जानता हूँ नफ़्स का महकूम है अज़वे-बदन
नफ़्स है महकूम किसका, राज़ ये पाऊं कहाँ.
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मैं जिसे कहते हैं क्या उसकी भी कोई शक्ल है,
कुछ समझ पाता नहीं, इस मैं को मैं ढूँढूं कहाँ.
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इस जहाँ में किस कदर अदना सा है मेरा वुजूद,
मैं हिफाज़त इसकी करना चाहूँ तो रक्खूं कहाँ.
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निस्फ़ हिस्सा मेरा कहलाया अगर सिन्फे-लतीफ़,
मैं मुकम्मल क्यों नहीं पैदा हुआ, जानूँ कहाँ.
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मक़सद=उद्देश्य. तअल्लुक़=सम्बन्ध. नफ़्स=आत्मा। महकूम=अधीन/पाबन्द/आदेशित। अज़वे-बदन=शारीरिक अवयव. राज़=रहस्य. अदना=तुच्छ. निस्फ़ हिस्सा=अर्ध-भाग. सिंफे-लतीफ़=नारी. मुकम्मल=सम्पूर्ण.

ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.

ज़बाँ पे क़ुफ़्ल लगा लो. तो खुश रहेंगे सभी.
नज़रिया अपना दबा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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जहाँ भी जैसा भी होता है उसको होने दो,
निगाह अपनी हटा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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जो पढ़ सको तो पढो नब्ज़ अक्सरीयत की,
वही मिज़ाज बना लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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ग़लत सहीह की परवाह करना है बेसूद,
सभी के साथ मज़ा लो, तो खुश रहेंगे सभी.
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ग़लाज़तें भी नज़र आयें तो ख़मोश रहो,
तुम उनपे ख़ाक न डालो, तो खुश रहेंगे सभी.
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स्वप्न सीमित हों तो ये दुनिया बहुत छोटी सी है.

स्वप्न सीमित हों तो ये दुनिया बहुत छोटी सी है.
वो सुखी हैं जिनकी हर इच्छा बहुत छोटी सी है.
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हम नहीं ले पाते कुछ निर्णय उलझते रहते हैं,
जबकि मन में जो भी है दुविधा, बहुत छोटी सी है.
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गर्भ में पीड़ा के जाकर हम कभी देखें अगर,
उसकी, मेरी, आपकी पीड़ा बहुत छोटी सी है.
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बच्चियों का लोग कर देते हैं शैशव में विवाह,
कौन समझाए, अभी कन्या बहुत छोटी सी है.
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कैसे उद्वेलित वो कर सकते हैं जनता के विचार,
जिनकी चिंतन-शक्ति की सीमा बहुत छोटी सी है.
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ज्ञान अर्जित करना भी अपने में है इक साधना,
मूर्ख हैं वो जिनकी जिज्ञासा बहुत छोटी सी है.
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जाम भी, साकी भी, मय भी और मयखाना भी मैं,
मैं सुखी हूँ, मेरी मधुशाला बहुत छोटी सी है.
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गिडगिडा कर आह भरते हैं वही सबके समक्ष,
जानते हैं खूब जो विपदा बहुत छोटी सी है.
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गुरुवार, 15 जनवरी 2009

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.

समन्दरों ने कहा सब हवाएं बांधते हैं.
उडानें भर के मधुर कल्पनाएँ बांधते हैं.
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यथार्थ से हैं बहुत दूर इस शहर के लोग,
जो बंध न पायीं कभी वो सदाएं बांधते हैं.
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तमाम लोगों में है आत्मीयता का अभाव,
दया की डोर से संवेदनाएं बांधते हैं.
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कहीं भी ठोस धरातल नहीं विचारों का,
नए सिरे से नई श्रृंखलाएं बांधते हैं.
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सुखाते रहते हैं धो-धो के अपने आश्वासन,
वो अलगनी की तरह योजनाएं बांधते हैं.
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निगाहें डालते हैं कसमसाती बेलों पर,
नितांत छद्म से नाज़ुक लताएं बांधते हैं.
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ये मूर्तियाँ हमें मजबूर तो नहीं करतीं,
हम इनके साथ स्वयं आस्थाएं बांधते हैं.
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विचित्र होते हैं ये दाम्पत्य के रिश्ते,
ये गाँठ वो है कि देकर दुआएं बांधते हैं.
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सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती.

सच बात अगर कहिये तो कड़वी सी है लगती।
ये दुनिया महज़ झूट की आदी सी है लगती।

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नफ़रत की हैं चिंगारियां जब पहले से दिल में,
जाड़े की गरम धूप भी बरछी सी है लगती।
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किस बात की दहशत है किसी को नहीं परवा,
इस शह्र की ये बस्ती तो सहमी सी है लगती।
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उस गाय को सब पालने की रखते हैं ख्वाहिश,
जो गाय बहोत ज्यादा दुधारी सी है लगती।
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ये दौर मुलम्मों का है लाजिम है सजावट,
महँगी है वही शय जो अनोखी सी है लगती।

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हर बात मैं कह देता हूँ क्यों खुल के ग़ज़ल में,
जो तंग-नज़र हैं उन्हें चुभती सी है लगती।
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करते नहीं गर आप सताइश तो न कीजे,
मुझको ये अदा आपकी अच्छी सी है लगती।
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बुधवार, 14 जनवरी 2009

मदद न देना किसी को बहादरी तो नहीं.

मदद न देना किसी को बहादरी तो नहीं.
हमारे मुल्क का किरदार बेहिसी तो नहीं.
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दुरुस्त है कि वो कातिल है बेगुनाहों का,
मगर अकेला वही ऐसा आदमी तो नहीं.
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हमारे शह्र में रहते हैं कितने दहशत-गर्द,
अदालतों से किसी को सज़ा मिली तो नहीं.
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हजारों लोगों को जिंदा जला दिया हमने,
मगर निगाह हमारी कभी झुकी तो नहीं.
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वतन परस्त हैं, कुर्बानियों से डरते हैं,
वतन के साथ हमारी ये दोस्ती तो नहीं.
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सियासतों ने बनाया है सरबराह जिन्हें,
वो क़ायदीन भी इल्ज़ाम से बरी तो नहीं.
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हम इत्तेहाद की बातें ज़रूर करते हैं,
असर दिलों पे हो ऐसी फ़िज़ा बनी तो नहीं.
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हमारे खून भी शायद बँटे हैं फ़िरकों में,
बहा के गैरों का खूँ हमको बेकली तो नहीं।

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