शुक्रवार, 30 मई 2008

ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
न जाने कब से हैं सहरा कई बसाए हुए
हुई हैं मुद्दतें, आंखों को मुस्कुराए हुए
ये माहताब न होता, तो आसमानों पर
सितारे आते नज़र और टिमटिमाए हुए
समंदरों की भी नश्वो-नुमा हुई होगी
ज़माना राज़ ये सीने में है छुपाए हुए
हर एक दिल में खलिश क्यों है एक मुब्हम सी
नक़ाब चेहरे से है वक्त क्यों हटाए हुए
इस इंतज़ार में आयेंगे फिर नए पत्ते
शजर को अरसा हुआ पत्तियां गिराए हुए
हवा के झोंकों में हलकी सी एक खुश्बू है
तुम आज लगता है इस शहर में हो आए हुए
गुलाब-रंग कोई चेहरा अब कहीं भी नहीं
ज़मीं पे अब्र के टुकड़े हैं सिर्फ़ छाए हुए
लगे हैं ज़ख्म कई दिल पे संगबारी में
के लोग सर पे हैं तूफ़ान सा उठाए हुए
किताबें पढ़के नहीं होती अब कोई तहरीक
जुमूद अपने क़दम इनमें है जमाए हुए
परिंदे जाके बलंदी पे, लौट आते हैं
के इन के दिल हैं नशेमन से लौ लगाए हुए
अजीब थे वो मुसाफ़िर, चले गए चुपचाप
दिलों में अब भी कहीं हैं मगर समाए हुए
[ 2 ]
शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो फ़त्हयाब न था
के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था
कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया
के वक्त, साथ कभी, मेरे हम-रकाब न था
समंदरों को, मेरे ज़र्फ़ का था अंदाजा
जभी तो, उनके लिए मैं, फ़क़त हुबाब न था
ज़बां पे कुफ्ल लगा कर, न बैठता था कोई
वो दौर ऐसा था, सच बोलना अज़ाब न था
गुज़र गया वो भिगो कर सभी का दामने-दिल
कोई भी ऐसा नहीं था जो आब - आब न था
मैं हर परिंदे को शाहीन किस तरह कहता
हकीक़तें थीं मेरे सामने, सराब न था
तवक्कोआत का फैलाव इतना ज़्यादा था
के घर लुटा के भी अपना, वो बारयाब न था
********************

परवीन शाकिर की ग़ज़लें

[ 1 ]
आवाज़ के हमराह सरापा भी तो देखूं
ऐ जाने-सुखन मैं तेरा चेहरा भी तो देखूं
दस्तक तो कुछ ऐसी है के दिल छूने लगी है
इस हब्स में बारिश का ये झोंका भी तो देखूं
सहरा की तरह रहते हुए थक गयीं आँखें
दुःख कहता है अब मैं कोई दर्या भी तो देखूं
ये क्या के वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझसे
अपने लिए वो शख्स तड़पता भी तो देखूं
अबतक तो मेरे शेर हवाला रहे तेरा
मैं अब तेरी रुसवाई का चर्चा भी तो देखूं

[ 2 ]
इक शख्स को सोचती रही मैं
फिर आइना देखने लगी मैं
उस की तरह अपना नाम लेकर
ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं
तू मेरे बिना न रह सका तो
कब तेरे बगैर जी सकी मैं
आती रहे अब कहीं से आवाज़
अब तो तेरे पास आ गयी मैं
दामन था तेरा के मेरा माथा
सब दाग मिटा चुकी मैं
[ 3 ]
आंखों ने कैसे ख्वाब तराशे हैं इन दिनों
दिल पर अजीब रंग उतरते हैं इन दिनों
रख अपने पास अपने महो-मेह्र ऐ फ़लक
हम ख़ुद किसी की आँख के तारे हैं इन दिनों
दस्ते-सेहर ने मांग निकाली है बारहा
और शब ने आ के बाल संवारे हैं इन दिनों
इस इश्क ने हमें ही नहीं मोतदिल किया
उसकी भी खुश-मिज़ाजी के चर्चे हैं इन दिनों
इक खुश-गवार नींद पे हक़ बन गया मेरा
वो रतजगे इस आँख ने काटे हैं इन दिनों
वो क़ह्ते-हुस्न है के सभी खुश-जमाल लोग
लगता है कोहे-काफ पे रहते हैं इन दिनों

[ 4 ]
थक गया है दिले-वहशी मेरा, फ़र्याद से भी
दिल बहलता नहीं ऐ दोस्त तेरी याद से भी
ऐ हवा क्या है जो अब नज़मे-चमन और हुआ
सैद से भी हैं मरासिम तेरे, सय्याद से भी
क्यों सरकती हुई लगती है ज़मीं याँ हर दम
कभी पूछें तो सबब शहर की बुनियाद से भी
बर्क थी या के शरारे-दिले-आशुफ्ता था
कोई पूछे तो मेरे आशियाँ-बरबाद से भी
बढ़ती जाती है कशिश वादा-गहे हस्ती की
और कोई खींच रहा है अदम-आबाद से भी
[ 5 ]
कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की
उसने खुश्बू की तरह मेरी पिज़ीराई की
कैसे कह दूँ के मुझे छोड़ दिया है उसने
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की
तेरा पहलू, तेरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शबे-तन्हाई की
उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख्वाहिशें अंगडाई की

