बुधवार, 17 सितंबर 2008

जिस्म के टुकड़े धमाकों ने उड़ाए

जिस्म के टुकड़े धमाकों ने उडाये चार सू.
शहर में हैं मुन्तशिर दहशत के साये चार सू.
जाने किन-किन रास्तों से आयीं काली आंधियां,
फिर रहे हैं लोग अपनी जाँ बचाए चार सू.
ज़हन के आईनाखानों पर है दुनिया का गुबार,
हिर्स का जादू ज़माने को नचाये चार सू.
अपने कांधों पर उठाकर अपने सारे घर का बोझ,
दर-ब-दर की ठोकरें इंसान खाये चार सू.
जब भी वो नाज़ुक-बदन आए नहाकर बाम पर,
उसकी खुशबू एक पल में फैल जाए चार सू.
इन बियाबां खंडहरों को देखकर ऐसा लगा,
देखते हों जैसे ये नज़रें गड़ाए चार सू.
दूध से झरनों में होकर नीम-उर्यां आजकल,
ज़िन्दगी का खुशनुमा मौसम नहाए चार सू.
उजले-उजले पैकरों में चाँद की ये बेटियाँ
घूमती हैं आसमां सर पर उठाये चार सू.
कुछ नहीं 'जाफ़र' कहीं तुमसे अलग उसका वुजूद,
जिसको तुम सारे जहाँ में ढूंढ आए चार सू.
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पहाडों पर भी होती है


पहाडों पर भी होती है ज़राअत देखता हूँ मैं।
मेरे मालिक ! तेरे बन्दों की ताक़त देखता हूँ मैं।
जमाल उसका ही सुब्हो-शाम क्यों रहता है आंखों में,
उसी की सम्त क्यों मायल तबीअत देखता हूँ मैं।
हवा की ज़द पे रौशन करता रहता हूँ चरागों को,
ख़ुद अपने हौसलों में शाने-कुदरत देखता हूँ मैं।
जो बातिल ताक़तों के साथ समझौता नहीं करते,
वही पाते हैं बाद-अज़-मर्ग इज्ज़त देखता हूँ मैं।
वो ख़ुद हो साथ या हो साथ साया उसकी उल्फ़त का,
मुसीबत भी नहीं लगती मुसीबत देखता हूँ मैं।
ज़माने की नज़र में खुदकशी है बुज़दिली, लेकिन,
न जाने इसमें क्यों बूए-बगावत देखता हूँ मैं।
मेरी जानिब वो मायल आजकल रहता है कुछ ज़्यादा,
बहोत मखसूस है उसकी इनायत देखता हूँ मैं।
तेरी दुनिया में हैरत से तेरे ईमान-ज़ादों को,
सुनाते रोज़ अहकामे-शरीअत देखता हूँ मैं.
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सोमवार, 15 सितंबर 2008

क्या ज़माना आ गया है / माजिद अल-बाक़री

क्या ज़माना आ गया है दोस्त भी दुश्मन लगे।
जिस्म, दिल की आँख से देखो तो इक मद्फ़न लगे।
छाँव में अपने ही कपडों के बदन जलता रहा,
चारपाई घर लगे और पायंती आँगन लगे।
बे-मआनी लफ्ज़ की कसरत है हर तहरीर में,
मसअला जो भी है, इक बढ़ती हुई उलझन लगे।
कोरे कागज़ पर लकीरों के घने जंगल तो हैं,
आज का लिखा हुआ कल के लिए ईंधन लगे।
ज़हन में उगते हैं अब बेफस्ल चेहरों के गुलाब,
जो भी सूरत सामने आती है, इक चिलमन लगे।
बस्तियों को तोड़ देता है घरौंदों की तरह,
ये बुढापा भी मुझे इंसान का बचपन लगे।
छुपके जब साया जड़ों में बैठ जाए पेड़ की,
उजड़ी-उजड़ी डालियों का सिलसिला गुलशन लगे।
धूप में बे-बर्ग माजिद हो गई शाखे-सदा,
वो उमस है जून की गर्मी में भी सावन लगे।
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रविवार, 14 सितंबर 2008

