शनिवार, 20 दिसंबर 2008

हम नहीं कहते हमारा साथ चलकर दीजिये.

हम नहीं कहते हमारा साथ चलकर दीजिये.
मोरचों पर प्रोत्साहन तो निरंतर दीजिये.
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मैं कला का हूँ पुजारी, आप हैं जीवित कला,
अपने सौन्दर्यानिरूपण से मुझे तर दीजिये.
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भूख से ये बस्तियां होंगी भला कब तक तबाह,
अब न हो उपवास, कुछ ऐसी कृपा कर दीजिये.
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और कुछ दें, या न दें, इतना तो कर सकते हैं आप,
माँगने वाले की झोली प्यार से भर दीजिये.
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ज़िन्दगी है अब किराए के मकानों की तरह,
उसको सस्ती क़ीमतों में कुछ नये घर दीजिये.
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एक हलकी सी धमक से आपको लगता है डर,
जब नपुंसक है तो फिर ओखल में क्यों सर दीजिये.
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अंग-रक्षक साथ हैं, इतना है क्यों प्राणों से मोह,
बांधिए सर पर कफ़न दुश्मन को टक्कर दीजिये.
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गाँव से भरकर उडानें आप दिल्ली तक गए,
वो भी उड़ने में है सक्षम, उसको भी पर दीजिये.
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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.

मैं अपने बचपने में लौट जाता तो मज़ा आता.
शरारत से सभी को मुंह चिड़ाता तो मज़ा आता.
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बहोत संजीदा भी खामोश भी रहने लगा हूँ मैं,
कोई शोखी से मुझको गुदगुदाता तो मज़ा आता.
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मेरी तनहाइयों को चीर कर आता कोई साया,
खुशी से, मुझको सीने से लगाता तो मज़ा आता.
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ज़रा सी भी नहीं है फ़िक्र मेरी उसको, सुनता हूँ,
किसी सूरत मैं उसको भूल पाता तो मज़ा आता.
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उसे एहसास कब है वो मुसलसल ज़ुल्म ढाता है,
कोई उसपर भी थोड़ा ज़ुल्म ढाता तो मज़ा आता.
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मैं साहिल पर खड़ा हूँ, मेरा हमदम दूर है मुझसे,
वो मेरे साथ होता, गुनगुनाता तो मज़ा आता.
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चलो अच्छा हुआ मैं उसकी महफ़िल में नहीं पहोंचा,
उसे जब बिजलियाँ मुझ पर गिराता तो मज़ा आता.
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मेरा हमसाया जाने कब सलीका सीख पायेगा,
मुहब्बत से कभी आँखें मिलाता तो मज़ा आता.
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अब किसे बनवास दोगे [राम-काव्य : पुष्प 3]

