शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी.

ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी।
सुनाते शौक़ से मेरे हुनर के क़िस्से सभी।

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किसी से कुछ भी कहो, इसमें हर्ज ही क्या है,
मैं याद रखता हूँ नाहक़ तुम्हारे वादे सभी।

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बलंद उहदों पे हो, जो भी जी में आये, करो,

वहाँ पहोंचके, कहे जाते हैं फ़रिश्ते सभी।

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अब और ठेस न पहोंचाओ ऐसी बातों से,
हमारे सीने के हैं ज़ख्म ताज़े-ताज़े सभी।

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वो कहिये बारिशों ने ये ज़मीन तर कर दी,
क़हत के खौफ से मायूस हो चुके थे सभी।

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दिखा के हौस्लए-ज़ीस्त, उसने रख ली हया,
तुम्हारी नज़रों में शायद गिरे-पड़े थे सभी।

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मेरे ही शेर वो क्यों बार-बार पढता है,
मुझे तो याद नहीं है कि हम मिले थे कभी।
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लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले / इब्राहीम ज़ौक़ [पुरानी शराब]

लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली, चले।

अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले।

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे,

पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले।

हो उमरे- खिज्र भी तो कहेंगे बवक़्ते-मर्ग,

हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।

दुनिया ने किसका राहे-फना में दिया है साथ,

तुम भी चले चलो युंही, जबतक चली चले।

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार,

जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले।

जाते हवाए-शौक़ में हैं इस चमन से 'जोक,'

अपनी बला से बादे-सबा जब कभी चले।

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शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

नावक अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे / मोमिन खां मोमिन [पुरानी शराब]

नावक-अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे।
नीम बिस्मिल कई होंगे, कई बेजाँ होंगे।
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ताबे-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ,
और बन जायेंगे तस्वीर जो हैराँ होंगे।
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तू कहाँ जायेगी कुछ अपना ठिकाना कर ले,
हम तो कल ख्वाबे अदम में शबे-हिज्राँ होंगे।
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फिर बहार आई वही दश्त -नवर्दी होगी,
फिर वही पाँव वही खारे-मुगीलाँ होंगे।
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नासिहा दिल में तू इतना तो समझ अपने कि हम,
लाख नादाँ हुए क्या तुझसे भी नादाँ होंगे।
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एक हम है कि हुए ऐसे पशेमान कि बस,
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे।
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उम्र तो सारी कटी इश्के-बुताँ में'मोमिन,'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे।
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परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.

परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.
परिंदे भी हमारी गुफ्तगू अक्सर समझते थे.
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वो फ़नकारा थी, बांसों पर तनी रस्सी पे चलती थी,
तमाशाई थे हम और उसको पेशा-वर समझते थे.
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शजर को आँधियों की साजिशों का इल्म था शायद,
कि पत्ते तक हवाओं के सभी तेवर समझते थे.
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हकीकत में हमारे जैसा इक इन्सान था वो भी,
मगर अखलाक था ऐसा कि जादूगर समझते थे.
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वो सहरा शह्र की नब्जों में अक्सर साँस लेता था,
हमीं नादाँ थे उसको शह्र के बाहर समझते थे.
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छतें, आँगन दरो-दीवार सब थे खंदा-ज़न हम पर,
हमें हैरत है, हम क्यों उसको अपना घर समझते थे.
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वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भर क्या था / शमीम हनफ़ी

वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भर क्या था।
मुझे ख़ुद अपने बदन में किसी का डर क्या था।
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कोई तमीज़ न की खून की शरारत ने,
इक अबरो-बाद का तूफाँ था, दश्तो-डर क्या था।
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ज़मीन पे कुछ तो मिला चन्द उलझनें ही सही,
कोई न जान सका आसमान पर क्या था।
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मेरे ज़वाल का हर रंग तुझ में शामिल है,
तू आज तक मेरी हालात से बे-ख़बर क्या था।
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अब ऐसी फ़स्ल में शाखों-शजर पे बार न बन,
ये भूल जा कि पसे-सायए शजर क्या था।
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चिटखती, गिरती हुई छत, उजाड़ दरवाज़े,
इक ऐसे घर के सिवा हासिले-सफ़र क्या था।
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गुरुवार, 9 अक्टूबर 2008