********************

पसंदीदा शायरी / नासिर काज़मी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
गए दिनों का सुराग लेकर किधर से आया, किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो
बस एक मोती सी छब दिखाकर, बस एक मीठी सी धुन सुनाकर
सितारए-शाम बनके आया, ब'रंगे-ख्वाबे-सेहर गया वो
खुशी की रुत हो के गम का मौसम, नज़र उसे ढूंडती है हरदम
वो बूए-गुल था के नग्मए-जाँ, मेरे तो दिल में उतर गया वो
न अब वो यादों का चढ़ता दर्या, न फुर्सतों की उदास बरखा
युंही ज़रा सी कसक है दिल में, जो ज़ख्म गहरा था भर गया वो
कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी, बदल चला रंगे-आसमां भी
जो रात भारी थी टल गई है, जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो
शिकस्तः-पा राह में खडा हूँ, गए दिनों को बुला रहा हूँ
जो क़ाफला मेरा हमसफ़र था, मिसाले-गरदे-सफर गया वो
हवस की बुनियाद पर न ठहरा, किसी भी उम्मीद का घरौंदा
चली जरा सी हवा मुखालिफ़, गुबार बनकर बिखर गया वो
वो मयकदे को जगाने वाला, वो रात की नींद उडाने वाला
ये आज क्या उसके जी में आई, के शाम होते ही घर गया वो
वो जिसके शाने पे हाथ रखकर, सफ़र किया तूने मंज़िलों का
तेरी गली से, न जाने क्यों, आज सर झुकाए गुज़र गया वो
वो हिज्र की रात का सितारा, वो हमनवा हमसुखन हमारा
सदा रहे नाम उसका प्यारा, सुना है कल रत मर गया वो
वो रात का बेनवा मुसाफिर, वो तेरा शायर वो तेरा नासिर
तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो
[ 2 ]
कुछ यादगारे-शहरे-सितमगर ही ले चलें
आए हैं इस गली में तो पत्थर ही ले चलें
यूं किस तरह कटेगा कड़ी धूप का सफ़र
सर पर खयाले-यार की चादर ही ले चलें
ये कह के छेड़ती है हमें दिल-गिरफ्त्गी
घबरा गए हैं आप तो बाहर ही ले चलें
इस शहरे-बेचराग में जायेगी तू कहाँ
आ ऐ शबे- फिराक तुझे घर ही ले चलें
[ 3 ]
आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो
ये क्या के रोज़ एक सा गम एक सी उम्मीद
इस रंजे-बेखुमार की अब इन्तेहा भी हो
टूटे कभी तो हुस्ने-शबो-रोज़ का तिलिस्म
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो
दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों
घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो
जुज़ दिल कोई मकान नहीं दह्र में जहाँ
रहज़न का खौफ भी न रहे दर खुला भी हो
हर शय पुकारती है पसे-परदए- सुकूत
लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो
[ 4 ]
जुर्मे-उम्मीद की सज़ा ही दे
मेरे हक में भी कुछ सुना ही दे
इश्क में हम नहीं ज़ियादा तलब
जो तेरा नाज़े-कम-निगाही दे
तूने तारों से शब की मांग भरी
मुझको इक अश्के-सुब्ह-गाही दे
बस्तियों को दिए हैं तूने चराग
दस्ते-दिल को भी कोई राही दे
उम्र भर की नवागरी का सिला
ऐ खुदा कोई हमनवा ही दे
ज़र्दरू हैं वरक ख्यालों के
ऐ शबे-हिज्र कुछ सियाही दे
गर मजाले-सुखन नहीं नासिर
लबे-खामोश से गवाही दे
[ 5 ]
इन सहमे हुए शहरों की फजा कुछ कहती है
कभी तुम भी सुनो, ये धरती क्या कुछ कहती है
ये ठिठरी हुई लम्बी रातें कुछ पूछती हैं
ये खामोशी आवाज़नुमा कुछ कहती है
सब अपने घरों में लम्बी तान के सोते हैं
और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है
कभी भोर भए, कभी शाम पड़े, कभी रात गए
हर आन बदलती रुत की हवा कुछ कहती है
नासिर आशोबे- ज़माना से गाफ़िल न रहो
कुछ होता है जब ख़ल्के-खुदा कुछ कहती है
*************