पुष्प 3 : अनुभवों की खुलती परतों में
[एक]
वैज्ञानिक शब्दाकाश का अक्षर-अक्षर,
उस समय दहशत बन गया था
बसें, रेलगाड़ियाँ,घर और रास्ते
वैचारिक धुन्ध के बीच
तलाश
रहे थे जिजीविषा.
कब्‌रिस्तानी अंधेरों की गहरी गुफाओं में
छिप गये थे
कीडे-मकोडे नुमा खास और आम चेहरे.
चेहरों पर हँस रही थी
वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
और मैं देख रहा था उस हँसी के भीतर
चेहरों के निरन्तर बदलते रंगों का तमाशा.
पर मौत और जिन्दगी के बीच तैरता स्काई लैब,
किसी छाती पर वज्र बन कर नहीं टूटा.
यह देखकर याद आ गया मुझे सहसा
अपने देश के अतीत का एक दिन,
भद्दा, बदनुमा और सियाह दिन.
यानी कैकयी से दशरथ की
वचन-बद्धता का एक दिन.
जो आकाशस्थ सिंहासन को
स्काई लैब की तरह
धरती पर गिराने के लिए काफी था.
उस दिन भी हँसी थी
तात्कालिक वर्तमान की इतिहास-मूलक पीठिका-
एक तीखी हँसी.
कैकेयी पर ,
दशरथ पर
और उस वचन-बद्धता पर,
जिसे दे रही थी रूप और आकार
कामुकता की ठोकर.
[दो]
कितनी विचित्र होती है आदमी की भावुकता
जो छीन लेती है आदमी से उसकी ताकत,
झपट लेती है उसका दिमाग
और हड़प लेती है उसकी वैचारिकता.
मेरे सामने है इतिहास की सच्चाई -
कि भावुकता के क्षणों में,
एक अदना इनसान से किए गए वादे
हाथ और ज़बान दोनों काट लेते हैं,
और बना देते हैं आदमी को
गूंगा और अपंग.
उस समय आकाश हो जाता है सिमटकर बहुत छोटा,
घर के आँगन से भी बहुत छोटा,
और सौन्दर्य-पाश के मध्य छटपटाती
वासना की गन्ध,
बन जाती है वर्तमान का विष
ठिगना हो जाता है वैभव का विराट रूप.
और आदमी हो जाता है,
अपनी ही दुर्बलताओं से पराजित
अपनी ही ग्रंथियों का शिकार.
[तीन]
विद्या और अविद्या के बीच
एक गहरी खाईं है
और यह खाईं देवताओं की पुरी है
उन देवताओं की
जो ऊँचाइयों की अन्तिम हदें छूकर भी
पाताल की तहों में पड़े हैं.
मैंने उन देवताओं को निकट से देखा है,
उनके षड्यंत्रों को भाँपा है,
और रेखाँकित किए हैं उनके सारे दाँव-पेंच
मैंने देखा है कि उनके एक हाथ में है
सरस्वती के चरणों की रज

