शनिवार, 13 मार्च 2010

वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो

वो मस्लेहत है पुरानी वो मस्लेहत छोड़ो।
चलो तो राह में कोई निशान मत छोड़ो॥

दबीज़ पर्दों में रखते हैं राज़ आज के लोग,
खुलो किसी से न रस्मे-मुआमलत छोड़ो॥

तुम इत्तेफ़ाक़ नहीं करते मत करो लेकिन,
किसी अमल से न वजहे मुख़ालेफ़त छोड़ो॥

नशे में आते हो जब ख़ुद को भूल जाते हो,
वो काम जिसपे हँसें लोग उसकी लत छोड़ो॥

तुम्हारी बातें दमाग़ों में कुछ उतर तो सकें,
शऊरो-फ़ह्म की ऐसी कोई लुग़त छोड़ो॥
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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

निज़ामते-अज़ली हम भी सीखे लेते हैं

निज़ामते-अज़ली हम भी सीखे लेते हैं।
लो उसकी कूज़ागरी हम भी सीखे लेते हैं।

जमाले-हुस्न, ख़ुदी के तसव्वुरात में है,
शआरे- इश्क़े-ख़ुदी हम भी सीखे लेते हैं॥

तू ख़िल्क़ते-बशरी के है रम्ज़ से वाक़िफ़,
हुनर ये तेरा अभी हम भी सीखे लेते हैं॥

समझ सके न तेरी हिकमतों की बारीकी,
पर अब ये राहरवी हम भी सीखे लेते हैं॥

कमाल ये है के तेरा वुजूद हैं हम भी,
तुझी से दीदावरी हम भी सीखे लेते हैं॥
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निज़ामते-अज़ली=सृष्टि के प्रारँभ का संचालन्।कूज़ागरी=कुम्हार की कला।जमाले-हुस्न=रूप का सौन्दर्य।ख़ुदी=आत्माभिमान्।तसव्वुरात=कल्पनाओं।शआरे-इश्क़े-ख़ुदी=प्रेम केआत्माभिमान की परख्।ख़िल्क़ते-बशरी=मानव की सृष्टि।रम्ज़=रहस्य। हिकमत=संयम आधारित बौद्धिकता।वुजूद=अस्तित्त्व।दीदावरी=अच्छे-बुरे की पहचान्।