गुरुवार, 29 मई 2008

पसंदीदा शायरी / जोश मलीहाबादी

नज़्म

क्या हिंद का जिनदाँ काँप रहा और गूँज रही हैं तक्बीरें

उकताए हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

दीवारों के नीचे आ आ कर,यूं जम'अ हुए हैं जिन्दानी

सीनों में तलातुम बिजली का, आंखो में झलकती शमशीरें

भूकों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं

तकदीर के लब पर जुम्बिश है, दम तोड़ रही हैं तदबीरें

आंखों में क़ज़ा की सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का

तखरीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें

क्या उनको ख़बर थी सीनों से, जो खून चुराया करते थे

इक रोज़ इसी बेरंगी से, झल्केंगी हजारों तस्वीरें

संभलो के वो जिनदाँ गूँज उठा, झपटो के वो कैदी छूट गये

उटठो के वो बैठीं दीवारें, दौडो के वो टूटीं ज़ंजीरें

*********************

पाकिस्तानी शायरी : ग़ज़ल

[ 1 ] आसिफ़ इक़बाल
कोई तीर दिल में उतर गया, कोई बात लब पे अटक गई
ऐ जूनून तूने बुरा किया, मेरी सोच राह भटक गई
बढे रूहों-जिस्म के फ़ासले, यहाँ इज्ज़तों की तलाश में
जो कली नवेदे-बहार थी, वाही बागबाँ को खटक गई
जिसे नोचने थे चले सभी, यहाँ बाग्बानो-गुलो-समर
वो कली उमीदे-सेहर बनी, वो कली खुशी से चिटक गयी
मुझे ज़िंदगी की तलाश में, कई माहो-साल गुज़र गए
मेरी सोच तख्तए-दार पर, जो लटक गयी सो लटक गयी
[ 2 ] शबनम शकील
सूखे होंट, सुलगती आँखें, सरसों जैसा रंग
बरसों बाद वो देखके मुझको, रह जायेगा दंग
माजी का वो लम्हा मुझको, आज भी खून रुलाये
उखडी-उखडी बातें उसकी, गैरों जैसे ढंग
दिल को तो पहले ही दर्द की, दीमक चाट गयी थी
रूह को भी अब खाता जाए, तन्हाई का ज़ंग
उन्हीं के सदके यारब मेरी, मुश्किल कर आसन
मेरे जैसे और भी हैं जो, दिल के हाथों तंग
आज न क्यों मैं चूडियाँ अपनी, किर्ची-किर्ची कर दूँ
देखी आज एक सुंदर नारी, प्यारे पिया के संग
शबनम कोई तुझसे हारे, जीत पे मान न करना
जीत वो होगी जब जीतेगी, अपने आप से जंग
[ 3 ] नोशी गीलानी
मुहब्बतें जब शुमार करना, तो साजिशें भी शुमार करना
जो मेरे हिस्से में आई हैं वो, अज़ीयतें भी शुमार करना
जलाए रक्खूँगी सुब्ह तक मैं, तुम्हारे रस्ते में अपनी आँखें
मगर कहीं ज़ब्त टूट जाए, तो बारिशें भी शुमार करना
जो हर्फ़ लौहे-वफ़ा पे लिक्खे, हुए है उनको भी देख लेना
जो रायगां हो गयीं वो सारी, इबारतें भी शुमार करना
ये सर्दियों का उदास मौसम, के धड़कनें बर्फ़ हो गयी हैं
जब उनकी यखबस्तगी परखना, तमाज़तें भी शुमार करना
तुम अपनी मजबूरियों के किस्से, ज़रूर लिखना विज़ाहतों से
जो मेरी आंखों में जल-बुझी हैं, वो ख्वाहिशें भी शुमार करना
[ 4 ] असलम अंसारी
मैंने रोका भी नहीं और वो ठहरा भी नहीं
हादसा क्या था, जिसे दिल ने भुलाया भी नहीं
जाने क्या गुजरी के उठता नहीं शोर-ज़ंजीर
और सहरा में कोई नक्शे-कफ़े-पा भी नहीं
बेनियाज़ी से सभी कर्यए-जां से गुज़रे
देखता कोई नहीं है के तमाशा भी नहीं
वो तो सदियों का सफर कर के यहाँ पहोंचा था
तूने मुंह फेर के जिस शख्स को देखा भी नहीं
किसको नैरंगिए अय्याम की सूरत दिखलाएं
रंग उड़ता भी नहीं नक्श ठहरता भी नहीं
[ 5 ] अय्यूब रूमानी
जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला
सहने-गुल छोड़ गया, दिल मेरा पागल निकला
जब उसे ढूँढने निकले तो निशाँ तक न मिला
दिल में मौजूद रहा, आँख से ओझल निकला
इक मुलाक़ात थी, जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे, वो इक पल निकला
वो जो अफ्सानए-ग़म सुनके हंसा करते थे
इतना रोए हैं के सब आँख का काजल निकला
कौन अय्यूब परीशन है तारीकी में
चाँद अफ़लाक पे दिल सीने में बेकल निकला
*******************