और दूसरे में मन्थरा की चोटी
और इस रज को चोटी में गूंथकर
वे खड़ा कर देते हैं एक तूफ़ान,
जिससे तार-तार हो जाता है
अनुशासन का परिधान
और परिधान की गरिमा.
देश के समूचे मानसून पर है देवताओं का कब्जा.
आँखों का पानी अगर मर जाए
और हो जाए उसका वाष्पीकरण
,
तो इसमें भी होती है देवताओं की एक चाल
और उनकी हर चाल, चाहे वह नयी हो या पुरानी
नपी तुली होती है.
बाहर से शहद की तरह मीठी
और भीतर से विष में घुली होती है.
न्याय की तुला पर तुलना
देवताओं ने कभी नहीं सीखा.
क्योंकि न्याय के लिये ज़रूरी है विद्या
और विद्या सिखाती है निर्णय की निष्पक्षता.
स्वार्थों के स्पंज से निर्मित देवताओं की गद्दियाँ,
नहीं जानतीं निष्पक्षता का अर्थ.
वे जानती हैं केवल इतना
कि दुर्बलताओं से ग्रस्त आदमी को
किस तरह बनाया जा सकता है
अपने यन्त्रालय का एक पुर्जा.
और किस तरह उड़ा जा सकता है हवा में
उसके कन्धों पर बैठकर.
देवताओं की विद्या
आदमी की विद्या से पूरी तरह अलग है.
देवता रखते हैं आदमी पर गहरी निगाह.
और यह निगाह पकड़ती है आदमी की दुर्बलता.
देवताओं की विद्या का दूसरा नाम है माया
और यह माया एक ठग है,
जिसे आता है आदमी को भीतर और बाहर से लूटना.
जिसे आता है गुलाबों के खेतों में बबूल उगाना.
जिसे आता है सन्तुलित धरती को डाँवाडोल करना.
[चार]
मैं सोचता हूँ कि सर्वशक्तिमान सृष्टा ने
कितने जतन के बाद दी है
आदमी को यह काया.
और इस काया में फूंककर अपने प्राण
इसे बनाया है अपने जैसा.
ताकि वह जो देवता हैं
,
व्यक्त कर सकें इसके प्रति आस्था.
मैं सोचता हूँ कि यह आदमी
क्यों गुमा देता है अपनी वह पूर्णता
जो मिली है इसे सृष्टा से
आदमी होने के नाते ?
क्यों बना लेता है खुद को
कभी देवता और कभी राक्षस ?
क्यों नहीं कुरेदता इसे भीतर तक
आदमी होने का गौरव ?
जबकि इसे पता है कि यही आदमी
जब कर लेता है पूर्णता को प्राप्त,
यानी अपनी साँसों को गिनने के बजाय,
बहने लगता है नदी की तरह शान्त.
और धरती को ऊँचा बहुत ऊँचा उठाकर
उतर जाता है गहरा बहुत गहरा अन्तरिक्ष में.
तो पर्वतों के शिखर झुक जाते हैं इसके समक्ष,
समुद्र बना देता है इसके लिए रास्ता
और मच जाती है देवलोक में हलचल.
मैं देखता हूँ कि राम के राज्याभिषेक की सूचना
बन गई है देवताओं की आँखों की किरकिरी.
देवता करने लगे हैं भीतर तक महसूस
कि ठण्डा पड़ जाएगा सट्टे का बाजार
कि धरती छीन लेगी आकाश से
उसकी सारी शक्ति.
मैं अनुभव करता हूँ कि देवताओं के शोर से
टूट पड़ा है आसमान.
कि सरस्वती ने भर दी है मन्थरा के वक्ष में कूटनीति.
कि ढल गये हैं दशरथ और कौशल्या की मूर्च्छा में
धरोहर स्वरूप धरे हुए वरदान.
मैं अनुभव करता हूँ कि उतर आये हैं देवता
कैकेयी की आँखों मैं,
और थिरक रहे हैं उसकी जीभ के ऊपर.
और महल के कोने में बैठी मन्थरा
होठों को सिकोड़ कर
बजा रही है सीटी.
मैं देखता हूँ अनुभवों की खुलती पर्तों में
एक के बाद-एक बदलते दृष्य
और दृष्यों का यह बदलाव
उकेरता है दृष्यों के वर्तमान की सच्चाई.
[पाँच]
जिस समय घेर रही हों चारों ओर से
आदमी को आग की लपटें.
लपटों में जलता दिखाई देता हो
पिता का चेहरा
,
और झुलस रही हो माँ की ममता.
जिस समय खिसक गयी हो
पाँव के नीचे से धरती.
धरती पर खड़े हों
ढेर सारे हिंसक पशु
पशुओं की गरदन में पड़ी हों,
आत्मीय जनों की मुण्डमालाएँ
और जबड़ों से टपक रहा हो ताजा रक्त.
आदमी के लिए मुश्किल है निर्णय लेना
कि वह क्या करे और कहाँ जाए ?
मैंने देखी हैं इस तरह की घटनाएँ
इसी धरती पर घटते.
मैंने देखा है आदमी को टुकड़ों में बंटते.
मैंने देखा है भरे-पूरे परिवारों को
कागज की तरह कटते-फटते.
और वह जो सिर्फ आदमी नहीं है
पूर्ण मानव है,
जानता है आग की लपटों को शांत कर देना,
जानता है लपटों में फूल उगाना.
राम ने देख लिया था
शहनाई की धुन को मातमी संगीत में तब्दील होते.
राम देख रहे थे विमाता से पराजित पिता को
फालिजग्रस्त.
राम देख चुके थे मामा के आतंक की नग्न तस्वीरें.
तस्वीरों के बीच से उभरती भावी रेखाएँ.
राहु के जबड़ों में फड़फड़ाता चाँद
चाँद के गिर्द मंडलाते काले दैत्याकार बादल
बादलों की लम्बी-लम्बी लाल-लाल जीभें.
संज्ञा- शून्य धरती
चेतना- शून्य आकाश.
जहरीला सर्वनाश.
पर राम अपनी जगह थे शांत
भावुकता से परे
निर्द्वंद्व
, अविचल !
पढ़ ली थीं राम ने लक्ष्मण की तेजाबी आँखें
देख ली थी सीता के मन की हलचल
सुन ली थी अहिल्या की पुकार.
इसीलिए पिता से वचनबद्ध राम
नापने लगे
चौदह वर्षों की यातना का अक्षांश और देशांतर
तैर गई सहज ही एक सौम्य मुस्कान
राम के होंठों पर
याद है आज भी मुझे राम का वह निर्णय
जिस पर किये थे हस्ताक्षर
लक्ष्मण और सीता ने
सुरक्षित है जिस पर युग के अंगूठे का निशान
और वक्त की मुहर
[छः]
मैं उस प्रभात को कैसे कह सकता हूँ प्रभात
जिसके आँचल में फैली है
दूर तक एक सियाह रात
जिसने तान दी है आँसुओं की
एक वृत्ताकार कनात
मैं कैसे कह सकता हूँ
कि सरयू का जल था उस समय शांत
कि जगह-जगह से फट नहीं गयी थी
अयोध्या की धरती
कि दशरथ की आँखों में उमड़ नहीं रहे थे
मौत के बादल

