मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

ये क़ाफ़ेला ख़्वाबों का कभी काम न आया

ये क़ाफ़ेला ख़्वाबों का कभी काम न आया।
सरमाया उमीदों का कभी काम न आया॥

अच्छा है के था अपनी ही कोशिश पे भरोसा,
कुछ मशवेरा यारों का कभी काम न आया॥

सूरज की शुआएं मेरे आँगन में न उतरीं,
मंसूबा उजालों का कभी काम न आया॥

लिप्टी थी मेरे जिस्म से यूं गाँव की मिटटी,
शेवा कोई शहरों का कभी काम न आया॥

दौलत की फ़रावानियों के बीच था मुफ़लिस,
अख़लाक़ भी अपनों का कभी काम न आया॥
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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

दबी थीं राख में चिंगारियाँ ख़बर थी किसे

दबी थीं राख में चिंगारियाँ ख़बर थी किसे।
जला्येगी ये ज़मीं आस्माँ ख़बर थी किसे॥

सुख़नवरों में थे गोशानशीन हम भी कहीं,
हमारे दम से थी महफ़िल में जाँ ख़बर थी किसे॥

ख़मीरे इश्क़ भी क़ल्बे-बशर की साख़्त में है,
ये रंग लायेगा होकर जवाँ ख़बर थी किसे॥

हयात में था जिन्हें मेरे नाम से भी गुरेज़,
वो होंगे मौत पे यूं नौहाख़्वाँ ख़बर थी किसे॥

मिला न कुछ भी उसे इतनी साज़िशें कर के,
मैं झेल जाऊंगा ये सख़्तियाँ ख़बर थी किसे॥

हयात क़ब्ज़े में थी मेरे मौत मेरी कनीज़,
वतन था मेरा सुए-लामकाँ ख़बर थी किसे॥
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रविवार, 18 अप्रैल 2010

रात की आँखें बेहद नम थीं

रात की आँखें बेहद नम थीं।
वो भी शायद शामिले-ग़म थीं ॥

सूरज कुछ ज़र्दी माएल था,
किरनों की पेशानियाँ ख़म थीं॥

दरिया की तूफ़ानी लहरें,
तल्ख़िए-साहिल से बरहम थीं॥

सुस्त पड़ी थीं तेज़ हवाएं,
बून्दें बारिश की मद्धम थीं॥

फूल सभी मुरझाए हुए थे,
तितलियां सब मह्वे-मातम थीं॥

ज़ुल्मो-तशद्दुद जाग रहा था,
राहत की उम्मीदें कम थीं॥
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शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

हुआ है कैसा तग़ैयुर हवाएं जानती हैं

हुआ है कैसा तग़ैयुर हवाएं जानती हैं।
शिकस्ता ख़्वाबों की हालत फ़िज़ाएं जानती है॥

ये लड़कियाँ जो बदलती हैं सुबहोशाम लिबास,
ये ज़िन्दा रहने की सारी कलाएं जानती हैं॥

भरम बना रहे पानी का इन ज़मीनों पर,
बरस न पायेंगी हरगिज़ घटाएं जानती हैं॥

वो चान्द दूर से रखता है मुझपे गहरी निगाह,
ये दिल उसीका है उसकी शुआएं जानती हैं॥

तड़पते देखेंगी कैसे जिगर के टुकड़ों को,
जवान बेटों का ग़म क्या है माएं जानती है

ये बात-बात पे इठलाना और बल खाना,
तुम्हारे राज़ तुम्हारी अदाएं जानती हैं
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टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ

टुकड़े-टुकड़े सुबह हुई था होश कहाँ।
दामन में थी आग लगी था होश कहाँ॥

उसके दर पर सज्दा करने आया था,
पेशानी फिर उठ न सकी था होश कहाँ॥

वो आमाल तलब कर बैठा बेमौक़ा,
फ़र्द थी बिल्कुल ही सादी था होश कहाँ॥

दिल के दाग़ नुमायँ हो कर बोल उठे,
बरत न पाया ख़ामोशी था होश कहाँ॥

ज़ख़्मों की तेज़ाबीयत का था एहसास,
चोट थी हल्की या गहरी था होश कहाँ॥
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गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

प्रारंभिक सूफ़ी चिन्तन और हज़रत हसन बसरी [642-728ई0] / प्रो0 शैलेश ज़ैदी

सूफी चिंतन वस्तुतः उस अन्तःकीलित सत्य का उदघाटन है जिसमें जीवात्मा और परमात्मा की अंतरंगता के अनेक रहस्य गुम्फित हैं .सूफियों ने सामान्य रूप से ऐसे रहस्यों का स्रोत नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स०] और हज़रत अली [र०] के व्यक्तित्त्व में निहित उस ज्ञान मंदाकिनी को स्वीकार किया है जिसका परिचय सामान्य व्यक्तियों को नहीं है.किन्तु सूफ़ियों का एक वर्ग ऐसा भी है जो इन रहस्यों को सीधे परमात्मा से प्राप्त करने का पक्षधर है. ऐसे सूफी हज़रत अबूबक्र [र०] और हज़रत उमर [र०] को अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं .नबीश्री के निधन पर मुसलमानों को संबोधित करते हुए हज़रत अबूबक्र [र०] ने कहा था-"तुम में से जो लोग मुहम्मद [स0] की इबादत करते थे वो ये जान लें के मुहम्मद [स0] तो मर गए और तुम में से जो लोग अल्लाह की इबादत करते थे वो जान लें के अल्लाह को कभी मौत नहीं आती."[शेख अबू नस्र अब्दुल्लाह बिन अली अस्सिराज अत्तूसी,किताब अल्लम'अ फित्तसव्वुफ़, लीडेन,1914 0, पृ० 168]

ज़ाहिर है कि हज़रत अबूबक्र [र0] " तुम में से जो लोग मुहम्मद की इबादत करते थे" कहक्रर यह संकेत कर रहे हैं कि कुछ लोग नबीश्री [स0] की मुहब्बत को आधार बनाकर अल्लाह की उपासना करते थे, जिसकी अब आवश्यकता शेष नहीं रही क्योंकि नबीश्री [स0] का निधन हो गया। अब केवल उनके कार्यों का ही अनुकरण संभव है। शेख अबू नस्र सिराज तूसी ने हज़रत अबूबकर [र0] के इस वक्तव्य में तौहीद [अल्लाह को एक मानना] में उनका दृढ विश्वास देखने का प्रयास किया है[अल्लमअ, पृ0 168]