तजल्लियों के सेहर-आफ़रीं हिसार में हैं

तजल्लियों के सिहर-आफ़रीं हिसार में हैं।
सरापा हम किसी वादीए-एतबार में हैं॥

दुरूने-फ़िक्र किसी तश्नगी का हलक़ा है,
दरे-ख़ुलूस है वा,गोया इन्तेज़ार में हैं॥

निदाए-कूज़ागरे-इश्क़ सुनते रह्ते हैं,
तसन्नुआत से आरी किसी दयार में हैं॥

क़लम मुवर्रिख़े-दिल का रवाँ है सूरते-आब,
वरक़-वरक़ पे निगाहे-सितम-शआर में हैं॥

ख़बर किसे है के यख़-बस्ता राख के नीचे,
सुलगते बुझते हुए हम किसी शरार में हैं॥

कहीं हैं कामराँ नक़्शो-निगारे-दुनिया में,
कहीं इताब-ज़दा ख़ाक के ग़ुबार में हैं॥

वो आबगीना जो टूटा है तेरी महफ़िल में,
हम उसके रौग़नो-रंगे-क़ुसूरवार में हैं॥

उठा रहे हैं बहोत ख़ुद-सुपुर्दगी के मज़े,
हमें है फ़ख़्र के हम तेरे अख़्तियार में हैं॥
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तजल्लियों=अधयात्मज्योति । सेहर-आफ़रीं=चमत्कारिक । हिसार=घेरे । वादीए-एतबार=विश्वसनीय घाटी । दुरूने-फ़िक्र=चिन्तन के भीतर ही भीतर । तश्नगी=प्यास । हलक़ा=परिधि,मडल ।दरे-ख़ुलूस=आत्मीयता का द्वार्।वा=खुला हुआ। निदाए-कूज़ागरे-इश्क़=इश्क़ का कसोरा ब्नाने वाले की आवाज़्।तसन्नुआत से आरी=कृत्रिमता से मुक्त । निगाहे-सितम-शआर=अत्याचार ढाने वाले की दृष्टि=यख़-बस्ता=बर्फ़ जैसी। शरार=चिंगारी।कामराँ=सफल। नक़्शो-निगार=बेल-बूटे। इताब-ज़दा=शापग्रस्त। आबगीना=बारीक शीशे की बोतल। रौग़नो-रंग=रंग और पालिश्।ख़ुद-सुपुर्दगी=समर्पण्। फ़ख़्र=गर्व॥अख़्तियार=अधिकार्।

कभी कमी कोई आयी न इन ख़ज़ानों में

कभी कमी कोई आयी न इन ख़ज़ानों में।
के दौलतें हैं बहोत इश्क़ के फ़सानों में ॥
मैं ख़िरमनों की तबाही का ज़िक्र क्या करता,
ये बात ग़र्म बहोत थी कल आसमानों में॥
हवाएं करतीं मदद किस तरह सफ़ीनों की,
जगह जगह पे थे सूराख़ बादबानों में॥
हरेक की क़ीमतें चस्पाँ हैं उसके चेहरे पर,
सजे हैं जिन्स की सूरत से हम दुकानों में॥
मैं हक़-पसन्द था ये कम ख़ता न थी मेरी,
सज़ा ये थी के रहूं जाके क़ैदख़ानों में॥
मेरे ख़मीर में है एहतेजाज की मिटटी,
वुजूद मेरा मिलेगा सभी ज़मानों में॥
वो उनसियत, वो मुहब्बत, वो आपसी रिश्ते,
न जाने क्यों हुए नापैद ख़न्दानों में॥
कभी कभी मुझे एहसास ऐसा होता है,
के जैसे रक्खा हूं मैं तोप के दहानों में॥
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गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है

गर्दने-सुबह पे तलवार सी लटकी हुई है।
रोशनी जो भी नज़र आती है सहमी हुई है ॥

शाम आयी है मगर ज़ुल्फ़ बिखेरे हुए है,
रात की नब्ज़ पे उंग्ली कोई रक्खी हुई है॥

दोपहर जिस्म झुलस जाने से है ख़ौफ़-ज़दा,
धूप कुछ इतनी ग़ज़बनाक है बिफरी हुई है॥

आस्मानों पे है सरसब्ज़ दरख़्तों का मिज़ाज,
कोख धरती की बियाबानों सी उजड़ी हुई है॥

सोज़िशे-दर्द से सीने में सुलगता है अलाव,
दिल के अन्दर कहीं इक फाँस सी बैठी हुई है॥

लब कुशाई पे हैं पाबन्दियाँ ख़ामोश हैं सब,
अक़्ल कुछ गुत्थियाँ सुल्झाने में उल्झी हुई है॥
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गुरुवार, 11 मार्च 2010

तितली तितली दौड़ रहे हैं

तितली तितली दौड़ रहे हैं।
लेकर माज़ी दौड़ रहे हैं॥

लालच के बाज़ार में कब से,
कितने साथी दौड़ रहे हैं॥

आख़िर इस से हासिल क्या है,
यूँ ही ख़ाली दौड़ रहे हैं॥

घर से उठते आग के शोले,
पानी पानी ! दौड़ रहे हैं॥

माँ घर में बीमार पड़ी है,
फ़िक्र है गहरी दौड़ रहे हैं॥

आँधी का इम्कान है शायद,
पागल पंछी दौड़ रहे हैं॥

कैसे कर सकते हैं सुफ़ारिश,
जब ख़ुद हम भी दौड़ रहे हैं॥

लड़कियों की उमरें ढलती हैं,
कब हो शादी , दौड़ रहे हैं॥

शायद काम कहीं बन जाये,
कुरसी कुरसी दौड़ रहे हैं॥
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बुधवार, 10 मार्च 2010

