दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था.
देखा तो एक दर्द का दरया करीब था.
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गुज़रे जिधर-जिधर से तमन्ना के क़ाफ़ले,
हर-हर क़दम पे एक निशाने-सलीब था.
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कुछ ऐसी मेहरबाँ तो न थी हम पे ज़िन्दगी,
क्यों हर कोई जहाँ में हमारा रक़ीब था.
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क्या-क्या लहू से अपने किया हमने सुर्खरू,
इस दौर के नगर को जो दिल के करीब था.
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अपना पता तो उसने दिया था हमें करम,
वो हमसे खो गया ये हमारा नसीब था.
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शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2008
दश्ते-वफ़ा में प्यास का आलम अजीब था. / करम हैदरी
मुझको शिकस्ते-दिल का मज़ा याद आ गया./ खुमार बाराह्बंकवी
मुझको शिकस्ते-दिल का मज़ा याद आ गया.
तुम क्यों उदास हो तुम्हें क्या याद आ गया.
कहने को ज़िन्दगी थी बहोत मुख्तसर मगर,
कुछ यूँ बसर हुई कि खुदा याद आ गया.
वाइज़ सलाम लेके चला मैकदे को मैं,
फिर्दौसे-गुमशुदा का पता याद आ गया.
बरसे बगैर ही जो घटा घिर के खुल गई,
एक बेवफा का अहदे-वफ़ा याद आ गया.
मांगेंगे अब दुआ कि उसे भूल जाएँ हम,
लेकिन जो वो बवक़्ते-दुआ याद आ गया.
हैरत है तुमको देख के मस्जिद में ऐ खुमार,
क्या बात हो गई जो खुदा याद आ गया.
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गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008
दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।
दर्द ऐसा है कि होता नहीं ज़ख्मों का शुमार।
कौन कर सकता है टूटे हुए रिश्तों का शुमार।
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यादें आती है तो ये सिलसिला थमता ही नहीं,
ज़हने-इन्सान से मुमकिन नहीं यादों का शुमार।
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ज़िन्दगी मिस्ल किताबों के है पढ़कर देखो,
इस कुतुबखाने में होता नहीं सफ़हों का शुमार।
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तुम गिरफ़्तारे-बला कब हो, तुम्हें क्या मालूम,
किस तरह होता है नाकर्दा गुनाहों का शुमार।
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इह्तिजाजात में पैसों की है ताक़त का नुमूद,
भीड़, बस करती है मासूम गरीबों का शुमार।
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पाँव के आबलों में कूवते-गोयाई नहीं,
किसको है फ़िक्र, करे राह के काँटों का शुमार।
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देख लो ख्वाब मगर ख्वाब का चर्चा न करो./ कफ़ील आज़र
लोग जल जायेंगे सूरज की तमन्ना न करो.
वक़्त का क्या है किसी पल भी बदल सकता है,
हो सके तुमसे तो तुम मुझ पे भरोसा न करो.
किरचियाँ टूटे हुए अक्स की चुभ जायेंगी,
और कुछ रोज़ अभी आइना देखा न करो.
अजनबी लगने लगे ख़ुद तुम्हें अपना ही वुजूद,
अपने दिन-रात को इतना भी अकेला न करो.
ख्वाब बच्चों के खिलौनों की तरह होते हैं,
ख्वाब देखा न करो, ख्वाब दिखाया न करो.
बेखयाली में कभी उंगलियाँ जल जायेंगी,
राख गुज़रे हुए लम्हों की कुरेदा न करो.
मोम के रिश्ते हैं गर्मी से पिघल जायेंगे,
धूप के शह्र में 'आज़र' ये तमाशा न करो.
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घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
घर के दरो-दीवार तो सब देख रहे थे.
दिल में जो ख़लिश थी उसे कब देख रहे थे.
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भीगी हुई आंखों को शिकायत थी हरेक से,
लोग उनमें जुदाई का सबब देख रहे थे.
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चेहरे से नुमायाँ था परीशानी का आलम,
आईने में हम ख़ुद को अजब देख रहे थे.
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मैं ने तो किया ज़िक्र फ़क़त लज़्ज़ते-मय का,
अहबाब मेरा हुस्ने-तलब देख रहे थे.