मुस्लिम धर्माचार्यों का विश्वास है कि परम सत्ता तक पहुंचने के दो मार्ग हैं।एक वही [फ़रिश्ते द्वारा प्राप्त ईश्वरीय आदेश] और नबियों की शिक्षा से होकर गुज़रता है और दूसरा आत्मज्ञान [इल्हाम] और औलिया [सिद्ध पुरुषों] की परम सत्तात्मक मनःस्थिति [सिद्धि] का है।[शाह वलीउल्लाह,अत्तफ़हीमातुल-इलाहीया,मदीना प्रेस बिजनौर,1936 0,पृ0 2/28]।शेख़ सिर्री सक़ती की अवधारणा है कि "क़यामत के दिन उम्मतों को उनके नबियों के नाम से पुकारा जायेगा, किन्तु जो परम सत्ता से अनन्य प्रेम करते हैं, उन्हें"ख़ुदा के दोस्तो" कहा जायेगा"[हाफ़िज़ ज़ैनुद्दीन एराक़ी, अहया'अ उलूमुद्दीन, मिस्र 1939 0, पृ0 4/288]। स्पष्ट है कि ऐसे लोग जो हद्दसनी क़ल्बी अन रबी अर्थात मेरे दिल ने मेरे रब की तरफ़ से मुझ से कहा.कहने के पक्ष में हैं, वो नबीश्री की मुहब्बत को इश्क़े-इलाही का आधार नहीं समझते। इब्ने जौज़ी ने ऐसे लोगों को काफ़िर कहा है [तल्बीसे-इब्लीस, क़ाहिरा 1950ई0, पृ0 374]। मुस्लिम धर्माचार्यों के एक वर्ग ने सूफ़ियों में 'क़ुतुब' की उपाधि से याद किये जाने वालों को हज़रत अबूबक्र[र0] का बदल सिद्ध करने का प्रयास किया है। अबूतालिब मक्की इस प्रसंग में लिखते हैं-"सिद्दीक़ और रसूल के बीच केवल नबूवत का अन्तर होता है।इस दृष्टि से क़ुतुब हज़रत अबूबक्र [र0] का बदल होता है [अबूतालिब मक्की,क़ूवतुलक़ुलूब, मिस्र 18840,पृ02/78] किन्तु इस प्रकार के वक्तव्य प्रतिष्ठित सूफ़ियों में लोकप्रिय नहीं हैं

द्रष्टव्य यह है कि लगभग सभी प्रख्यात और प्रतिष्ठित सूफ़ियों ने अपना सिल्सिला हज़रत अली [क] से स्वीकार किया है। सैयद मुज़फ़्फ़र अली शाह [मृ018810] जवाहरे-ग़ैबी में लिखते हैं-"हिन्द, ईरान, तूरान, तुर्किस्तान,बदख़्शाँ, बल्ख़, बुख़ारा,समरक़न्द, ख़ुरासन,इराक़, गीलान, बग़दाद, रूम और अरब के तमाम सूफ़ी अपने ज्ञानार्जन का सिल्सिला हज़रत अली से जोड़ते हैं [जवाहरे-ग़ैबी, नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, 18980, पृ0 709] भारत के प्रसिद्ध चिश्ती और सुहरवर्दी सिल्सिले हज़रत हसन बसरी से होते हुए हज़रत अली तक पहुंचते हैं। क़ादिरी और कुबरवी सिलसिले क्रमशः इमाम जाफ़र सादिक़ और इमाम मूसी रज़ा से होते हुए हज़रत अली तक पहुंचते हैं।मौलाना जलालुद्दीन रूमी का निश्चित मत है कि मेराज [नबीश्री का उच्चतम आकाश पर अल्लाह की निशानियों के दर्शनार्थ बुलाया जाना] की रात हज़रत मुहम्मद[स0] ने हज़रत अली को दस हज़ार ऐसे रह्स्यों से परिचित कराया जिनका ज्ञान उन्हें अल्लाह ने दिया था [शम्सुद्दीन अफ़लाकी, मनाक़िबुल-आरिफ़ीन,आगरा 1897 ई0,पृ0359]।

निज़ाम यमनी ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के हवाले से लताइफ़े-अशरफ़ी में इस तथ्य से भी अवगत कराया है कि मेराज की रात नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स0] को अल्लाह ने ख़िरक़ा[वह वस्त्र जिसे सूफ़ी पीर अपने सुयोग्य मुरीद को प्रदान करते हैं] प्रदान किया और ताकीद की कि इसे सुयोग्य पात्र को ही दें। नबीश्री ने कुछ विशिष्ट सहाबियों की परीक्षा ली और अन्त में हज़रत अली को सुयोग्य पाकर उन्हें वह ख़िरक़ा प्रदान किया [लताइफ़े-अशरफ़ी,नुसरतुलमताबे देहली,1295हि0,पृ0332]। शेख़ अबू नस्र सिराज तूसी क विचार है कि एक व्यक्ति ने हज़रत अली से पूछा कि ईमान क्या है? हज़रत अली ने उत्तर दिया कि ईमान चार स्तंभों पर टिका हुआ है सब्र[धैर्य], यक़ीन [विश्वास], अद्ल [न्याय] और जिहाद [धर्म-युद्ध]।उसके बाद उन्होंने उन चारो स्तंभों के दस-दस मुक़ामात [पड़ाव] का विवेचन किया। इस दृष्टि से हज़रत अली पहले सूफ़ी हैं जिन्होंने अहवाल [अधयात्म की मनःस्थितियाँ] और मुक़ामात पर बात की। उनका यह भी मानना है कि हज़रत अली पहले व्यक्ति हैं जिन्हें इल्मे लदुन्नी[ईश्वरीय गूढ़ रहस्यों का ज्ञान] प्रदान किया गया। इल्मे-लदुन्नी वह ज्ञान है जो विशेष रूप से हज़रत ख़िज़्र [अ0] को मिला था। [अल्लमअ-फ़ित्तसव्वुफ़, पृ0180 तथा 179]। हज़रत जुनैद बग़दादी का कहना है कि उसूल और आज़माइश के क्षणों में हज़रत अली ही हमारे पीर [शैख़]हैं। उल्लेख्य यह है कि शाह वलीउल्लाह ने भी यह स्वीकार किया है कि हज़रत अली इस उम्मत के पहले सूफ़ी हैं, पहले मजज़ूब [ब्रह्मलीनता की स्थिति में रहने वाला] और पहले आरिफ़ [ईश्वरज्ञ] हैं [फ़ुयूज़ुलहरमैन, मतबा अहमदी देहली,1308 हि0, पृ051]।