पसंदीदा शायरी / फैज़ की ग़ज़लें


[ 1 ]
गुलों में रंग भरे, बादे-नौ-बहार चले
चले भी आओ के गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है, यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-खुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह, तेरे कुंजे-लब से हो आगाज़
कभी तो शब, सरे-काकुल से मुश्क्बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिजरां
हमारे अश्क तेरी आकिबत संवार चले
[ 2 ]
तेरी उम्मीद , तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत, न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से, तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिले-नासुबूर बे क़ाबू
कलाम तुझ से नज़र को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है.
कहाँ गए शबे-फुर्क़त के जागने वाले
सितारए सहरी हम कलाम कब से है
[ 3 ]
तुम आए हो, न शबे-इंतज़ार गुजरी है
तलाश में है सहर, बार - बार गुज़री है
जुनूं में जितनी भी गुज़री ब-कार गुज़री है
अगरचे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है
हुई है हज़रते-नासेह से गुफ्तुगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कूए-यार गुज़री है
वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहोत नागवार गुज़री है
न गुल खिले हैं, न उनसे मिले न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है
चमन पे गारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बे-करार गुज़री है
[ 4 ]
कभ-कभी याद में उभरते हैं नक्शे-माज़ी मिटे-मिटे से
वो आज़माइश दिलो-नज़र की वो कुर्बतें सी, वो फ़ासले से
कभी-कभी आरजू के सेहरा में, आ के रुकते हैं क़ाफले से
वो सारी बातें लगाव की सी वो सारे उन्वां विसाल के से
निगाहों-दिल को क़रार कैसा निशातो-ग़म में कमी कहाँ की
वो जब मिले हैं तो उनसे हर बार की है उल्फत नए सिरे से
बहोत गरान है ये ऐशे-तनहा कहीं सुबुकतर कहीं गवारा
वो दर्दे-पिन्हाँ के सारी दुनिया रफीक़ थी जिसके वास्ते से
तुम्हीं कहो रिन्दों-मुह्तसिब में है आज शब कौन फ़र्क ऐसा
ये आके बैठे हैं मैकदे में वो उठके आए हैं मैकदे से
****************************

बुधवार, 28 मई 2008

अक़लीमे-एहसास / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

या खुदा !
तेरी हम्दो-सना से हमेशा मुझे
आब्नूसी फ़जाओं में रहकर भी
शफ्फाफ़ो-पुर्नूर अफ़कार की
राह मिलती रही.

मैंने मायूसियों के समंदर की मौजों को
तेरी अताअत के रौशन सफ़ीनों की
बे-खौफ रफ़्तार से चीर कर
अक्ल की वादियों का सफ़र तय किया
खुशनवा तायरों ने
जो विज्दान की वह्दतों के शजर पर
शऊरो-नज़र के मुरक़कों की सूरत
थे बैठे हुए
ज़िन्दगी की लताफ़त के नगमे सुनाये मुझे
मैं कभी लुक्मए-नफ्स बनकर
हिदायात से तेरी गाफ़िल नहीं हो सका
रफ़अते-ज़ाते-इन्साँ की तह्कीक़ के जोश में
नफ्स को अपने मैं
मुखतलिफ ज़ावियों से परखता रहा
मैंने पाया तेरे जल्वए-नूर को हर जगह
या खुदा !
मैं तेरी दस्तगीरी का मुहताज हूँ
पहले भी मैंने मांगी थी तेरी मदद
आज भी मांगता हूँ
के गंजे-गरांमाया से भी कहीं ज़्यादा है
तेरी इमदाद का वज़न मेरे लिए
ला-शरीक और यकता समझता हूँ मैं
दिल की गहराइयों से तुझे
मेरा ईमान ही एक ऐसा ज़खीरा है
जिसकी बदौलत मैं हँसते हुए
सामना करता आया हूँ खतरात का
तेरी खुशनूदियों की जिया से हैं रौशन
मेरे रास्ते.
इस से पहले के मैं और कुछ
अपने हालात का ज़िक्र तुझ से करूं
अपने कम-इल्म होने का इक़रार करते हुए
पूछना चाहता हूँ के मुझको
कहाँ और कब और क्यों तूने पैदा किया ?
क्यों मेरा ज़हन परवाज़ करता है उन वादियों में
के जिनसे मैं वाकिफ नहीं ?
क्यों मेरे क़ल्ब में ऐसी चिंगारियां जाग उठती हैं
जिनको तेरे नूर के रौज़नों का
तबस्सुम समझता हूँ मैं ?
या खुदा !
अपने एहसास को क्या करूं ?
मुझको महसूस होता है
ख़ुद अपनी आंखों से देखा है मैंने
के मैं -
ला-मकाँ सरहदों में कभी
पायए-अर्श की कील था
मुझको जड़कर बहोत खुश हुए थे मलक
क्योंकि मैं उनकी हर ज़र्ब को
तेरा अतिया समझकर
तेरा शुक्र हर लह्ज़ा करता रहा
मैंने देखा के जब तूने आदम के पुतले को
सर ता क़दम शाहकार अपनी तख्लीक का पाया
तू खुश हुआ
तूने रूहे-मुक़द्दस को अपनी कुछ इस तरह फूँका
के आदम ने जिसमे-बशर की हरारत को
साँसों में महसूस करके,
तेरी हम्द की
इस हरारत का इरफ़ान जिन्नो-मलक को ज़रा भी न था
फिरभी तामील में तेरे हुक्मे-मुक़द्दस की
सारे मलक सर-ब-सज्दा हुए
एक इबलीस था जिसको इनकार था मैं तेरी रूह का लम्स पाकर
शरारे कहीं क़ल्ब में अपने महसूस करने लगा
मेरी ये कैफ़ियत देखकर
तूने मुझको मुहब्बत से
आदम की प्यालीनुमा नाफ़ में रख दिया
मैं निगाहों में इबलीस की चुभ गया.
या खुदा !
ये ज़मीं तेरी, जिस से मैं अब खूब मानूस हूँ
इस से उस वक्त वाकिफ़ न था
जब मैं आदम के हमराह आया था इसपर तेरे अर्श से.
तूने फ़रमाया कुरआन में
तूने लोहे को पैदा किया
मेरा एहसास कहता है मुझसे, के मैं ही वो लोहा था
जिसको ज़मीं पर उतारा गया.
मुझको आदम ने
तेरी रज़ा की लताफत के अर्के-गुलअन्दाम से
पहले पिघलाया
फिर खुशबुओं के इकहरे बदन में
इनायत को याद करके तेरी
जज़्ब कुछ इस तरह कर दिया
मैं फ़क़त खुशबुओं का जहाँ रह गया
मैंने देखा के आदम की औलाद ने
एक की दूसरे पर फज़ीलत गवारा न की
खूने-नाहक बहा
और बातिल के जुल्मों का
एक सिलसिला सा शरू हो गया .