यहाँ शायद मुकम्मल कुछ नहीं है

यहाँ शायद मुकम्मल कुछ नहीं है।
मसाएल हैं, मगर हल कुछ नहीं है॥

मैँ इन्साँ अब कहाँ, बुत बन चुका हूं,
मेरे सीने मेँ हलचल कुछ नहीँ है॥

वो जिन बोतल के बाहर आ चुका है,
के अब ख़ाली है बोतल, कुछ नहीं है॥

हमारी ही नयी शक्लें हैं ये सब,
घटा, तूफ़ान, बादल कुछ नहीं है॥

कभी समझो के इस कारे-जहां में,
सभी कुछ आज है, कल कुछ नहीं है॥

हमी कमज़ोरियों में धँस रहे हैं,
हक़ीक़त में ये दलदल कुछ नहीं है॥
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मंगलवार, 9 मार्च 2010

इस तर्ह मेरे साथ हैं घर के दरो-दीवार्

इस तर्ह मेरे साथ हैं घर के दरो-दीवार्॥
सहरा में नज़र आते हैं उगते दरो-दीवार्॥

खुल जाते हैं इदराक के नादीदा दरीचे,
बन जाते हैं एहसास के लम्हे दरो-दीवार॥

मैं क़ब्र में भी रहने नहीं पाया सुकूँ से,
करते रहे तामीर फ़रिश्ते दरो-दीवार॥

क्यों लोग निसाबों से निकलते नहीं बाहर,
क्यों लगते हैं तालीम के साँचे दरो-दीवार्॥

ग़ालिब की तरह हम भी बना लेंगे कोई घर,
दुनिया से बहोत दूर कहीं बे-दरो-दीवार॥

बेमेहरिए-अफ़लाक का हम शिक्वा करें क्या,
वरसे में मिले हैं ये सुलगते दरो-दीवार॥
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इदराक=बौद्धिकता । नादीदा-दरीचे=अनदेखी खिड़कियाँ । निसाब=पाठय्क्रम ।बेमेहरिए-अफ़लाक=आसमानों के अत्याचार्।वरसे में=उत्तराधिकार में।

मिली है जो भी हमें ज़िन्दगी ग़नीमत है

मिली है जो भी हमें ज़िन्दगी ग़नीमत है।
ये साँस चल तो रही है, यही ग़नीमत है॥

कभी दिखाए किसी को न आबले दिल के,
कभी न सोचा करें ख़ुदकुशी, ग़नीमत है॥

सफ़र से थक के यक़ीनन कहीं भी रुक जाते,
शजर न राह में था एक भी ग़नीमत है॥

किसी का क़र्ज़ नहीं है हमारी गरदन पर,
तबाह हाली में इतनी ख़ुशी ग़नीमत है॥

दिया था उसने बहोत कुछ नुमाइशों के लिए,
हमारे साथ रही सादगी ग़नीमत है॥

ये बात सच है के हम मुद्दतों से प्यासे हैं,
मगर ये प्यास है बस प्यार की ग़नीमत है॥

हज़ारों लोग हैं आते ज़रूरतों से मगर,
उदास होके न लौटा कोई ग़नीमत है॥

सुकून है के हमेशा मैं सर उठा के जिया,
हुई न रुस्वा मेरी ख़ुदसरी ग़नीमत है॥
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गंगाजल की क़समें खा लें।

गंगाजल की क़समें खा लें।
फिर भी चलेंगे दुश्मन चालें।
कुछ तो कभी हो उनकी इनायत,
ऐसी कोई राह निकालें॥
ज़ुल्म से बाज़ न आयेंगे वो,
जितना चाहें रो लें गा लें॥
कुछ कम कर लें उनसे तवक़्क़ो,
कुछ पागल दिल को समझा लें॥
बेचैनी बढ़ती जाती है,
किस हद तक हम ख़ुद को सभालें॥
खलियानों का क़ीमती ज़ेवर,
सोने जैसी धान की बालें।
भीग गये बारिश में कपड़े,
धूप कहां है जिसमें सुखा लें॥
क्या मालूम ये वक़्त की मौजें,
किसको डुबोएं किसको उछालें।
तनहाई में साथ तो देंगी,
बेहतर है कुछ चिड़ियाँ पालें॥
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