बुधवार, 31 दिसंबर 2008

इष्ट देवों को बिठाकर स्वर्ण सिंहासन पे आज.

इष्ट देवों को बिठाकर स्वर्ण सिंहासन पे आज.
करते हैं श्रद्धा प्रर्दशित लोग काले धन पे आज.
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कल्पनाओं से परे हैं राजनीतिक दाव-पेच,
बनती है सरकार उल्टे-सीधे गठबंधन पे आज.
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बाहु-बलियों के ही बूते पर खड़े हैं जो प्रदेश,
किस तरह इठला रहे हैं अपने अनुशासन पे आज.
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जन्म-दिन शासक का निश्चय ही मनेगा धूम से,
मैं भी कितना मूर्ख हूँ हँसता हूँ इस बचपन पे आज.
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इस व्यवस्था को बदलना हो गया है लाज़मी,
टिक गई है दृष्टि संभावित से परिवर्तन पे आज.
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दोष आरोपित किसी पर करने से क्या लाभ है,
बल कोई देता नहीं किरदार के नियमन पे आज.
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राजनेताओं के वक्तव्यों से जनता क्षुब्ध है,
रोक लगनी चाहिए शब्दों के इस वाहन पे आज.
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मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.

लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.
कौन आयेगा पीड़ित जनों में.
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राजनीतिक नहीं उसकी चिंता,
उसका चिंतन है कब बंधनों में.
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कक्ष से अपने बाहर निकलिए,
रोशनी है खुले आंगनों में.
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पेंग झूले की, कजरी की धुन हो,
रंग भर जायेगा सावनों में.
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आजके अंगदों पर भरोसा,
भूलकर भी न रखिये मनों में.
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ज़िन्दगी से अपरिचित रहे हैं,
खो गए हैं जो सुख-साधनों में.
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घन-गरज जितनी भी चाहें कर लें,
वृष्टि-जल कब है काले घनों में.
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देख लीजे हैं कितने सुखी हम,
बेकली है भरी दामनों में.
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हो गए और भी लोग हलके,
जब वज़न आ गया वेतनों में.
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फूल खिलते नहीं पहले जैसे,
खुशबुएँ अब नहीं उपवनों में.
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क़ौल का जिस शख्स के मुत्लक़ भरोसा ही न हो.

क़ौल का जिस शख्स के मुत्लक़ भरोसा ही न हो.
है यही बेहतर कि उस से कोई रिश्ता ही न हो.
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किस क़दर जाँसोज़ो-हैरत-खेज़ था वो हादसा,
उसने इस पहलू से मुमकिन है कि सोचा ही न हो.
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वो हक़ाइक़ को नज़र-अंदाज़ करता आया है,
मुझको शक है साजिशों में हाथ उसका ही न हो.
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हमने सारा जाल ख़ुद से बुन लिया, कहता है वो,
क्या करे, जब बात उसकी कोई सुनता ही न हो.
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कर चुका है अपनी गैरत का वो सौदा बारहा,
मुझको अंदेशा है आइन्दा भी ऐसा ही न हो.
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कुछ कहीं एहसास उसको ज़ुल्म का होगा ज़रूर,
वरना क्यों वो चाहता है इसका चर्चा ही न हो.
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धूप थोड़ी सी जो मिल जाती तो कट जाता ये दिन,
आज मुमकिन है कि सूरज घर से निकला ही न हो.
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ये भी हो सकता है मेरी ही ग़लत हो याद-दाश्त,
उसके मेरे दरमियाँ मिलने का वादा ही न हो.
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कौल = वचन. मुत्लक़ = तनिक भी. जाँसोज़ = प्राणों को जलाने वाला. हैरत-खेज़ =आश्चर्यजनक. हक़ाइक़ = वास्तविकता. नज़र-अंदाज़ = तिरस्कृत. साज़िश = षड़यंत्र. गैरत = स्वाभिमान.

सोमवार, 29 दिसंबर 2008

ये खलिश कैसी है क्यों क़ल्ब तड़पता सा लगे.

