आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.
जिस्म की आग जला पाती है कब गर्दो-गुबार.
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आजकल कैसी फ़िज़ा है कि सभी की बातें,
इस तरह की हैं कि है उनके सबब गर्दो-गुबार.
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कोई चेहरा नहीं ऐसा जो नज़र आता हो साफ़,
सब पे है एक अजब गौर-तलब गर्दो-गुबार.
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मैं अभी कुछ न कहूँगा कि सभी हैं गुमराह,
पास आना मेरे छंट जाए ये जब गर्दो-गुबार.
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कूचे-कूचे में है अब शेरो-सुखन की महफ़िल,
हर तरफ़ आज उडाता है अदब गर्दो-गुबार.
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कूड़े-करकट पे खड़ी है ये तअस्सुब-नज़री,
ले के जायेंगे कहाँ लोग ये सब गर्दो-गुबार.
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कोई तदबीर करो, कुछ तो हवा ताज़ा मिले,
रोक लो, फैलने दो और न अब गर्दो-गुबार.
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मंगलवार, 25 नवंबर 2008
आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.
सोमवार, 24 नवंबर 2008
आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म / तनवीर सप्रा
शायद इसी सूरत में सुकूँ पाये मेरा जिस्म.
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आगोश में लेकर मुझे इस ज़ोर से भींचो,
शीशे की तरह छान से चिटख जाए मेरा जिस्म.
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किस शहरे-तिलिस्मात में ले आया तखैयुल,
जिस सिम्त नज़र जाए, नज़र आए मेरा जिस्म.
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या दावए-महताबे-तजल्ली न करे वो,
या नूर की किरनों से वो नहलाये मेरा जिस्म.
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आईने की सूरत हैं मेरी ज़ात के दो रूख़,
जाँ महवे-फुगाँ है तो ग़ज़ल गाये मेरा जिस्म.
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ये वह्म है मुझको कि बालाओं में घिरा हूँ,
हर गाम जकड लेते हैं कुछ साए मेरा जिस्म.
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हरफ़े-मादूम
एक खामोशी हूँ, आवाज़ नहीं,
अपने पिंजरे में लिए जागती साँसों का हुजूम
क़ैद मुद्दत से हूँ मैं.
क्योंकि अब मुझ में बची कूवते-परवाज़ नहीं.
दर्द अपना मैं कहूँ किस से
सुनाऊं किसे अफ़्सानए-दिल,
कोई हमराज़ नहीं.
ये वो अफसाना है
जिसका कोई अंजाम या आगाज़ नहीं.
बात फैलेगी
उडायेंगे सभी मेरा मजाक.
क्योंकि अफसाना मेरा सबकी कहानी होगा,
रंग अफ़साने का धानी होगा,
ज़ह्र-ही-ज़ह्र भरा होगा रवां इसमे जो पानी होगा,
सबकी नज़रों में ये अफ़साना
फ़क़त दुश्मने-जानी होगा.
सबके हक में यही बेहतर है मैं खामोश रहूँ,
पिंजरे में क़ैद रहे साथ मेरे
मेरी साँसों का हुजूम.
लोग समझें मुझे हरफ़े-मादूम.
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हरफ़े-मादूम=विनष्ट अक्षर
कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.
कुछ तहरीरें पढ़ कर ऐसा होता है आभास.
कहीं खिसकता जाता है इस धरती से विशवास.
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जाने कैसी विपदाओं को झेल रहे हैं लोग,
सुबहें मलिन-मलिन सी शामें बोझिल और उदास.
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कितने टुकड़े और अभी होने हैं पता नहीं,
पढता है मस्तिष्क हमारे मौन-मौन इतिहास.
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चेहरों पर अंकित है सबके एक इबारत साफ़,
सब बेचैन हैं शायद लेकर अपनी-अपनी प्यास.
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खो बैठा है हर कोई अपने मन का स्थैर्य,
पथरीले आँगन में जैसे उग आई हो घास.
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क्यों कबूतरों ने मुंडेर पर आना छोड़ दिया,
क्या विलुप्त हो गया कहीं अपनेपन का अहसास.
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रविवार, 23 नवंबर 2008
अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.
अब वो हँसी-मज़ाक़, वो शिकवे-गिले नहीं.
आपस की बात-चीत के भी सिलसिले नहीं.
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कैसी थीं आंधियां जो चमन को कुचल गयीं.
कितने थे बदनसीब जो गुनचे खिले नहीं.
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कैसे तअल्लुकात हैं, जो हैं नुमाइशी,
कैसी ये दोस्ती है कि दिल तक मिले नहीं.
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साजिश है, नफ़रतें हैं,शरारत है, बुग्ज़ है,
मज़हब वो क्या कि जिसके सियासी क़िले नहीं.
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मंज़िल की सिम्त हों जो रवां मिल के साथ-साथ,
शायद हमारे बीच वो अब क़ाफ़िले नहीं.
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बाक़ी हैं ऐसे शहरों में कुछ तो मुहब्बतें,
जिन में अभी मकान कई मंजिले नहीं.
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जो चाहें आप कहिये, मगर ये रहे ख़याल,
खामोश हम जरूर हैं, लब हैं सिले नहीं.
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इन्सां पुर-अज़्म हो तो है मुमकिन हरेक बात,
ये वो सुतून है जो हिलाए हिले नहीं.