मेरे दामन पे औलादे आदम के खूं का
पडा दाग़ ऐसा
मेरी इत्र-बेज़ी सिमट सी गई
शायद औलादे-आदम को मेरी ज़रूरत न थी
मैं भटकता रहा मुद्दतों
और फिर मैंने देखा तेरे नूह को
उनकी कज-फ़ह्म उम्मत ने
तब्लीगे-हक़ का सिला यूं दिया
याद करके तुझे
वो बद-अक़ली पे उम्मत की रोते रहे
उनमें जुल्मो-तशद्दुद को
बर्दाश्त करने की कूव्वत न थी
नौहए-नूह तुझ को पसंद आ गया इस क़दर
शिक्वए-नूह पर तेरी क़ह्हारियत जाग उठी
तूने ये फैसला कर लिया
उम्मते-नूह गर्क़ाब हो
हुक्म पाकर तेरा एक कश्ती बनायी गई
जिसपे कुछ जान्दारों के जोडों के हमराह
जब, खुशबुओं के ज़खीरे को रक्खा गया
आफ़ियत मैंने महसूस की
आसमानों ज़मीनों से उठाती हुई
तेज़ मौजों में सैलाब की
मेरे दामन पे औलादे-आदम ने जो
खूने-नाहक़ का एक दाग़ था रख दिया
सब-का-सब धुल गया
सज्दए शुक्र मैंने किया
सामने मेरी आंखों के गर्क़ाब होता रहा एक जहाँ.
तेरी तौहीद की सुत्वतों ने मेरे ज़हन पर ज़र्ब की
शमएं रौशन हुईं मेरे इद्राक की
मैंने ख़ुद पर जो डाली नज़र
तू-ही-तू था फ़क़त जलवागर
या खुदा !
मेरे एहसास की खुशबुओं को भटकने न दे
तेरी हम्दो-सना के तक़द्दुस भरे पानियों से
वज़ू करके मैं
तेरी रह्मानियत के मुसल्ले पे
करता रहा हूँ नमाज़ें अदा
हिज्रे-यूसुफ़ में, याकूब की चश्मे-पुर्सोज़ से
जितने आंसू बहे
आतिशे-इश्क का एक पिघला हुआ
सुर्ख लावा थे वो
उनको यक्जा किया मैंने हौज़े-करम में तेरे
ताके मैं उन मुहब्बत भरे आंसुओं में नहाकर
तेरे सामने आ सकूँ
मेरे दिल ने कहा
नूह के आंसुओं में था
उम्मत के जुल्मो-तशद्दुद का शिकवा फ़क़त
उनमें कोई हरारत न थी
जबकि याकूब के आंसुओं में
तेरे जल्वए-हुस्न के हिज्र की
जानलेवा हरारत का तेज़ाब था.
या खुदा !
तेरे महबूब से इश्क करता हूँ मैं
ज़िक्र से उसके बेसाख्ता
भीग जाती हैं आँखें मेरी
भीग जाती हैं सर-ता-क़दम मेरी तन्हाइयां
पा-बरहना, सुलगते हुए रेगज़ारों से होकर
गुज़रता है जज़्बात का कारवाँ
हर तरफ़ गूँजती है सदा
इल्म का शहर कुरआन है
मुस्तफ़ा, मुस्तफ़ा
और उस शहर का बाब है सूरए-फ़ातिहा
मुर्तुज़ा, मुर्तुज़ा
पूरा कुरआन है क़ल्बे-मह्बूबे-हक़
जाने-कुरआन है सूरए फातिहा
जिस से ता-हश्र दुनिया को मिलती रहेगी जिला
मुस्तफ़ा-मुस्तफ़ा, मुर्तुज़ा-मुर्तुज़ा
या खुदा !
मैंने इल्म-किताब और हिकमत को
तेरे नबी से है हासिल किया
मेरे इद्राक में है उसी की ज़िया
काश तू बख्श दे मेरी आवाज़ को
लह्ने-दाऊद का सोज़
मैं अपने विज्दान को
अपनी हर साँस के जौहर-नूर से करके आरास्ता
राग छेडूँ इस अंदाज़ से
बज़्मे-क़ल्बे-बशर में चरागाँ हो
ज़ौके-अमल जाग उठे.
*******