धूप ने छाया से कानों में कहा

धूप ने छाया से कानों में कहा, शीतल हो तुम.
किंतु स्थिरता नहीं है, इसलिए बेकल हो तुम.
देख कर बादल को उड़ते, चाँद को आई हँसी,
मुस्कुराकर बोला सच ये है बहुत निश्छल हो तुम.
मन के संगीतज्ञ ने काया की वीणा से कहा,
कैसे छेड़ूँ तार, शायद नींद से बोझल हो तुम.
फूल के पास आके भंवरे ने मुहब्बत से कहा,
कितने पावन हो! मेरी नज़रों में गंगाजल हो तुम.
मेरे मन! मैं इस समय तुमसे न कुछ कह पाऊंगा,
ताज़ा-ताज़ा ज़ख्म हैं, पूरी तरह घायल हो तुम.
कूदने की ज़िद है क्यों इस ज़िन्दगी की आग में,
हो गया है क्या तुम्हें! क्या एकदम पागल हो तुम.

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ये सिल्सिला कोई तनहा

ये सिलसिला कोई तनहा हमारे घर से न था।
बचा था कौन जो मजरूह इस ख़बर से न था।
हमारे ख़्वाबों में थी कोई और ही तस्वीर,
कभी हमारा सरोकार इस सेहर से न था।
कुछ और तर्ह का था आज मसअला दरपेश,
तबाहियों का ये सैलाब उसके दर से न था।
बचाया उसने न होता, तो डूब जाते सभी,
अगरचे रिश्ता कोई उसका इस सफ़र से न था।
सभी के जिस्मों पे चस्पां था मौत का साया,
रूखे-हयात फ़रोजां अजल के डर से न था।
दिए थे लहरों ने कितने ही ज़ख्म साहिल को,
मगर उसे कोई शिकवा किसी लहर से न था।
अजब दरख्त था, शाखें थीं आसमानों में,
ज़मीं का राब्ता मुत्लक़ किसी समर से न था।
हमारे मुल्क की परवाज़ थम गई कैसे,
हमारा मुल्क तो महरूम बालो-पर से न था।
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जी बहलता ही नहीं / मुज़फ़्फ़र वारसी

जी बहलता ही नहीं साँस की झंकारों से।
फोड़ लूँ सर न कहीं जिस्म की दीवारों से।
अपने रिस्ते हुए ज़ख्मों पे छिड़क लेता हूँ,
राख झड़ती है जो एहसास के अंगारों से।
गीत गाऊं तो लपक जाते हैं शोले दिल में,
साज़ छेड़ूँ तो निकलता है धुंआ तारों से।
यूँ तो करते हैं सभी इश्क की रस्में पूरी,
दूध की नहर निकाले कोई कुह्सारों से।
जिंदा लाशें भी दुकानों में सजी हैं शायद,
बूए-खूं आती है खुलते हुए बाज़ारों से।
क्या मेरे अक्स में छुप जायेंगे उनके चहरे,
इतना पूछे कोई इन आइना बरदारों से।
प्यार हर चन्द छलकता है उन आंखों से मगर,
ज़ख्म भरते हैं मुज़फ़्फ़र कहीं तलवारों से।
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मेरी अपनाई हुई / निसार नासिक

मेरी अपनाई हुई क़दरों ने ही नोचा मुझे।
तू ने किस तह्ज़ीब के पत्थर से ला बाँधा मुझे।
मैंने साहिल पर जला दीं मस्लेहत की कश्तियाँ,
अब किसी की बेवफाई का नहीं खटका मुझे।
दस्तो-पा बस्ता खड़ा हूँ प्यास के सहराओं में,
ऐ फ़राते-ज़िन्दगी ! तूने ये क्या बख्शा मुझे।
चन्द किरनें जो मेरे कासे में हैं उनके इवज़,
शब के दरवाज़े पे भी देना पड़ा पहरा मुझे।
साथियो ! तुम साहिलों पर चैन से सोते रहो,
ले ही जायेगा कहीं बहता हुआ दरिया मुझे।
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शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 7]

(43)
जसोदा हरि पालनै झुलावै.
हलारावैं, दुलराइ मल्हावैं, जोइ सोइ कछु गावै.
मेरे लाल कौं आउ निदरिया, काहे न आनि सुवावै.
तू काहे नहिं बेगहि आवै, तोको कान्ह बुलावै.
कबहुं पलक हरि मूँद लेत हैं, कबहुं अधर फरकावै.
सोवत जानि मौन ह्वै के रहि, करि करि सैन बतावै.
इहि अन्तर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरै गावै.
जो सुख 'सूर' अमर मुनि दुर्लभ, सो नन्द भामिनी पावै.