मौलाना जलालुद्दीन रूमी ने हज़रत अली से सबद्ध एक रिवायत बयान की है-एक दिन नबीश्री ने हज़रत अली को एकान्त में कुछ असरार[रहस्यों] से अवगत कराया और कहा कि इसे किसी अयोग्य पात्र से मत कहना। हज़रत अली ने महसूस किया कि इन रहस्यों के बोझ से वे दबे जा रहे हैं। तत्काल एक वीराने की ओर निकल गये ।एक कूएं में झुक कर उन्होंने एक-एक करके सारे रहस्य बयान किये। मस्ती की इस स्थिति में मुंह से कुछ झाग भी गिरा जो कूएं के पानी में शामिल हो गया । कुछ दिनों के बाद उसी कूएं से नय [बाँसुरी] का एक वृक्ष उगा जो बढकर बहुत ऊँचा हो गया। एक चरवाहे को किसी प्रकार इस की जानकारी हो गयी। उसने वृक्ष काटकर उसकी बाँसुरी बनाई जिसे बजा-बजा कर मवेशी चराता रहा। अरब के क़बीलों में उसकी बाँसुरी की मिठास की चर्चा होने लगी। जिस समय वह बाँसुरी बजाता, सारे पशु उसे घेर कर बैठ जाते। नबीश्री को जब इसकी सूचना मिली तो उन्होंने चरवाहे को बुलवाया और उसे बाँसुरी बजाने का आदेश दिया । उसकी बाँसुरी सुनकर सारे सहाबी वज्द में झूमने लगे। नबीश्री ने फ़रमाया कि इस बाँसुरी की लय में उन रहस्यों की व्याख्या है जिनसे मैं ने अली को एकान्त में अवगत कराया था[मनाक़िबुला-आरिफ़ीन, पृ0 289]। हो सकता है कि इस रिवायत का कोई ऐतिहास्क महत्त्व न हो और यह मौलाना रूमी की मात्र कल्पना हो। किन्तु मौलाना की मसनवी का प्रारंभ जिस प्रकार बाँसुरी की हिकायत से होता है, उससे यह निश्चित संकेत मिलता है कि हज़रत अली के प्रति मौलाना की अपार श्रद्धा इस रूहानी अनुभूति का आधार थी जिसका ज्ञान उन्हें एक रिवायत के रूप में हुआ।

सूफ़ियों ने हज़रत अली को जहाँ एक ओर सूफ़ी विचारधारा का मूल स्रोत माना है वहीं उन्हें ख़िलाफ़ते-बातिनी [रूहानी ख़लीफ़ा] का अधिकारी भी स्वीकार किया है। हज़रत बन्दानवाज़ गेसू दराज़ की इस प्रसंग में स्पष्ट अवधारणा है- ख़िलाफ़त दो प्रकार की है, ख़िलाफ़ते कुबरा [विराट] और ख़िलाफ़ते- सुग़रा [लघु]।ख़िलाफ़ते कुबरा बातिनी [आन्तरिक अर्थात रूहानी] ख़िलाफ़त है और ख़िलाफ़ते-सुग़रा ज़ाहिरी [व्यक्त अर्थात भौतिक]। ख़िलाफ़ते कुबरा को उम्मत ने एकमत से [ब-इज्माए-उम्मत] हज़रत अली के लिए विशिष्ट माना है।[ सैयद मुहम्मद अकबर हुसैनी, जवामेउल्किलम [मल्फ़ूज़ात व इरशादात ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़],मतबा इन्तेज़ामी कानपूर 1356 हि0,पृ0 98 तथा अब्दुर्रहमान चिश्ती, मिरातुल-असरार,पाण्डुलिपि दारुल-उलूम नदवतुल-उलेमा लखनऊ,पृ0 1/17]। अबू नईम इस्बहानी ने हुलयतुल-औलिया में हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के हवाले से लिखा है कि जब उनसे पूछा गया कि एक आम सुन्नी और एक सूफ़ी में क्या अन्तर है तो उन्होंने कहा कि जिसने रसूल [स0] की ज़ाहिरी ज़िन्दगी की रोशनी में ज़िन्दगी बसर की वह सुन्नी है और जिसने रसूल [स0] के बातिन के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारी वह सूफ़ी है [हुलयतुल-औलिया,दारुलकिताब बैरूत,1980 ई0,पृ0 1/20]। सुन्नी मुस्लिम शरीयताचार्य और मुहद्दिस बातिनी ख़िलाफ़त या रसूल [स0] की बातिनी ज़िन्दगी के पक्ष में नहीं हैं और इल्मे-बातिन को सूफ़ियों की मात्र कल्पना समझते हैं। फलस्वरूप सूफ़ियों की बहुत सी बातें उनकी दृष्टि में अविश्वसनीय हैं। यह स्वाभाविक भी है। ईश्वर के गुप्त रहस्यों का ज्ञान रखने वालों की बातें शरीयताचार्यों की समझ से बाहर होने पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी शेख़ मुहीउद्दिन इब्ने अरबी [अल फ़ुतूहात-अल्मक्किया, मिस्र 1329 हि0, 2/254],शेख़ अबू नस्र सिराज तूसी [अल्लमअ, पृ0 457],शेख़ बायज़ीद बस्तामी [जवामेउलकिलम, पृ0254-273] और तमाम प्रतिष्ठित सूफ़िया इल्मे बातिन में पूर्ण विश्वास रखते हैं। हज़रत अली के इल्मे बातिनी का अनुमान इस बात से भी किया जा सकता है कि हज़रत उमर [र0] के सामने जब भी ऐसी कोई समस्या आती थी जिसका हल उनकी समझ से बाहर होता तो बग़ैर झिझक के हज़रत अली को याद करते।