मंगलवार, 27 मई 2008

बग़दादी कवयित्री नाज़िक अल-मलाइका की तीन कविताएं

अनुवाद एवं प्रस्तुति : नासिरा शर्मा
परिचय
नाज़िक अल-मलाइका का जन्म बग़दाद में 1923 में हुआ. बी.ए. की डिग्री 1943 में 'हायर टीचर्स ट्रेनिंग कालेज' बग़दाद के अरबी विभाग से प्राप्त की. उनकी प्रख्यात रचनाओं में 'रात के आशिक', 'चिंगारी और राख,'चाँद पेड़,' 'समुद्र का रंग विशेष उलेख्य हैं. कुवैत विश्वविद्यालय में 1969 से अध्ययन-अध्यापन में व्यस्त नाज़िक की वह कविताएं जो बग़दाद की तबाही पर चार-पाँच दशक पूर्व लिखी गई थीं,उन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे आज का बग़दाद कवयित्री की आँखों के सामने रहा हो. इन कविताओं में निरंतर संघर्ष की जो चिंगारी है, वह साबित करती है कि सम्पूर्ण क्षेत्र में बड़ी शक्तियों का नंगा नाच कब से चल रहा है और आम आदमी नस्ल-दर-नस्ल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में जुटा हुआ है. राजनीतिक पृष्ठभूमि से अलग भी यह कविताएं उस दुःख-दर्द को हम से रूबरू कराती हैं जो हर इंसान के दिल में किसी-न-किसी रूप में मौजूद है और वह जीवन-पर्यंत उससे छुटकारा प्राप्त करने के लिए छटपटाता रहता है.
1, वह कोना
वह है हमारी रातों को दुःख-दर्द देने वाला
उसी ने तो भर दी है जागते रहने की शक्ति
हमारी आंखों के प्यालों में.
हमने उसे पाया बारिश की एक सुबह राह चलते
थपथपाया उसका कंधा
और दे दिया प्यार का एक छोटा सा कोना
जो धड़कता है हमारे दिल में
अब वह नहीं छूटता है या होता है ओझल
एक क्षण को भी हमारी आंखों से
वह पीछा करता रहता है
हर दिशा में हमारा अपने पूरे वजूद के साथ.
काश ! हमने उसे एक बूंद भी न दी होती
उस नीली सुबह में
जो देता है हमारी रातों को दुःख-दर्द
साकी
जिसने भर दी है हमारी आंखों में
जागते रहने की शक्ति.
२. अंततः कहाँ से
कहाँ से आ खड़ा होता है दुःख-दर्द हमारे सामने
अंततः कहाँ से ?
यह सहयात्री है हमारे स्वप्नों का
इसने युगों से दिशा दी है हमारे गीतों को
कल हम इसके साथ चले बल खाती जलतरंगों में
हमने फिर इसे तोडा और बिखेर दिया
झील की लहरों में बिना एक बूंद आंसू टपकाए
और बिना कोई आह भरे.
हमने सोंचा कि हम बच गए
और अब चोट न पहुँचेगी हमें कभी
नैराश्य कभी छीन नहीं पायेगा हमारी मुस्कान.
अब नहीं बोए जायेंगे हमारे गीतों में कड़वे अनुभवों के बीज.
हम तक निश्चय ही पहुँच गया वह सुगन्धित लाल गुलाब
जिसे भेजा है हमारे महबूब ने सात समुद्र पार से
इसे हम किसका संकेत समझें
खुशी का या शांति का ?
मगर यह क्या !यह तो मुरझाया और गिर गया
गर्म प्यासे आंसुओं के साथ
और हमारी उदास उँगलियों को भिगो गया
अपने सुरों से.
हम तुम्हें प्यार करते हैं, ऐ हमारे दुःख दर्द
कहाँ से आ खड़ा होता है दुःख-दर्द हमारे सामने
अंततः कहाँ से ?
यह सहयात्री है हमारे स्वप्नों का
इसने युगों से दिशा दी है हमारे गीतों को
कल हम इसके साथ चले बल खाती तरंगों में
हमारे होंठों पर इस कि प्यास है
जो हमें सींचती है और हमें देती है ज़िंदगी.
3. उदास गीतों में
ऐ हमारे प्यार के दुःख !
पौ फटते ही हमने तुम्हें बनाया अपना हाकिम
और तुम्हारी रुपहली बलिबेदी पर झुका दिया अपना सर
जलाई लोबान और धूप बत्ती
हमने पूजा की तुम्हारी
और गाए गीत बेबिलोनियाई सुरों में
हमने बनाए तुम्हारे मन्दिर
सुगंधों में बसी दीवारों से
और उसके फर्श पर छिड़का जैतून का तेल
ताज़ा शराब और जलते आंसू
अपनी लम्बी-लम्बी रातों में हमने जलाई हैं तुम्हारे लिए
खजूर की शाखें, अपने दुःख और रोटियाँ
बंद होंठों से हमने गीत गए
तुम्हें आवाज़ दी और मन्नतें मांगीं
नशे में चूर बेबीलोन से
खजूर के दरख्त, रोटी, शराब और खिले हुए गुलाब की.
हमने तुम्हारी आंखों के लिए तपस्या की
बलि दी
और हमने गर्म और उपयोगी आंसुओं के मोती चुने
जिस से बनाए सुमिरनी के दाने
आह तुम !जिसके हाथों ने हमें गीत दिए,लय दी
तुम वह आंसू हो जिसने हमें सद्बुद्धि दी
तुम झरना हो चेतना का, परिपक्वता का, उपजाऊपन का
कृपाशीलता का और लाभप्रद आक्रोश का
हमने तुम्हें जिया है अपने स्वप्नों में
अपने उदास गीतों की हर लय में
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शुक्रवार, 23 मई 2008