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शिकवे-गिले=शिकायतें, सिलसिले=तारतम्य, बदनसीब=दुर्भाग्यशाली, गुंचे=कलियाँ, तअल्लुकात=सम्बन्ध, नुमाइशी=दिखावटी, साजिश= षड़यंत्र, बुग्ज़=द्वेष, सियासी=राजनीतिक, काफिले=कारवां,पुर-अज़्म= संकल्प-युक्त, मुमकिन=सम्भव, सुतून=खम्भा.
शनिवार, 22 नवंबर 2008
कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.
कहीं अन्तर में कर्वट लेते परिवर्तन को पढ़ती हैं.
ये तूफानी हवाएं मौसमों के मन को पढ़ती हैं.
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हवेली से उतर कर धूप की कुछ टोलियाँ अक्सर,
गरीबों के भी मिटटी वाले घर आँगन को पढ़ती हैं.
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फटे कपडों में उपले पाथती वो सांवली लड़की,
निगाहें उसकी ठोकर खाते अल्ल्हड़पन को पढ़ती हैं.
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जो गीली लकडियाँ मिटटी के चूल्हे में सुलगती हैं,
कभी ख़ुद को, कभी दम तोड़ते ईंधन को पढ़ती हैं.
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उन्हें कुछ भी नहीं मालूम कहते हैं किसे बचपन,
वो चक्की और जाँते में उसी बचपन को पढ़ती हैं.
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शहर से आ के भी, बेचैन हैं, वैधव्य की खबरें,
कभी बिंदिया, कभी चूड़ी, कभी कंगन को पढ़ती हैं.
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ये पीपल पर पड़े झूलों की पेंगें साथ गीतों के,
हवाओं में नशे में झूमते सावन को पढ़ती हैं.
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शुक्रवार, 21 नवंबर 2008
समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
समंदर की हवाएं अब तरो-ताज़ा नहीं करतीं.
कि हंसों की रुपहली जोडियाँ आया नहीं करतीं.
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सितारे आसमानों से उतरते अब नहीं शायद,
ज़मीनें ख्वाब उनके साथ अब बांटा नहीं करतीं.
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घरों के आंगनों में चाँदनी तनहा टहलती है,
कि दोशीज़ाएं उससे हाले-दिल पूछा नहीं करतीं.
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किताबें दो दिलों की दास्तानें तो सुनाती हैं,
मगर बेचैनियों का दर्द समझाया नहीं करतीं.
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कुदालें, फावडे, हल-बैल, हँसिया सब हैं ला-यानी,
हमारी नस्लें अब इनकी तरफ़ देखा नहीं करतीं.
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नहीं बेजानो-बेहरकत कोई सोने की चिड़िया हम,
जभी चालाक कौमें अब हमें लूटा नहीं करतीं.
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मैं ख़ुद को कैसे समझाऊं कि मैं यादों का कैदी हूँ,
मैं कैसे कह दूँ यादें ज़ख्म को गहरा नहीं करतीं.
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दरीचों से भी होकर अब कोई खुशबू नहीं आती,
हुई मुद्दत, ये ठंडी रातें गरमाया नहीं करतीं.
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क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.
क्यों इस देश की मिटटी को चंदन का नाम न दें.
अमर शहीदों के सपनों को क्या अंजाम न दें ?
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सम्भव हो तो बाँट दें सबमें स्वर्णिम नवल प्रभात,
और किसी को ढलता दिन, कजलाई शाम न दें.
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हम वह नेता नहीं जो अपने सुख में जीते हैं,
चने बांटते फिरें, किसी को भी बादाम न दें.
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बंधुआ मजदूरों सा बरतें इस सरकार के लोग,
काम तो दुनिया भर का लें कोई इनआम न दें.
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होरी, धनियाँ, घीसू, माधव, हल्कू जैसे लोग,
लू, ठिठुरन, बदहाली झेलें, कुछ इल्ज़ाम न दें.
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यह कैसी मधुशाला जिसमें हर कोई प्यासा,
लुढ़काई जाये मदिरा पीने को जाम न दें.
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गुरुवार, 20 नवंबर 2008
जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.
जुगनुओं सी चमकीली, छोटी-छोटी इच्छाएं.
वह भी कब हुईं पूरी, आयीं ऐसी बाधाएं.
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गाँव की नदी मुझसे, पूछती थी घर मेरा,
मैं न कुछ बता पाया, जाने क्या थीं शंकाएं.
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अबके पाला पड़ने से, नष्ट हो गया सब कुछ,
अब अनाज के बदले, घर में हैं निराशाएं.
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उसने मुझसे पनघट पर, मेरा नाम पूछा था,
मैं जो थोड़ा घबराया, हंस पड़ी थीं बालाएं.
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दूर तक थीं खेतों में, धान की पकी फ़सलें,
यंत्रवत चलाती थीं, यौवनाएं हंसियाएं.
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मेरा नाम ले-ले कर, छेड़ते थे सब उसको,
उसको भी सुहाती थीं, रस भरी ये बर्खाएं.
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आज भी ये पगडण्डी, उसकी बाट तकती है,
जाने किस घड़ी, किस पल,सुख के लम्हे लौट आएं.
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रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
मुज़महिल हुईं यादें, और तुम नहीं आये.
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उसके मांग की अफ़्शां, चाँद की हथेली पर,
रख के सो गयीं किरनें, और तुम नहीं आये.
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ख़त तुम्हारे पढ़-पढ़ कर, चाँदनी भी रोई थी,
नम थीं रात की पलकें, और तुम नहीं आये.
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धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
कोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
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टुकड़े-टुकड़े हो-हो कर, चुभ रही थीं सीने में,
इंतज़ार की किरचें, और तुम नहीं आये.
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नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
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