ख़्वाजा बन्दानवाज़ गेसूदराज़ ने इस प्रसग में एक रिवायत बयान की है। एक बार चार यहूदी हज़रत उमर [र0] के पास आये और कहा के आप के नबी [स0] दुनिया से रेहलत कर गये। आप ख़लीफ़ा हैं। हम कुछ प्रश्न आप से पूछेंगे, अगर आप ने सही जवाब दिये तो हम मान लेंगे कि आप का दीन सच्चा है और अगर आप नहीं बता सके तो इस्लाम एक झूठा दीन है। हज़रत उमर [र0] ने कहा पूछ लो। उन्होंने ये प्रश्न पूछे-* दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला क्या है और उसकी कुंजी क्या है? * जन्नत के दर्वाज़े का ताला क्या है और उसकी कुंजी क्या है? * कौन जीवित रह्ते हुए क़ब्र में था और उसकी क़ब्र उसे लिये-लिये फिरती रही? हज़रत उमर [र0] किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके और कहा के अगर उमर [र0] को कुछ बातें मालूम नहीं हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? यहूदियों ने मज़ाक़ उड़ाना शुरू किया। कुछ लोगों ने दौड़कर इसकी सूचना हज़रत अली को दी और कहा के इस्लाम ख़तरे में है। हज़रत अली ने तत्काल नबीश्री [स0] की क़मीस पहनी, उनकी पगड़ी सिर पर रखी और आकर हज़रत उमर के पहलू में बैठ गये। यहूदियों से कहा पूछ लो क्या पूछना चाहते हो। नबीश्री ने मुझपर इल्म के हज़ार दर्वाज़े और हर दर्वाज़े से हज़ार दर्वाज़े खोले हैं। प्रश्नों का सिल्सिला शुरू हुआ-

यहूदी* दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला क्या है ?

अली * अल्लाह से इतर किसी को उपास्य न मनना और मुहम्मद को रसूलल्लाह [स0] स्वीकार करना दोज़ख़ के दर्वाज़े का ताला है।

यहूदी* इस ताले की कुंजी क्या है ?

अली * किसी को अल्लाह का शरीक ठहराना इस दर्वाज़े की कुंजी है।

यहूदी* जन्नत के दर्वाज़े का ताला क्या है ?

अली * किसी को अल्लह का शरीक ठहराना जन्नत के दर्वाज़े का ताला है।

यहूदि* इस ताले की कुंजी क्या है ?

अली * अल्लाह से इतर किसी को उपास्य न मनना और मुहम्मद को रसूलल्लाह [स0] स्वीकार करना इस दर्वाज़े की कुंजी है।

यहूदी* कौन जीवित रह्ते हुए क़ब्र में था और उसकी क़ब्र उसे लिये-लिये फिरती रही?

अली * वो हज़रत यूनुस अलैहिस्सलाम थे जो मछली के पेट में थे और मछली चलती फिरती थि। [जवामेउलकिल्म, पृ0 254-255]।

नबीश्री की ज़िन्दगी में सहाबी का पद इतना उच्च माना जाता था कि उसके समक्ष सूफ़ी या ज़ुहाद जैसे शब्द नहीं टिक सकते थे। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उस समय तसव्वुफ़ की कोई कल्पना नहीं थी। स्वयं नबीश्री और हज़रत अली का जीवन अधयात्म की दृष्टि से आदर्श था। आधुनिक विद्वान डी0 बी0मैकडान्ल्ड का विचार है कि नबूवत प्राप्त होने से पूर्व नबीश्री [स0] एक सूफ़ी थे [डेवलपमेन्ट आफ़ मुस्लिम थियालोजी, न्यूयार्क 1903 पृ0227]। नबीश्री के जीवन काल में भी हज़रत उवैस क़रनी को,जिन्होंने नबीश्री के कभी दर्शन नहीं किये थे और हज़रत सलमान फ़ारसी को सूफ़ी की श्रेणी में रखा जाता है [हुलयतुल-औलिया,पृ01/185, तबक़ात इब्ने साद 4/53, अलअसाबा फ़ी तमीज़ुस्सहाबा,पृ03/141]। यह भी कहा जात है कि ये लोग पेवन्द लगे हुए वस्त्र पहनते थे[कश्फ़लमह्जूब, पृ038]। कुछ सूफ़ियों की यह भी मान्यता है कि नबीश्री ने हज़रत ओवैस क़रनी के लिए ख़िरक़ा भेजा था[लताइफ़े-अशरफ़ी, पृ0 1/323]। यह भी कहा जाता है कि नबीश्री का ख़िरक़ा जो उनकी कमली थी, हज़रत उमर [र0] या हज़रत अली ने अपनी ख़िलाफ़त के दौर में हज़रत ओवैस क़रनी को नबीश्री की वसीयत के अनुरूप पहुंचाया था [सफ़ीनतुल-औलिया, पृ030]। मुल्ला अली क़ारी ने यद्यपि इस रिवायत का ख्ण्डन किया है [अलमौज़ूआत-अलकबीर,पृ055] किन्तु हसनुज़्ज़माँ ने क़ारी से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है-मैदाने-अरफ़ात में हज़रत उमर[र0] ने हज़रत अली [र0] की मौजूदगी में हज़रत ओवैस क़रनी [र0] को वह क़मीस पहनायी थी जो आँ हज़रत [स0] ने अता फ़रमाई थी और हज़रत अली [र0] ने सिफ़्फ़ीन के मौक़े पर हज़रत ओवैस क़रनी को वह रिदा[चादर] ओढ़ाई जो उन्होंने हुज़ूर [स0] से प्रप्त की थी [ मिरक़ातुल-मफ़ातीह 1/313]। हज़रत ओवैस क़रनी सिफ़्फ़ीन के युद्ध में हज़रत अली की ओर से युद्ध करते हुए शहीद हुए।