पसंदीदा शायरी / फैज़ अहमद फैज़ [ FAIZ ]

पाँच नज़्में

[ 1 ] मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैंने समझा था के तू है तो दरखशां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दह्र का झगडा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सेबात
तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाए तो तक़दीर नुगूँ हो जाए
यूं न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाए
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तरीक बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-कमख्वाब में बुनवाये हुए
जा-बजा बिकते हुए कूचाओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथडे हुए खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीब बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की रहत के सिवा
मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
[ 2 ] चन्द रोज़ और मेरी जान
चन्द रोज़ और मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पे मजबूर हूँ मैं
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पे ज़ंजीरें हैं
फ़िक्र महबूस है गुफ्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है के हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पेवंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र, के फ़र्याद के दिन थोड़े हैं
अर्साए-दह्र की झुलसी हुई वीरानी में
हम को रहना है, पे यूं ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों का बे नाम गरांबार सितम
आज सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो-रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चांदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प, जिस्म की मायूस पुकार
चन्द रोज़ और मेरी जान फ़क़त चन्द ही रोज़
[ 3 ] तन्हाई
फिर कोई आया, दिले-ज़ार, नहीं , कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खडाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चराग़
सो गई रास्ता तक-तक के हरेक राह गुज़ार
अजनबी ख़ाक ने धुन्दला दिए कदमों के सुराग़
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मयोमीना के अयाग़
अपने बे-ख्वाब किवाडों को मुक्फ्फल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा
[ 4 ] बोल ...
बोल, के लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुत्वां जिस्म है तेरा
बोल, के जाँ अब तक तेरी है
देख, के आहन गर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने
फैला हरेक ज़ंजीर का दामन
बोल, ये थोड़ा वक्त बहोत है
जिस्मो-ज़बां की मौत से पहले
बोल, के सच ज़िंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले
[ 5 ] सुब्हे-आज़ादी ( अगस्त 1947 )
ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सेहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सेहर तो नहीं
ये वो सेहर तो नहीं जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार के मिल जायगी कहीं-न-कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त-मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफीनए गमे-दिल
जवां लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयारे-हुस्न की बेसब्र ख्वाबगाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहोत अज़ीज़ थी लेकिन रूखे-सेहर की लगन
बहोत क़रीं था हसीनाने-नूर का दामन
सुबुक-सुबुक थी तमन्ना, दबी-दबी थी थकन
सुना है हो भी चुका है फिराके-ज़ुल्मतो-नूर
सुना है, हो भी चुका है विसाले-मंजिलो-गाम
बदल चुका है बहोत अहले-दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलालो-अज़ाबे-हिज्र-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारए-हिजरां का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगारे-सबा, किधर को गई
अभी चरागे-सरे-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानिए शब में कमी नहीं आई
निजाते-दीदाओ-दिल की घडी नहीं आई
चले चलो के वो मंज़िल अभी नहीं आई
***********************