प्रभात भर देता है उपलब्धियों से
आदमी की झोली
पर जहाँ देख रहा हो आदमी चपुचाप
उपलब्धियों को आँखों से दूर होते
जहाँ देख रहा हो आदमी चुपचाप समय को क्रूर होते
वहाँ मैं कैसे कर सकता हूँ प्रभात की कल्पना !
कैसे देख सकता हूँ उजालों के दृश्य !
मैं जानता हूँ कि हर दृश्य के पीछे
होता है आदमी का हाथ
और यह हाथ
जब कर लेता है देवताओं के साथ अनुबन्ध

तो धूमिल पड़ जाती है उजालों की चमक
सांवली पड़ जाती हैं प्रभात की सुनहरी रश्मियाँ.

मैं देखता हूँ राम, लक्ष्मण और सीता को
अयोध्या से करते प्रस्थान.
मैं देखता हूँ प्रभात के उजाले को
रात की सियाही में ढलते.
मैं देखता हूँ माँ के ममत्व को बेटे के साथ चलते.
मैं देखता हूँ दशरथ को पश्चाताप से हाथ मलते.
मैं देखता हूँ कैकयी के माथे पर पसीने की बूंदें.
खुलती जाती हैं मेरे अनुभवों की परतें
एक के बाद एक.
पुकारती हैं मुझको मेरी याद्दाश्तें
.
जगाता है मुझको मेरा विवके.
समा जाता हूँ मैं राम की छाया के भीतर
और बनाता हूँ एक नए प्रभात का नक्शा.
जिसमें बरक़रार रहता है रश्मियों का सुनहरापन.
बरसता है झूमकर उजालों का सावन.
जीता है आदमी आजादी के साथ
स्वस्थ जीवन.
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अंधेरे रोशनी की पगडियां बांधे हुए निकले.

अंधेरे रोशनी की पगडियां बांधे हुए निकले.
मगर इस रूप में भी सबके पहचाने हुए निकले.
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बज़ाहिर उनके चेहरों पर भी थी मुस्कान की रेखा,
निकट आये तो सब दुःख-दर्द के पाले हुए निकले.
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अनोखी है नशे की दृष्टि से संसद की मधुशाला
यहाँ सब लड़खड़ाते, झूमते, गिरते हुए निकले.
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चुनौती दे रहा था जब समय वो मौन थे घर में,
टला संकट तो फिर अंगडाइयां लेते हुए निकले.
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मुझे सहयोग की आशाएं थीं, पर जब मिला उनसे,
मेरी ही तर्ह वो हालात के मारे हुए निकले.
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न जाने उसकी महफ़िल में हुआ क्या, ऐसी क्या बीती,
वहाँ से जितने निकले अपना दिल थामे हुए निकले.
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पले थे शान्ति के उजले कबूतर यूँ तो हर घर में,
वो उड़ते किस तरह जब उनके पर काटे हुए निकले.
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वहाँ फुर्सत थी किसको जो हमारी बात सुन लेता,
वहाँ अपनी समस्याओं में सब उलझे हुए निकले.
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सुरक्षा का कवच होता तो हम भी शेर बन जाते,
पड़ी थी जान पर, करते भी क्या, भागे हुए निकले.
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हमारी कथनी-करनी एक हो तो कौन पूछेगा,
हम अपने राजनेताओं से यह सीखे हुए निकले.
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गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.