जशोदा पालने में श्याम को झूला झुलाती हैं.
कभी झूले को जुम्बिश दे के होती हैं मगन दिल में,
कभी चुमकारती हैं प्यार से बेटे को झुक झुक कर,
कभी नगमे जुबां पर जो भी आ जाते हैं गाती हैं.
कहाँ है ! नींद तू आजा मेरे बेटे की आंखों में.
सुलाती क्यों नहीं तू लाल को मेरे यहाँ आकर.
अरे तू छोड़कर सब काम जल्दी क्यों नहीं आती.
कन्हैया ख़ुद बुलाते हैं तुझे ऐ बावली आजा.
कभी लोरी को सुनकर श्याम पलकें मूँद लेते हैं.
कभी होंटों को फड़काते हैं महवे-ख्वाब हों जैसे.
समझकर सो रहे हैं श्याम, कुछ लम्हों को चुप रहकर.
लबों पर रखके उंगली सबसे कहती हैं इशारों से.
कोई आहट न हो, टूटे न कच्ची नींद बेटे की.
इसी असना में जब बेचैन होकर श्याम उठते हैं.
जशोदा मीठी-मीठी लोरियां फिर गाने लगती हैं.
खुशी जो 'सूर' वलियों के भी हिस्से में नहीं आई.
मगन हैं नन्द की ज़ौजा वही नादिर खुशी पाकर.
(44)
जसुमति मन अभिलाष करै.
कब मेरो लाल घुटुरुवन रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै.
कब द्वै दांत दूध कै देखौं, कब तोतरें मुख बचन झरै.
कब नन्दहि 'बाबा' कहि बोलै, कब जननी कहि मोहि ररै.
कब मेरौ अंचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसों झगरे.
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै.
कब हँसि बात कहैगो मोसों, जा छबि तैं दुख दूरि हरै.
स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आपु गई कछु काज धरै.
इहिं अन्तर अंधवाह उठ्यो इक, गरजत गगन सहित घहरै.
'सूरदास' ब्रज-लोक सुनत धुनि, जो जहं-तंह अतिहिं डरै.


दिल में हैं कैसे-कैसे जशोदा के वलवले.
वो दिन कब आये लाल मेरा घुटनियों चले.
कब हो खड़ा वो पाँव जमाकर ज़मीन पर.
कब देखूं उसके दूध के दो दांत खुश-गुहर.
कब तोतली ज़बान में बोले मेरा पिसर.
कब नन्द को पुकारे कहे 'बाबा' प्यार से.
कब मां की रट लगाके परीशां मुझे करे.
मोहन पकडके कब मेरा आँचल झगड़ पड़े.
कब जी में जो भी आये कहे कहके अड़ पड़े.
कब दिन वो आये खाने लगे कुछ ज़रा-ज़रा.
हाथों से अपने लुकमा भरे मुंह में महलका.
कब हंसके मुझसे बात करेगा, रिझायेगा.
कब रूप उसका देखके दुख भाग जायेगा.
तनहा सहन में श्याम को दो पल को छोड़कर.
घर में गयीं जशोदा कोई काम सोंचकर.
इस बीच जाने क्या हुआ तूफ़ान सा उठा.
थी घन-गरज वो, ब्रज का जहाँ थरथरा उठा.
गोकुल के लोग 'सूर', सदा सुनके डर गए.
जो थे जहाँ खड़े रहे, चेहरे उतर गए.
(45)
जननी देखिं छबि बलि जात.
जैसे निधनी धनहिं पाये, हरष दिन अरु रात.
बाल लीला निरखि हरषित, धन्य धनि ब्रज नारि.
निरखि जननी-बदन किलकत, त्रिदस पति दै तारि.
धन्य नन्द, धनि धन्य गोपी, धन्य ब्रज कौ बॉस.
धन्य धरनी-करन-पावन, जन्म सूरजदास.