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ

मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ.
शऊरे-दर्द से पुर काविशों को देखता हूँ.
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तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देखता हूँ.
हया से दुबकी हुई, दहशतों को देखता हूँ.
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उभर सका न कोई लफ्ज़ जिनपे आकर भी,
मैं थरथराते हुए उन लबों को देखता हूँ.
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दिलों को बाँट दिए और ख़ुद रहीं खामोश,
तअल्लुकात की उन सरहदों को देखता हूँ.
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मैं अपनी यादों की वीरानियों के गोशे में,
पुराने, आंसुओं से पुर खतों को देखता हूँ.
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न आई हिस्से में जिनके ये रोशनी, ये हवा,
चलो मैं चलके कुछ ऐसे घरों को देखता हूँ.
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जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आंख से उन ताक़तों को देखता हूँ।
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मैं बदहवास फ़िज़ाओं की सुर्ख आंखों में,
हुए नहीं हैं जो, उन हादसों को देखता हूँ।
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सुनो! मैं थक गया हूँ / रेहान अहमद

सुनो! मैं थक गया हूँ
मेरी पलकों पे अबतक कुछ अधूरे ख्वाब जलते हैं
मेरी नींदों में तेरे वस्ल के रेशम उलझते हैं,
मेरे आंसू मेरे चेहरे पे तेरे ग़म को लिखते हैं,
मेरे अन्दर कई सदियों के सन्नाटों का डेरा है,
मेरे अल्फाज़ बाहें वा किए मुझको बुलाते हैं,
मगर मैं थक गया हूँ
और मैंने
खामुशी की गोद में सर रख दिया है।

मैं बालों में तुम्हारे
हिज्र की नर्म उंगलियाँ महसूस करता हूँ।
मेरी पलकों पे जलते ख्वाब हैं अब राख की सूरत,
तुम्हारे वस्ल का रेशम भी अब नींदें नहीं बुनता,
मेरी आंखों में जैसे सर्द मौसम का बसेरा है,
मुझे अन्दर के सन्नाटों में गहरी नींद आई है।
सुनो! इस याद से कह दो
मुझे कुछ देर सोने दे।
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हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है

हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है।
भटकता देख कर हमको यही दुनिया समझती है।
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अक़ीदा क्या है, बस इक फ़ैसला है अक़्ले-इन्सां का,
हमारी अक़्ल दिल को खानए-काबा समझती है।
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पहोंचना चाहती है हर कसो-नाकस के हाथों तक,
नदी, पानी से हर इनसान का रिश्ता समझती है।
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मिज़ाजन वो भी मेरी तर्ह हँसता-मुस्कुराता है,
नज़र उश्शाक की उसको न जाने क्या समझती है।
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वो पड़ जाए अगर आंखों में होगा दर्द शिद्दत का,
उसे दुनिया फ़क़त अदना सा इक तिनका समझती है।
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ख़याल उसका है वो हमसे कोई परदा नहीं रखता,
तबीअत उसका हर इज़हारे-पेचीदा समझती है।
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ग़म की बारिश ने भी / मुनीर नियाज़ी

ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं।
तू ने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं।
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नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था,
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं।
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हर तरफ़ दीवारोदर और उनमें आंखों का हुजूम,
कह सके जो दिल की हालात वो लबे-गोया नहीं।
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जुर्म आदम ने किया, और नसले-आदम को सज़ा,
काटता हूँ ज़िन्दगी भर मैंने जो बोया नहीं।
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जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी मुनीर,
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं।
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बुधवार, 8 अक्टूबर 2008

दरीचों की सदा सुनकर भी

दरीचों की सदा सुनकर भी रातें कुछ नहीं कहतीं।
मकाँ खामोश रहता है, फ़सीलें कुछ नहीं कहतीं।

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ज़बां से हादसों का ज़िक्र अब कोई नहीं करता,
मैं कैसे मान लूँ शीशों की किरचें कुछ नहीं कहतीं।

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खमोशी से ये भर जाती हैं आकर अश्क आंखों में,
फ़क़त सन्नाटा कुछ कहता है, यादें कुछ नहीं कहतीं।

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उभरने लगती हैं एक-एक करके कितनी तस्वीरें,
जगा देती हैं ज़हनों को, मिसालें कुछ नहीं कहतीं।

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मैं अक्सर देखता हूँ अधखुली आंखों को सुब्हों की,
शबों में इनपे क्या गुजरी है, सुबहें कुछ नहीं कहतीं।

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ये इन्सां है जो ऐसे हादसों से टूट जाता है,
जो पड़ जाती हैं रिश्तों में वो गिरहें कुछ नहीं कहतीं.
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अंधेरे घोल जाती हैं ये चुपके से फिजाओं में,
किसी के रु-ब-रु मजरूह शामें कुछ नहीं कहतीं.
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