सूफ़ी शब्द का प्रयोग पहली बार जिन महात्मा के लिए किया गया वो अबूहाशिम कूफ़ी [निधन 150 हि-] थे [जामी,नफ़हातुल-उन्स,कानपूर 1893, पृ022]। उनका नाम अहमद और उपाधि अबूहाशिम थी और अपने जीवन काल में सूफ़ि के नाम से प्रसिद्ध थे[हुलयतुल-औलिया,पृ0 10/255]।इस प्रसग में डा0 ज़की नजीब ने जाबिर बिन हयान का नाम भी लिया है । अबूहाशिम और जाबिर बिन हयान समकालीन थे[डा0 ज़की नजीब,जाबिर बिन हयान, मतबूआ क़ाहेरा 1981, पृ0 16] अबूहाशिम की स्पष्ट अवधारणा थी कि मनुष्य को उसका घमन्ड और तकब्बुर नष्ट कर देता है। वो कहते थे कि दिल से तकब्बुर को निकालने की तुलना में सूई से पहाड़ खोदना अधिक आसान है [हुलयतुल-औलिया, 10/255]। किन्तु आगे चलकर जो मान्यता हज़रत हसन बसरी और हज़रत राबिआ बसरी को मिली वो प्रारंभिक सूफ़ियों में किसी के हिस्से में नहीं आयी।

हज़रत हसन बसरी का जन्म मदीने में 642 ई0 में हुआ। उनकी वालिदा [माँ] का नाम ख़ैरा था,जो उम्मुलमोमिनीन हज़रत उम्मे सलमा की बाँदी थीं और पिता यासर, ज़ैद इब्ने साबित के आज़ाद कर्दा ग़ुलाम थे। ख़ैरा के यहाँ जब उम्मुलमोमिनीन ने बेटे के जन्म की ख़बर सुनी तो बहुत खुश हुईं और बच्चे को देखने के बाद माँ की ख़्वाहिश पर उसका नाम हसन रखा जो आगे चल कर बहुत बड़े आलिम और सूफ़ी हुए और हज़रत हसन बसरी के नाम से जाने गये। चौदह-पद्रह वर्ष की अवस्था तक हज़रत हसन बसरी मदीने में ही रहे और उम्मुल्मोमिनीन हज़रत उम्मे-सलमा ने उनकी तरबियत का विशेष ख़याल रखा।

चिश्तिया और सुहरवर्दिया सूफ़ियों की अवधारणा है कि इल्मे बातिन जिसे ख़िरक़ा पहनाने की रस्म के रूप में भी स्वीकार किया जाता है हज़रत हसन बसरी को हज़रत अली से प्राप्त हुआ। कुछ इस्लामी आचार्यों का विचार है कि हज़रत जुनैद से पहले ख़िरक़ा पहनाने का रिवाज नहीं था [नफ़हातुल-उन्स; पृ0366, सियरुल-औलिया, पृ0354]। किन्तु अधिकतर सूफ़ी चिन्तक प्रमाणों के साथ इस मत का खण्डन करते हैं। उनकी निश्चित अवधारणा है कि नबीश्री ने हज़रत अली को और हज़रत अली ने हज़रत हसन बसरी और हज़रत कुमैल इब्ने ज़ियाद को ख़िरक़ा पहनाया था [जवामेउलकिलम, पृ0253 तथा नफ़हातुल-उन्स, पृ0 366]। नक़्शबन्दी सिलसिले के आलिम शाह वली उल्लाह ने जब हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात में स्न्देह व्यक्त किया और उसपर प्रश्नचिह्न लगाये तो चिश्तिया सिल्सिले के सूफ़ियों ने इसका जमकर ख्ण्डन किया।

इस प्रसंग में शेख़ फ़ख़्रुद्दीन निज़ामी चिश्ती देहलवी की पुस्तक फ़ख़्रुलहसन विशेष उल्लेख्य है। इसमें विभिन्न प्रामाणिक रिवायतों से हज़रत अली और हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात पर प्रकाश डाला गया है। इस पुस्तक की चिश्ती सिल्सिले में लोकप्रियता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि मौलाना हसनुज़्ज़माँ हैदराबादी ने अरबी भाषा में इसकी व्याख्या अल-क़ौलल्मुस्तह्सन फ़ी फ़ख़्रुलहसन के नाम से की और इसका उर्दू अनुवाद मौलाना अबुलहसनात अब्दुलग़फ़ूर दानापुरी ने अली हसन शीर्षक से किया। इन पुस्तकों का खण्डन अनेक इस्लामी आचार्यों ने करना चाहा, किन्तु किसी को सफलता नहीं मिली।

यह अवधारणा कि हज़रत हसन बसरी की मुलाक़ात किसी भी बदरी [जिसने जंगे बदर में हिस्सा लिया हो] सहाबी से नहीं हुई, सर्वथा निराधार है। हज़रत हसन बसरी जब 656-657 ई0 में सपरिवार मदीने से बसरा आकर बस गये, उस समय बसरा इस्लामी ज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र माना जाता था और वहाँ की मुख्य मस्जिद सहाबा तथा ताबिईन से भरी रहती थी। मदीने में हज़रत उम्मे सलमा की विशेष कृपा के कारण हज़रत हसन बसरी को हज़रत अली, हज़रत अबूज़र ग़िफ़ारी, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास,हज़रत अबू मूसा अशरी,हज़रत अनस इब्ने मलिक इत्यादि से हदीसें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था। यदि शाह वलीउल्लाह की यह बात मान भी ली जाय कि हज़रत अली ने जब मदीने से कूफ़े का सफ़र अख्तियार किया उस समय हज़रत हसन बसरी की उम्र अधिक से अधिक चौदह-पंद्रह वर्ष थी और इतनी कम अवस्था में हज़रत अली से ज्ञान प्राप्त करना कोई अर्थ नहीं रखता,तो इस तथ्य पर विचार अवश्य करना चाहिए कि इमाम शाफ़ई पन्द्रह वर्ष की अवस्था में मुफ़्ती घोषित हो चुके थे। फिर चौदह पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी का ज्ञान प्राप्त करना आश्चर्य का विषय क्यों है। सूफ़ियों की यह भी अवधारणा है कि हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से हज़रत हसन बसरी ने तफ़सीर और तजवीद की शिक्षा प्रप्त की [www.inter-islam.org/biographies/hasanbasri].। बसरे में यह ज्ञान और भी समृद्ध हुआ।