माँ हुई जाती है कुरबां देखकर हुस्ने-जमील.
जैसे मुफलिस खुश हो बेहद पाके दौलत लाज़वाल.
औरतें गोकुल की हैं सब लायके-सद-इफ्तिखार.
बाल लीला के नजारों से हैं वो बागो-बहार.
माँ का चेहरा देखकर, हंसकर, बजाकर तालियाँ.
श्याम ममता की छुअन से भरते हैं किलकारियाँ.
गोपियाँ भी, नन्द भी, गोकुल के बाशिंदे भी सब.
क़ाबिले-तहसीन हैं, पाकर मताए-हुस्ने-रब.
सारी दुनिया की ज़मीं ऐ 'सूर' पाकीजा हुई.
आमदे मौलूद से हर जा खुशी पैदा हुई.
(46)
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत.
मनिमय कनक नन्द कै आँगन, बिम्ब पकरिबै धावत.
कबहुं निरखि हरि आप छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत.
किलकि हंसति राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाहत.
कनक भूमि पर कर पग छाया, यह उपमा इक राजति.
प्रतिकर, प्रतिपद, प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति.
बाल दसा सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावत.
अंचरा तर लै ढाकि, 'सूर' के प्रभु कौ दूध पियावत.


कन्हैया आ रहे हैं घुटनियों किलकारियाँ करते.
जवाहर से जड़े सोने के आँगन में जशोदा के.
लपकते हैं पकड़ने के लिए परछाईं रह-रहके.
कभी साए को अपने देखकर पुर-शोख आंखों से.
पकड़ना चाहते हैं उसको नाज़ुक नर्म हाथों से.
कभी होकर मगन हंसते हैं जब किलकारियाँ भरकर.
नज़र आते हैं उनके दूध के दांतों के दो गौहर.
ये कोशिश बारहा रखते हैं जारी श्याम खुश होकर.
निगाहों को तरावत बख्शता है ये हसीं मंज़र.
तिलाए-अहमरीं पर दस्तो-पा का देखकर साया.
ख़यालों में ये इक तशबीह का नक्शा उभर आया.
ज़मीं ने हर क़दम, हर हाथ, हर नग में जवाहर के.
क़तारों में कँवल बिठला दिए आरास्ता करके.
ये दिलकश शोखियाँ तिफ़ली की जब देखि जशोदा ने.
बुलाया नन्द को देकर सदाएं माँ की ममता ने.
खुशी से, 'सूर' लेकर श्याम को आँचल के साए में.
पिलाया दूध माँ ने चाँद को बादल के साए में.
(47)
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी.
जो मन में अभिलाष करति ही, सो देखति नन्द धरनी.
रुनुक झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन हरनी.
बैठि जात फुनि उठत तुरत ही, सो छबि जाई न बरनी.
ब्रज जुवती सब देख थकित भइ, सुन्दरता की सरनी. .
चिर जीवहु जसुदा कौ नंदन, 'सूरदास' कौ तरनी.


दो-दो क़दम ज़मीन पे चलने लगे हैं श्याम.
कितने दिनों से थी जो यशोदा की आरजू.
तकमील उसकी देख रही हैं वो रू-ब-रू.
रन-झुन सदाएं पाँव के घुंगरू की दिल-फरेब.
मीठी धुनों से जीतता है दिल ये पावज़ेब.
चलते हैं, बैठ जाते हैं, होते हैं फिर खड़े.
मंज़र वो है कि जिसका बयाँ कुछ न बन पड़े.
बेसुध हैं देख-देख के गोकुल की गोपियाँ.
पेशे-नज़र है हुस्न का सर्चश्माए-रवां.
जिंदा रहो हमेशा यशोदा के लाल तुम.
शाफ़े हो 'सूर; के लिए ऐ बाकमाल तुम.
(48)
मैया ! मैं तौ चंद खिलौना लैहौं.
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं.
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं.
ह्वैहौं पूत नन्द बाबा कौ, तेरौ सूत न कहैहौं.
आगे आउ बात सुन मेरी, बलदेवहिं न जनैहौं.
हँसि समुझावति; कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं.
तेरी सौं मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं.
'सूरदास' ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं.