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हैरान थे हम कैसे हुई दिल की तबाही,
कुछ भी न बचा था वहाँ, जब देख रहे थे.
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धर्म परिवर्तन पर प्रतिबन्ध क्यों ?
बुधवार, 15 अक्टूबर 2008
बारिश हुई तो घर की बिज़ाअत सिमट गई
बारिश हुई तो घर की बिज़ाअत सिमट गई।
हालात के संवरने की उम्मीद घट गई।
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खिड़की पे आके चाँद ने देखा मेरी तरफ़,
मासूम चाँदनी मेरे तन से लिपट गई।
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सिन्फ़े-लतीफ़ ने वो करिश्मा दिखा दिया,
हैराँ थे सब, बिसाते-सियासत उलट गई।
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शायद तअलुक़ात को होना था खुशगवार,
अच्छा हुआ कि बीच से दीवार हट गई।
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मायूस सब थे, बस वो अकेला था मुत्मइन,
कुदरत का खेल देखिये बाज़ी पलट गई।
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औरों की तर्ह वो भी हुआ जबसे शर-पसंद,
उस्की तरफ़ से मेरी तबीयत उचट गई।
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तहजीब ने दिखाए करिश्मे नये-नये,
इन्सां की नस्ल कितने ही टुकडों में बँट गई।
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बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए।
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए।
मौसम के हाथ भीग के सफ्फाक हो गए।
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बादल को क्या ख़बर है कि बारिश की चाह में,
कितने बलन्दो-बाला शजर ख़ाक हो गए।
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जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की जिद करें,
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए।
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जब भी गरीबे-शहर से कुछ गुफ्तुगू हुई,
लहजे हवाए-शाम के नमनाक हो गए।
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साहिल पे जितने आब-गुज़ीदा थे सब-के-सब,
दुनिया के रुख बदलते ही तैराक हो गए।
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मंगलवार, 14 अक्टूबर 2008
समन्दरों के मनाज़िर हैं क्यों निगाहों में।

समन्दरों के मनाज़िर हैं क्यों निगाहों में।
कोई तो है जो कहीं होगा इन फ़िज़ाओं में।
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अभी हवाएं न गुल कर सकेंगी इनकी लवें,
अभी तो जान है बुझते हुए चरागों में।
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हुई है आंखों को महसूस कितनी ठंडक सी,
तुम्हारा लम्स कहीं है शजर के सायों में।
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मैं उसको भूल चुका हूँ, ग़लत था मेरा ख़याल,
वो बार-बार नज़र आया मुझको ख़्वाबों में।
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ये आसमान, ये बादल, ये बारिशें, ये हवा,
हमारी तर्ह बँटे क्यों नहीं ये फ़िरकों में।
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ये इश्क आग के पानी का सुर्ख दरिया है,
हमें ये मिल नहीं सकता कभी किताबों में।
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छुपा था मेरे ही अन्दर वो धडकनों की तरह,
मैं उसको ढूंढ रहा था कहाँ सितारों में।
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सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो.
सच को सच कहिये मगर कुछ यूँ कि दिल ज़ख्मी न हो।
दोस्ती कायम रहे अहबाब में तलखी न हो।
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आप जो कुछ सोचते हैं बस वही सच तो नहीं,
ये भी मुमकिन है हकीकत आपने देखी न हो।
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सोचने का आपके शायद यही मेयार है.
कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है जिसमें 'हटधर्मी' न हो।
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तरबियत घर से मिली है क्या इसी तहज़ीब की,
वो ज़बां आती नहीं जिसमें कोई गाली न हो।
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हो जो मुमकिन, आईने में अक्स अपना देखिये,
आपकी सूरत कहीं लादैन से मिलती न हो।
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पत्थरों से सर भी टकराएँ तो क्या हासिल हमें,
अपने हिस्से में कहाँ वो चोट जो गहरी न हो।
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आप ही फ़रमाइए मैं उंगलियाँ रक्खूं कहाँ,
जिस्म की ऐसी कोई रग है कि जो दुखती न हो।
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कैसे कर सकता है उस इन्सां से कोई गुफ्तुगू,
जिसने अपने वक़्त की आवाज़ पहचानी न हो।
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