सिलसिला हम उस से संबंधों का रक्खें और क्यों.
तल्खियां कुछ कम नहीं झेले हैं, झेलें और क्यों.
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घाव जितने भी दिए हैं उसने ताज़ा हैं सभी,
होने दें कैसे सफल फिर उसकी घातें, और क्यों.
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वो कभी व्यवहार से आश्वस्त कर सकता नहीं,
जानकर सब कुछ हम उसकी बात मानें और क्यों.
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अपने घर की भी तो हालत कुछ बहुत अच्छी नहीं,
शत्रु इस घर में अतिथि बन-बन के आयें और क्यों.
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ठीक है, चाहत में सह लेते हैं हम अन्याय भी,
किंतु ऐसा भी है क्या, अब खाएं चोटें और क्यों.
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घुटने भर पानी में करते हैं रोपाई धान की,
काटते हैं भूख की फिर कैसे फ़सलें, और क्यों.
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कुछ कहीं संवेदना भी है किसानों के लिए,
आत्म हत्याओं की ये काली घटाएं और क्यों.
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छप्परों की हैं नियति सीलन, अँधेरा,भुखमरी,
ऊंची होती जा रहीं अट्टालिकाएं और क्यों.
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बुधवार, 17 दिसंबर 2008

आप कितनी भी प्रतीक्षा कीजिये होगा वही.

आप कितनी भी प्रतीक्षा कीजिये होगा वही.
जिनसे आशाएं हैं, देंगे फिर हमें धोखा वही.
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जैसी घटनाओं की आशंका थी पहले से हमें,
मूक दर्शक बनके हमने दृश्य सब झेला वही.
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आदमी की जान का अब मूल्य ही क्या रह गया,
आज की दुनिया में शायद सबसे है सस्ता वही.
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अपने षड्यंत्रों से जिसने हमको आतंकित किया,
भेद खुलने पर हुआ संसार में रुसवा वही.
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सबके मन-मस्तिष्क में घर कर गया वो हादसा,
रात-दिन रहती है घर बाहर महज़ चर्चा वही.
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कम न था आतंक रावण का, हुआ उसका विनाश,
आज़मा कर देखिये ब्रह्मास्त्र का नुस्खा वही.
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आज भी गाँवों में है गोदान प्रासंगिक बहुत,
खेत-खलिहानों में हैं, होरी वही, धनिया वही.
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छप्परों में साँस गिनते-गिनते मर जायेंगे वो,
उनका दुख वो जानते हैं जिनपे है बीता वही.
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हर क़दम पर जिसने हमको आपको धोखा दिया,
उस पुरस्कृत पंक्ति में आगे मिला बैठा वही,
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सोमवार, 15 दिसंबर 2008

किस दिशा में जा रहे हैं हम, पता हमको नहीं.

किस दिशा में जा रहे हैं हम, पता हमको नहीं.
राह कैसी है, समय कहता है ये पूछो नहीं.
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डगमगाएं पाँव तो, अच्छा है घर में ही रहो,
चल पडो तो, मुडके फिर पीछे कभी देखो नहीं.
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वह महत्त्वाकांक्षी है तो बुरा लगता है क्यों,
आगे बढ़ने की तमन्ना सच कहो किसको नहीं.
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दुख भरी इस रात में तुमने दिया है मेरा साथ,
रात भर जागे हो तारो, और अब जागो नहीं.
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हम में क्या अनुबंध था सब पर प्रकट करते हो क्यों,
कुछ भरम रक्खो, रहस्यों को तो यूँ बांटो नहीं.
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बात कड़वी भी हो तो सोचो है उसमें तथ्य क्या,
भावनाओं के तराज़ू पर उसे तोलो नहीं.
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कृष्ण ने दारिद्र्य का द्विज के किया कितना ख़याल,
प्रेम संबंधों को समझो, अर्थ से आंको नहीं.
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गैर कहकर उसको ठुकरा दोगे तो पछताओगे,
उसको अपना लो, करो मत देर, कुछ सोचो नहीं.
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रविवार, 14 दिसंबर 2008

ग़ज़ल : शैलेश ज़ैदी : उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.