अम्माँ ! फ़क़त वो चंद खिलौना ही लूँगा मैं.
ले देख, मैं ज़मीं पे अभी लोट जाऊँगा.
गोदी में फिर तेरी न किसी तरह आऊंगा.
पीऊंगा दूध गाय का हरगिज़ न जान ले.
गुंथवाऊंगा न चोटी भले तू पड़े गले.
अब सिर्फ़ नन्द बाबा का बेटा रहूँगा मैं.
हूँ तेरा आल ये कभी कहने न दूंगा मैं.
मान बोली आओ पास, मेरी बात तो सुनो.
बलदेव भी न जानेंगे, बस तुम ये जान लो.
हंसकर यशोदा श्याम को समझाके प्यार से.
कहती हैं दूंगी लाके नवेली दुल्हन तुझे.
अम्माँ तुम्हें क़सम है सुनो बात तुम मेरी.
जाऊँगा ब्याहने को दुल्हन मैं इसी घड़ी.
कहते हैं 'सूर' मिलके मैं बारातियों के साथ.
गाने शगुन के गाऊंगा मीठी धुनों के साथ.
(49)
हरि अपनैं आँगन कछु गावत
तनक-तनक चरननि सों नाचत, मनहीं मनहिं रिझावत.
बांह उठाइ काजरी - धौरी, गैयन टेरि बुलावत.
कबहुँक बाबां नन्द पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत.
माखन तनक आपने कर ली, तनक बदन मैं नावत.
कबहूँ चितै प्रतिबिम्ब खंभ मैं लौनी लिए खवावत.
दूरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत.
सूर स्याम के बाल-चरित नित, नितही देखत भावत.


अपने आँगन में कुछ गा रहे हैं हरी
नन्हें- नन्हें से पैरों से हैं नाचते
लुत्फ़ अन्दोज़ होते हैं दिल में सभी
बाजुओं को उठाकर बुलाते हैं वो
गायों को नाम ले-ले के उनका कभी
और फिर नन्द बाबा को देकर सदा
पास अपने बुलाते हैं वो नाज़ से
याद आता है जैसे ही फिर और कुछ
घर के अन्दर वो आते हैं दौडे हुए
थोड़ा मक्खन है मुंह में तो है थोड़ा सा
उनके नाज़ुक से नन्हें से हाथों में भी
देखते हैं तिलाई सुतूनों में जब
अपनी परछाईं को जगमगाते हुए
मुस्कुरा कर खिलाते हैं मक्खन उसे
देखती हैं जशोदा तमाशे ये सब
शौक़ से दिल में खुशियाँ समोती हुई
श्याम की उहदे तिफ़्ली की ये शोखियाँ
सूर लगती हैं अच्छी बहोत रोज़ ही.
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नज़रें बचाकर निकल गया

वो सामने से नज़रें बचाकर निकल गया।
एक और ज़ुल्म करके सितमगर निकल गया।
अच्छा हुआ कि आंखों से आंसू छलक पड़े,
सीने में मुन्जमिद था समंदर निकल गया।
मैं गहरी नींद में था किसी ने जगा दिया,
आँखें खुलीं तो ख्वाब का मंज़र निकल गया।
इज़हार मैंने हक़ का, सरे-आम कर दिया,
तेज़ी से कोई मार के पत्थर निकल गया।
मैं उससे मिल के लौटा, तो उसके ख़याल में,
डूबा था यूँ, कि चलता रहा, घर निकल गया।
बिजली गिरी तो घर मेरा वीरान कर गई,
तूफ़ान सीना चीर के बाहर निकल गया।
अब क्या करेंगे मेरा ज़माने के ज़लज़ले,
मुद्दत से दिल में बैठा था जो डर, निकल गया।

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गुरुवार, 11 सितंबर 2008

रात के कंगनों की खनक गूँज उठी

[तारों भरी रात : वैंगाफ़ की प्रसिद्ध पेंटिंग]
शाम के सब धुंधलके पिघल से गए,
रात के कंगनों की खनक गूँज उठी.
लेके अंगडाई मयखाने जागे सभी,
प्यार के साधनों की खनक गूँज उठी।

लड़खडाते हुए चन्द साए मिले,
जिनकी आंखों में बेकल चकाचौंध थी,
चुप थे वीरान गलियों के शापित अधर,
फिर भी कुंठित मनों की खनक गूँज उठी।


मन-ही-मन में विचारों के आकाश से,
रूप की अप्सराएं उतरने लगीं,
गुनगुनाने लगे कल्पना के सुमन,
गीति के मंथनों की खनक गूँज उठी।

खिड़कियों से गुज़रती हुई चाँदनी,
मय के प्यालों में आकर थिरकने लगी,
चाँद के नूपुरों से स्वतः स्फुरित
गर्म स्पंदनों की खनक गूँज उठी।

मैं तिमिर की शरण में ही बैठा रहा,
होंठ करता रहा तर मदिर चाव से,
मेरे भीतर कहीं बारिशें हो गयीं,
बावले सावनों की खनक गूँज उठी।
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