पसंदीदा शायरी / जज्बी [JAZBI]

परिचय
मोईन अहसन जज्बी (1921-2005) उर्दू के एक श्रेष्ठ लोकप्रिय कवि थे.अलीगढ मुस्लिम विश्व्विद्याय के उर्दू विभाग में लंबे समय तक अध्यापन से जुड़े रहे. रीडर पद से सेवामुक्त हुए. जीवन के अंत तक प्रगतिशील लेखक संगठन से उनकी गहरी आस्था बनी रही. उनकी मौत शीर्षक नज्म और विभिन्न गजलों के ढेर सारे अशआर आज भी उर्दू प्रेमियों को कंठस्थ हैं. यहाँ उनकी चार लोकप्रिय ग़ज़लें प्रस्तुत की जा रही हैं.

चार ग़ज़लें
[ 1]
हम दह्र के इस वीराने में, जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़बां में कहते हैं, आहों में इशारा करते हैं
क्या तुझको पता, क्या तुझको ख़बर, दिन-रात ख़यालों में अपने
ऐ काकुले-गेती हम तुझको , जिस तरह संवारा करते हैं
ऐ मौजे-बला उनको भी ज़रा, दो-चार थपेडे हलके से
कुछ लोग अभी तक साहिल से, तूफाँ का नज़ारा करते हैं
क्या जानिए कब ये पाप कटे, क्या जानिए कब वो दिन आए
जिस दिन के लिए हम ऐ जज्बी, क्या कुछ न गवारा करते हैं
[ 2 ]
मरने की दुआएं क्यों मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे
ये दुनिया हो या वो दुनिया, अब ख्वाहिशे-दुनिया कौन करे
जब कश्ती साबितो-सालिम थी, साहिल की तमन्ना किसको थी
अब ऐसी शिकस्ता कश्ती पर, साहिल की तमन्ना कौन करे
जो आग लगाई थी तुमने, उसको तो बुझाया अश्कों ने
जो अश्कों ने भड़काई है, उस आग को ठंडा कौन करे
दुनिया ने हमें छोड़ा जज्बी, हम छोड़ न दें क्यों दुनिया को
दुनिया को समझ कर बैठे हैं, अब दुनिया दुनिया कौन करे
[ 3 ]
ऐश से क्यों खुश हुए, क्यों ग़म से घबराया किए
ज़िंदगी क्या जाने क्या थी, और क्या समझा किए
नालए बेताब लब तक आते-आते, रह गया
जाने क्या शर्मीली नज़रों से वो फरमाया किए
इश्क की मासूमियों का ये भी एक अंदाज़ था
हम निगाहे-लुत्फे-जानाँ से भी शरमाया किए
नाखुदा बेखुद, फिजा खामोश, साकित मौजे-आब
और हम साहिल से थोडी दूर पर डूबा किए
मुख्तसर ये है हमारी दास्ताने-ज़िंदगी
इक सुकूने-दिल की खातिर उम्र भर तड़पा किए
काट दी यूं हमने जज्बी राहे-मंज़िल काट दी
गिर पड़े हर गाम पर हर गाम पर संभला किए
[ 4 ]
ज़िंदगी अब ज़िंदगी की दास्तानों में नहीं
बिजलियों का सोज़ शायद आशियानों में नहीं
जिस को कहते हैं मुहब्बत जिसको कहते हैं खुलूस
झोंपडों में हो तो हो पुख्ता मकानों में नहीं
खूँ-चकां आंखों पे धोका है खुमारे-इश्क का
हैफ ऐ साकी के तू भी राज़दानों में नहीं
ठह्र तो मुतरिब ! वो आई इक सदाए-दर्दनाक
आह मुतरिब, कुछ मज़ा अब तेरी तानों में नहीं
ज़िंदगी गो लाख बन जाए तबस्सुम-आफ्रीं
ज़िंदगी लेकिन तबस्सुम के फ़सानों में नहीं
यूं भी सुनता हूँ तराने ग़म के बज्मे-अश्क में
जैसे कोई बात ही ग़म के तरानों में नहीं
अब कहाँ मैं ढूँढने जाऊं सुकूँ को ऐ खुदा
इन ज़मीनों में नहीं इन आसमानों में नहीं
वो गुलामी का लहू जो था रगे-अस्लाफ़ में
शुक्र है जज्बी के अब हम नौजवानों में नहीं
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