ये खलिश कैसी है क्यों क़ल्ब तड़पता सा लगे.
सामने बैठा हुआ शख्स कुछ अपना सा लगे.
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जानता हूँ मैं कभी उससे कहीं भी न मिला,
बात फिर क्या है वो बेहद मुझे देखा सा लगे.
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सबको इस गर्दिशे-दौराँ ने किया है आजिज़,
राग वो छेड़ो जो हर एक को अच्छा सा लगे.
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मेरा हमसाया है, अब छोडो उसे माफ़ करो,
गुस्सा करते हुए भी, मुझको वो बच्चा सा लगे.
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वार करता है कुछ ऐसा कि पता तक न चले,
ज़ख्म लेकिन कहीं बेसाख्ता गहरा सा लगे.
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सबको मालूम है मासूम-तबीअत वो नहीं,
फिर भी जब सामने आए तो फ़रिश्ता सा लगे.
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ख़त्म हो जाए अगर खून के रिश्तों का लगाव,
क्यों न फिर सारा जहाँ एक ही कुनबा सा लगे.
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खलिश = चुभन, क़ल्ब = ह्रदय, शख्स = व्यक्ति, गर्दिशे-दौराँ = समय का चक्कर, आजिज़ = क्षुब्ध, हमसाया = पड़ोसी, बेसाख्ता = अनायास, मासूम-तबीअत = अबोध, भोला-भाला, कुनबा =परिवार.

रविवार, 28 दिसंबर 2008

वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा,

वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा, मैं समंदर से गहराइयां मांग लूँ. / क़ल्ब की वुसअतें, ज़ह्ने-संजीदा की सब-की-सब मोतबर खूबियाँ मांग लूँ.
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चाँद हो जाए मुझपर जो कुछ मेहरबाँ, पहले तो उससे घुल-मिल के बातें करूँ. / और फिर एक साइल के अंदाज़ में, उसकी ठंडक का उससे जहाँ मांग लूँ.
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देखता हूँ परिंदों को उड़ते हुए, आसमानों की नीली फ़िज़ाओं में जब, / जी में आता है परवाज़ मैं भी करूँ, क्यों न उनसे ये फ़न, ये समाँ मांग लूँ.
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ज़िन्दगी का ज़रा भी भरोसा नहीं, जाने किस वक़्त कह दे मुझे अलविदा, / खालिके-कुल को रहमान कहता हूँ मैं, दे अगर ज़ीस्ते-जाविदाँ मांग लूँ.
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इन बहारों में कोई भी लज्ज़त नही, मौसमे गुल की मुझको ज़रूरत नहीं, / मेरी तनहाइयों का तक़ाज़ा है ये, क्यों न मैं फिर से दौरे-खिज़ाँ मांग लूँ.
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क्यों है माहौले-जंगो-जदल हर तरफ़, कैसी बारूद की बू है ज़र्रात में, / बाहमी-अम्न की सूरतें हों जहाँ, चलके थोडी सी मैं भी अमां मांग लूँ.
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इल्तिजा = निवेदन, क़ल्ब = ह्रदय, वुसअतें = फैलाव, विस्तार, ज़हने-संजीदा = गंभीर मस्तिष्क, मोतबर = विश्वसनीय, साइल =याचक, परवाज़ = उड़ान, फ़न = कला, समाँ = दृश्य, अल-विदा = बिदा, खालिके-कुल = स्रष्टा, रहमान = कृपाशील, जीस्ते-जाविदाँ = अमरत्व, लज़्ज़त = स्वाद, दौरे-खिजां = पतझड़ का मौसम, माहौले-जंगो-जदल = यूद्ध का वातावरण, ज़र्रात =कण, बाहमी अम्न = पारस्परिक शान्ति, अमां = शान्ति।

धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग क्या कीजिये.

धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग, क्या कीजिये.
सबकी अपनी-अपनी कुंठा है अलग, क्या कीजिये.
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यह असंभव है कि हम पहुंचें किसी निष्कर्ष पर,
मेरा, उसका, सबका मुद्दा है अलग, क्या कीजिये.
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वो किसी के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता कभी,
अपनी धुन में मस्त, चलता है अलग, क्या कीजिये.
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एक ही परिवार में रहते हैं यूँ तो साथ-साथ,
फिर भी हर भाई का चूल्हा है अलग, क्या कीजिये.
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मैं समझता हूँ कि जनता की अदालत है ग़ज़ल,
फ़ैसलों का सबके लह्जा है अलग, क्या कीजिये.
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सुनने में अच्छी बहुत लगती है ये समता की बात,
किंतु सबकी अपनी प्रतिभा है अलग, क्या कीजिये.
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उसके हिस्से में कभी सुख-चैन आया ही नहीं,
उसकी पीडाओं का किस्सा है अलग, क्या कीजिये.
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सब के अपने-अपने सच हैं, अपनी-अपनी है समझ,
एक ही सच सबको लगता है अलग, क्या कीजिये.
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मेरे अंतस में ही ‘काबा’ है, कहाँ जाऊँगा मैं,
मेरा हज, मेरी तपस्या है अलग, क्या कीजिये.
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राष्ट्रवादी कोण से करते हैं विश्लेषण सभी,
आपकी मेरी परीक्षा है अलग, क्या कीजिये.
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शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कुछ उथल-पुथल भरी सभी की बात है.