उन्हें इतिहास का हर शब्द झुठलाना लगा अच्छा.
जो पैमाना था उनका, बस वो पैमाना लगा अच्छा.
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वतन कहते थे जब हम, आतंरिक सद्भाव था उसमें,
हुए हम औपचारिक, राष्ट्र कहलाना लगा अच्छा.
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ज़माने ने दिखाए राजनीतिक दाव-पेच ऐसे,
हमें बनवास भाया और वीराना लगा अच्छा.
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हैं रखते राजनेता साँप अपनी आस्तीनों में,
उन्हें प्रतिद्वंदियों को उनसे डसवाना लगा अच्छा.
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सभी वैदिक-ऋचाएं सागरों के सीप जैसी हैं.
मुझे उनमें छुपे मोती का हर दाना लगा अच्छा.
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मिलाना आँख तथ्यों से असंभव हो गया ऐसा,
उसे हर-हर क़दम पर हमसे कतराना लगा अच्छा.
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वही हिंसक भी है, हिंसा विरोधी स्वर भी उसका है,
समय के साथ उसका स्वांग अपनाना लगा अच्छा.
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वो घायल था, मैं लेकर जा रहा था हस्पताल उसको,
मुझे इस तेज़-रफ़तारी का जुर्माना लगा अच्छा.
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मैं अपने भाग्य की रेखाओं को ख़ुद से बनाता हूँ,
ये कहता था मेरे भीतर जो दीवाना, लगा अच्छा.
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बादलो ठहरो ! हमें कहना है तुमसे दिल की बात.

बादलो ठहरो ! हमें कहना है तुमसे दिल की बात.
कुछ समंदर की कहानी और कुछ साहिल की बात.
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मैं उफक पर देखता हूँ सारी बातें साफ़-साफ़,
मैं समझता था रहेगी राज़ उस महफ़िल की बात.
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आजकल जालिम भी होते हैं बज़ाहिर पुर-खुलूस,
दोस्तों के ही लबो-लहजे में थी क़ातिल की बात.
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तजरुबे से ही समझ सकता है कोई ज़िन्दगी,
रखती थी गहराइयां उस गाँव के जाहिल की बात.
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कर दिया बेदार सुबहों ने सभी को ख्वाब से,
फिरभी वो सोता रहा क्या कीजिये गाफ़िल की बात.
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वो समर्क़न्दो-बुखारा तक खुशी से दे गया,
आ गई उस खुश-अदा माशूक के जब तिल की बात.
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इल्म का इज़हार लायानी है कम-इल्मों के बीच,
कितनी मानी-खेज़ है उस सूफ़िए-कामिल की बात.
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कुछ तकल्लुफ भी है कुछ कहना भी है वो चाहता,
क्या करे, उसके लिए है आ पड़ी, मुश्किल की बात.
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हम थे हक़ पर, हमसे दुनिया ने किया है इत्तेफ़ाक,
वो हुआ रुसवा हुई उर्यां जब उस बातिल की बात.
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शनिवार, 13 दिसंबर 2008

आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.

आस्थाएं पल्लवित हैं जो मिथक के रूप में.
देखता है क्यों उन्हें इतिहास शक के रूप में.
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अब वो आदम सेतु हो या सेतु हो श्री राम का,
दोनों ही जीवित हैं साँसों की महक के रूप में.
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खुल के पाकिस्तान बातें कर नहीं सकता कभी,
व्यक्त दुर्बलताएं उसकी हैं झिझक के रूप में.
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लोग भावुकता में आकर जो भी जी चाहे कहें,
एक हैं सब तैल-चित्रों के फलक के रूप में.
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भभकियां देते हैं वो भीतर से जो होते हैं रिक्त,
हाल दीपक का हुआ ज़ाहिर भभक के रूप में.
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अर्चना, पूजा, अज़ानें, दाढियां, रोचन तिलक,
धर्म, मज़हब के दिखावे हैं सनक के रूप में,
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पेड़ पर आता है जब भी फल तो झुक जाता है पेड़,
ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है लचक के रूप में.
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मन में हो संतोष तो सत्कर्म में ही स्वर्ग है,
मन कलुष हो जब तो है जीवन नरक के रूप में.
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