हज़रत हसन बसरी के व्याख्यानों में बड़ी संख्या में विद्वज्जन एकत्र होते थे। हज़रत राबिआ बसरी भी नियमित रूप से इन व्याख्यानों से लाभान्वित होती थीं। यदि किसी दिन हज़रत राबिआ बसरी नहीं आ पाती थीं, हज़रत हसन बसरी व्याख्यान नहीं देते थे। लोगों ने इसका कारण पूछा । हज़रत हसन बसरी ने उत्तर दिया कि वह शर्बत जो उस बर्तन में रखा गया हो जो हाथी के लिए हो उसे च्यूंटी के बर्तन में नहीं उन्डेला जा सकता। एक बार लोगों ने प्रश्न किया कि इस्लाम क्या है और मुस्लिम कौन है ? हज़रत बसरी ने उत्तर दिया। इस्लाम किताब में बन्द है और मुस्लिम मक़बरे में। इसी प्रकार एक बार कुछ लोगों ने प्रश्न किया कि दुनिया [सांसारिकता] और आखिरत [पर्लोक] क्या है ? हज़रत हसन बसरी ने उततर दिया दुनिया और आख़िरत की मिसाल पूर्व और पश्चिम जैसी है।यदि तुम एक की दिशा में बढते जाओगे तो दूसरे से सहज ही दूर हो जाओगे।

तसव्वुफ़ की ओर पूरी तरह आने से पूर्व हज़रत हसन बसरी पर कुछ घटनाओं का विशेष प्रभाव पड़ा। एक बार एक शराबी डगमगाता चल रहा था। सामने गडढा था। हज़रत हसन बसरी ने उसे सतर्क किया। उसने उत्तर दिया हसन यदि मैं गिरूंगा तो केवल मेरे शरीर को चोट पहुंचेगी। तुम अपना विशेष ख़याल रखो, इसलिए कि यदि तुम गिर गये तो तुम्हारी सारी इबादत ख़ाक में मिल जायेगी।एक बच्चा एक दिन एक रौशन चिराग़ ले कर चल रहा था। हज़रत हसन बसरी ने उस से कहा ये रोशनी तुम कहाँ से लायेबच्चे ने चिराग़ बुझा दिया और प्रश्न किया अब मुझे आप बताइए कि रोशनी कहाँ चली गयी।एक और घटना जो बज़ाहिर बहुत साधारण सी है, लेकिन हज़रत हसन बसरी के लिए महत्त्व्पूर्ण बन गयी। एक सुन्दर युवती गली से गुज़र रही थी। उसका सर खुला हुआ था और वह अपने पति के ख़िलाफ़ कुछ बड़बड़ा रही थी। हज़रत हसन बसरी ने उससे सर ढकने के लिए कहा। उसने पहले तो आभार व्यक्त किया फिर कहा। हसन ये बताओ कि मैं तो अपने पति की मुहब्बत में ऐसी दिवानी हूं कि मुझे ये भी होश नहीं कि मेरा सर खुला हुआ है, यदि तुम न बताते तो मुझे इसका ख़याल भी न रहता । पर मुझे आश्चर्य है कि तुम अल्लाह से मुहब्बत के दावे करते हो फिर भी तुम्हें इतना होश रहता है कि तुम हर वो चीज़ जो तुम्हारे रास्ते में आती है उसके प्रति चौकन्ने रह्ते हो। यह अल्लाह से तुम्हारी किस प्रकार की मुहब्बत है ?”[sufiesaints.s5.com]

जिस ज़माने में हज़रत हसन बसरी बसरे में मिम्बर से व्याख्यान दिया करते थे कुछ क़ुस्सास [कथावाचक] भी मिम्बरों से व्यख्यान देने लगे । हज़रत अली जब बसरा तशरीफ़ लाये तो उन्होंने सभी के मिम्बर तुड़वा दिये। केवल हज़रत हसन बसरी का मिम्बर उनकी अनुमति से सुरक्षित रह गया। हज़रत अली से हज़रत हसन बसरी को ये इजाज़त मिलना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।[जवमेउल-किलम, पृ0254]।

हज़रत हसन बसरी अक्सर कहा करते थे कि लोग उस सांसारिकता के पक्षधर क्यों हैं जिसका अन्त क़ब्र है। ऐसा कभी नहीं हुआ किहज़रत हसन बसरी की आँखे नम न पायी गयी हों। आप से निरन्तर रोते रहने क कारण पूछा गया तो आपने उत्तर दिया कि मैं उस दिन के लिए रोता हूं जिस दिन मुझसे कोई ऐसी ख़ता हो गयी हो कि अल्लाह प्रश्न करे और कह दे कि हसन तुम हमारी बारगाह में बैठने के योग्य नहीं हो। हज़रत हसन बसरी का कहना था कि इस संसार में नफ़्स [अहं] से अधिक सरकश कोई जानवर नहीं जो सख़्ती से लगाम के लायक़ हो। उनकी अवधारणा थी कि बुद्धिमान बोलने से पहले सोचता है और मूर्ख बोलने के बाद्। उनका दृढ विश्वास था कि झूठा व्यक्ति सबसे अधिक नुक़्सान ख़ुद को पहुंचाता है। उनका कहना था कि इस ससार को अपनी सवारि समझो और उसपर नियंत्रण रखो।यदि तुम इस पर सवार हुए तो ये तुम्हें मज़िल तक ले जायेगी और यदि तुमंने इसे ख़ुद पर सवार कर लिया तो तुम्हारे हिस्से में केवल ज़िल्लत है।

हज़रत हसन बसरी का व्यक्तित्त्व एक ऐसा प्रकाश पुंज है जिस से हर कोई रोशनी प्राप्त कर सकता है। आपका निधन छियासी वर्ष की अवस्था में बसरे में 728ई0 में हुआ।

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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

फ़िज़ा में आइनों के अक्स जब दम तोड़ देते हैं

फ़िज़ा में आइनों के अक्स जब दम तोड़ देते हैं।
रुपहले ख़्वाब सब थक हार कर हम तोड़ देते हैं॥

लिए मजबूरियाँ हम दर-ब-दर फिरते हैं बस्ती में,
कभी ज़ख़्मों की सौग़ातें कभी ग़म तोड़ देते हैं॥