कुछ उथल-पुथल भरी सभी की बात है.
हर तरफ़ ये कैसी खलबली की बात है.
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मैं अकेला जा रहा था सूनी राह पर,
तुम भी साथ आ गए खुशी की बात है.
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अपने-अपने आसमान सब ने चुन लिए,
मैं हूँ चुप, क्षितिज से दोस्ती की बात है.
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सोचता हूँ जाके मैं वहाँ करूँगा क्या,
मयकदों में सिर्फ़ मयकशी की बात है.
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सामने मेरे जलाये जा रहे थे घर,
और मैं विवश था आज ही की बात है.
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उन कबूतरों के पर कतर दिए गए.
जिनकी हर उड़ान ज़िन्दगी की बात है.
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सब हैं संतुलित समय के संयमन के साथ,
मेरी दृष्टि में तो ये हँसी की बात है.
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राष्ट्रवाद में दिमाग़ के हैं पेचो-ख़म,

देश-भक्ति दिल की रोशनी की बात है.

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गुनगुनी धूप के नर्म स्पर्श से,

* गुनगुनी धूप के नर्म स्पर्श से, ज़िन्दगी गुनगुनाती सी लगने लगे. / ऐसे में तुम भी आकर जो बैठो यहाँ, मौत भी मुझको अच्छी सी लगने लगे.
* तुमने देखा अभी चाँद ने क्या कहा, रात के पास कोई अमावस नहीं, / अपने मन में जलाते रहो कुछ दिए, रोशनी फिर बरसती सी लगने लगे.
* जुगनुओं की चमक ने जो चौंका दिया, बचपना मेरा कुछ लौटता सा लगा, / सोचा उनको पकड़कर मैं रख लूँ अगर, जेब मेरी रुपहली सी लगने लगे.
* लोग कहते हैं ये मेरा ही गाँव है, मुझको लोगों का विशवास होता नहीं, / जब भी आता हूँ मैं गाँव के मोड़ पर, अजनबीपन की सरदी सी लगने लगे.
* झाँक कर मेरे मन में तो देखो कभी, अश्रु का एक सैलाब पाओगे तुम, / बस मैं डरता हूँ ऐसा न हो हादसा, तुमको साँस अपनी डूबी सी लगने लगे।
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शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

ये है बाजारवादी तंत्र, जादू इसका गहरा है.

ये है बाजारवादी तंत्र, जादू इसका गहरा है.
ये भीतर जो भी हो, बाहर सुनहरा ही सुनहरा है.
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चला जाता है बस अपनी ही धुन में होके बे-पर्वा,
किसी की कुछ नहीं सुनता, समय कानों से बहरा है.
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हमारी कोरी भावुकता, हमें कुछ दे न पायेगी,
हमारी राह में कुछ दूर तक जंगल हैं, सहरा है.
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मुहब्बत के किले में क़ैद करके मुझको वो खुश है,
जिधर भी देखता हूँ उसकी ही यादों का पहरा है.
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हमारा उसका समझौता,किसी सूरत नहीं होगा,
कभी वो बात कोई मानकर कब उसपे ठहरा है.
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किसी पल भी मुकर जायेगा क्या विशवास है उसका.

किसी पल भी मुकर जायेगा क्या विशवास है उसका.
यही करता रहा है, ऐसा ही इतिहास है उसका.
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कभी जो अपना घर अनुशासनों में रख नहीं पाया,
वो कैसे बरतेगा हमसे, हमें आभास है उसका.
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उसे प्रारम्भ से आतंक में जीने की आदत है,
वही दुख-दर्द है उसका, वही उल्लास है उसका.
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हमें उससे जो सच पूछो तो बस इतनी शिकायत है.
किया है उसने जो कुछ भी, कोई एहसास है उसका.
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मैं हूँ आश्वस्त भी, निश्चिंत भी कल की नहीं पर्वा,
मुक़द्दर वेदना, पीड़ा, घुटन, संत्रास है उसका.
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चलो, उससे ही चलकर पूछते हैं, क्या इरादा है,
ये तैयारी है कैसी, कोई मकसद ख़ास है उसका.
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वो जो बातें भी करता है, कभी सीधी नहीं करता,
वो जो वक्तव्य देता है, स्वयं परिहास है उसका.
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उसीके हक में अच्छा है कि मिल-जुल कर रहे हमसे,
न पतझड़ है हमारा और न मधुमास है उसका,
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