लबालब मय न हो तो लुत्फ़ पीने का नहीं आता,
वो साग़र जिसमें हो मेक़दार कुछ कम तोड़ देते हैं॥

रुलाया है बहोत उसने तुझे अफ़सुरदा लमहों में,
तअल्लुक़ उस से अब ऐ चश्मे पुरनम तोड़ देते हैं॥

जुनूं में होश अपनी ज़िन्दगी का कुछ नहीं होता,
बनाते हैं जिसे हम ख़ुद वो आलम तोड़ देते हैं॥
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मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

अल्ताफ़ हुसैन हाली और हयाते-जावेद / प्रो0 शैलेश ज़ैदी

अल्ताफ़ हुसैन हाली और हयाते-जावेद [हिन्दी अनुवाद]

अल्ताफ़ हुसैन हाली [1837-1914] उर्दू के उन प्रख्यात साहित्यकारों में हैं जिन्होंने कविता और आलोचना को नए आयामों से परिचित कराया. मिरज़ा गालिब के शिष्य होने का दायित्व उनकी वैचारिकता में झलकता भी है और उनके लेखन में मुखर भी दिखायी देता है. प्रारंभिक शिक्षा अपने पैतृक वतन पानीपत से प्राप्त करने के बाद दिल्ली आये. मिरज़ा ग़ालिब की काव्य-कला और उनके ज्ञान से लाभान्वित हुए और इस क़र्ज़ को चुकाने में भी कोई कमी नहीं की ग़ालिब के जीवन और उनके काव्य-सौष्ठव को एक नए कोण से व्याख्यायित किया, नौकरी भी की किंतु 1857 की महाक्रान्ति ने पानीपत लौटने पर विवश कर दिया.

महाक्रान्ति की असफलता के बाद एक बार फिर 1860 ई0 के प्रारंभिक महीनों में हाली को दिल्ली आने का अवसर प्राप्त हुआ. इन्हीं दिनों में नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता के माध्यम से हाली की सर सैयद अहमद खान से भेंट हुई थी. वे उनके व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित हुए. दिल्ली पूरी तरह उजड़ चुकी थी और उर्दू के चर्चित कवियों में से कई एक अंग्रेजों के आक्रोश की लपेट में अपनी जानें गँवा बैठे थे. शेख इमाम बख्श सहबाई कूचा चेलान के अन्य बाशिंदों के साथ ग़दर के दोषी ठहराए गए थे और उन्हें उनके परिवार के इक्कीस सदस्यों के साथ क़त्ल कर दिया गया था. मुंशी सदरुद्दीन 'आजुर्दा' बागियों के साथ सहयोग के दोषी घोषित किए जा चुके थे और नोकरी,माल-जायदाद इत्यादि से वंचित होकर एक कड़वा जीवन व्यतीत कर रहे थे. उर्दू के अन्य साहित्यकारों की स्थिति भी दयनीय हो चुकी थी.

संकल्प की दृढ़ता ने, कई वर्षों तक एक के बाद एक कई नोकारियों की ख़ाक छानने के बावजूद, हाली को लाहौर में थोड़ा स्थैर्य प्रदान किया. सर सैयद अहमद खान का सुझाव उनके मन में पूरी तरह बैठ गया और उन्होंने 1870 में अपने महाकाव्य 'मुसद्दसे-मद्दों-जज्रे-इस्लाम' की रचना प्रारंभ की जो आगे चलकर 'मुसद्दसे-हाली' के नाम से प्रसिद्ध हुआ. 1879 में इस महाकाव्य के प्रकाशन ने हाली की प्रतिभा का न केवल लोहा मनवा लिया, उन्हें उर्दू के आधुनिक साहित्य का जनक भी स्वीकार किया गया. और फिर हाली की महत्त्वपूर्ण कृति 'मुक़द्दमए-शेरो-शायरी' के प्रकाशन से आधुनिक उर्दू आलोचना को एक नई दिशा ही नहीं मिली, वैचारिकता के धरातल और चिंतन के प्रतिमान भी बदलते दिखाई दिए.

उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक से ही अंग्रेजों के निरंतर बढ़ते हौसलों से भारतीय जनमानस तंग आ चुका था. रियासतें एक-एक कर के विनष्ट की जा चुकी थीं और साम्राज्य की सीमाएं फैलाने के उद्देश्य से बहाने तलाश कर-कर के देशी राजाओं को पदच्युत किया जा रहा था. 1849 तक पंजाब भी अंग्रेजों के अधीन हो चुका था. भारत की दौलत खुले आम लुट रही थी और व्यापार तथा शिल्प दम तोड़ रहे थे. सामजिक स्तर पर मिशनरी क्रिया-कलापों ने इस संदेह को दृढ़ बना दिया था कि अंग्रेजों की नीयत हिन्दुस्तानियों को ईसाई बनाने की है. महाक्रान्ति के बाद बुरी तरह कुचले जाने के कारण उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध मुसलामानों के लिए चुनौतियों से भरा हुआ था. सर सैयद अहमद खान ने इस स्थिति को यदि धैर्य-पूर्वक न संभाला होता तो स्थिति कुछ भी हो सकती थी.

सर सैयद [1817-1898] का व्यक्तित्व उनकी अदभुत दूरदर्शिता, विवेकधर्मिता, संवेदनशीलता और स्वदेश-भक्ति के तानों बानों से निर्मित था. इस व्यक्तित्व के मूल में तत्कालीन मुस्लिम समाज की आर्थिक-विपन्नता, शैक्षिक पिछडेपन और विवेक-शून्य भावुकता के प्रति अपूर्व पीड़ा थी. धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद खान ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई० में असबाबे-बगावते-हिंद शीर्षक एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया. सर सैयद के मित्र राय शंकर दास ने जो उन दिनों मुरादाबाद में मुंसिफ थे सर सैयद को समझाया भी कि वे पुस्तकों को जला दें और अपनी जान खतरे में न डालें. किंतु सर सैयद ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका यह कार्य देशवासियों और सरकार की भी भलाई के लिए आवश्यक है. इसके लिए जान-माल का नुकसान उठाने का खौफ उनके मार्ग में अवरोधक नहीं बन सका. क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं.

सर सैयद अहमद खान जानते थे कि पंजाब से लेकर बिहार तक का क्षेत्र आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंग्रेज़ी शिक्षा में बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में बहुत पीछे है. उसे राजनीति से कहीं अधिक शिक्षा की आवश्यकता है. उस शिक्षा की जो मनुष्य में भावुकता के स्थान पर विवेक को जन्म देती है, संकीर्णता और धर्मान्धता की जगह संतुलित और संवेदनशील जीवनदृष्टि प्रदान करती है और स्वदेशवासियों के प्रति दायित्व के एहसास से आत्मा का परिष्कार करती है. उन्होंने 1864 में इसी उद्देश्य से साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश को आम पढ़े-लिखे शहरी तक पहुंचाने का प्रयास किया. शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो अपनी सारी जमा-पूँजी यहांतक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की. लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 ई0 में अलीगढ़ में मदरसतुलउलूम की स्थापना की जो दो वर्षों बाद 1877 में एम.ए.ओ. कालेज के नाम से जाना गया और 1920 में जिसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया.

सर सैयद के एम.ए.ओ. कालेज के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले थे. पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा की भी व्यवस्था की गई. स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं. केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए.सकूल तथा कालेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया. कालेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई. एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था.

उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान इस दृष्टि से अद्वितीय हैं कि उन्होंने कभी अकेले मुसलमानों को संबोधित नहीं किया. उनके भाषणों में हिन्दू मुसलमान बराबर से शरीक होते थे. यह सौभाग्य राजा राम मोहन राय को भी प्राप्त नहीं हुआ। सर सैयद ने मुसलमानों की दशा सुधरने के लिए यदि कुछ किया या करना चाहा तो अपने हिन्दू मित्रों के सुझाव और सहयोग को नज़रंदाज़ नहीं किया. उन्होंने हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के पिछडेपन के प्रति गहरी सहानुभूति जगाई. परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर कालेज के लिए मुसलमानों ने चंदा दिया वहीं हिन्दुओं का सहयोग भी कम नहीं मिला.

सर सैयद का व्यक्तित्व बहुआयमी था। वे एक अच्छे गद्यकार थे, चिन्तक और विचरक थे,समय की नाड़ी और उसकी गति पर उनकी दृष्टि थी,धर्म, इतिहास, रजनीति, शिक्षा शास्त्र, विज्ञान और पुरातत्व की बरीकियों को सम्झते थे और स्वस्थ पत्रकारित के माधयम से सामान्य शिक्षित वर्ग में जागरूकता फूंकने के पक्षधर थे।

सर सैयद के निधनोपरान्त उनके मित्र और सहयोगी मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली ने उनकी जीवनी हयाते-जावेद लिखने क निश्चय किया जिसके लिए वे पहले से सामग्री जुटा रहे थे। सर सैयद को अच्छी-बुरी सभी परिस्थितियों में हाली ने बहुत निकट से देखा था, इस दृष्टि से उन्हें यह जीवनी लिखने का अधिकार भी था। इस जीवनी को वैज्ञनिक कोण से विवेचित करने पर इसमें कुछ कमियाँ खोजी जा सकती हैं, किन्तु बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक की यह सर्वश्रेष्ठ जीवनी कही जा सकती है जो उर्दू भाषा में लिखी गयी। अंग्रेज़ी भाषा में इसका अनुवाद के0 एच0 क़ादिरी तथा जे0 मेथ्यूज़ के प्रयास से 1979 ई0 में ही हो गया था, किन्तु हिन्दी भाषी जनता इस से लगभग अनभिज्ञ सी थी। राजीवलोचन नाथ शुक्ल और पर्वेज़ फ़ातिमा के प्रयास से इस कार्य को सपन्न होते देख कर मैं सन्तोष का अनुभव कर रहा हूं। चूंकि यह कार्य मेरी देख-रेख में हुआ है, मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि जो कमियाँ अंग्रेज़ी अनुवादकों से रह गयी थीं, इस अनुवाद में नहीं हैं। राजीवलोचन नाथ शुक्ल तो अनुवाद विशेषज्ञ के रूप में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत हैं और पर्वेज़ फ़तिमा हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा और साहित्य का अच्छा ज्ञान रखती हैं और इस से पूर्व भी उर्दू से हिन्दी में कैई सफल अनुवाद कर चुकी हैं। मुझे विश्वास है कि हिन्दी जगत में इस बहुमूल्य पुस्तक का स्वागत होगा।

हो चुकी हैं राख जलकर बस्तियाँ ऐसी भी हैं

हो चुकी हैं राख जलकर, बस्तियाँ ऐसी भी हैं।
आँख हो जाती हैं नम महरूमियाँ ऐसी भी हैं॥

झीने आँचल में समेटें धूप ये मुम्किन नहीं,
बर्फ़ सी चुभती हैं दिल में बदलियाँ ऐसी भी हैं॥

अब तो बाग़ीचे में कोई फूल खिलता ही नहीं,
नाउमीदी की ख़िज़ाँ-अँगड़ाइयाँ ऐसी भी हैं॥

चान्दनी के फ़र्श पर होता है जब ख़्वाबों का रक़्स,
छेड़ देती हैं ग़ज़ल अँगनाइयाँ ऐसी भी हैं॥

जिस्म को छू कर ठहर जाती हैं दिल के पास ही,
नर्मो-नाज़ुक, सीम-तन पुर्वाइयाँ ऐसी भी हैं॥

कोई भी मौसम हो आहिस्ता से आकर बज़्म में,
कौन्द सी जाती हैं दिल में बिजलियाँ ऐसी भी हैं॥
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उम्र के इस मोड़ पर तुझ से तमन्ना क्या करें

उम्र के इस मोड़ पर तुझ से तमन्ना क्या करें।
सामने आँखों के हो तू और बस देखा करें॥

परवरिश करते रहे अपनों की हासिल क्या हुआ,
अब यही बेहतर है थोड़े जानवर पालाकरें॥

ऐन मुम्किन है के हम हो जायें ख़ुद भी मह्वे-रक़्स,
बाँसुरी रख कर लबों पर सुर नये पैदा करें॥

वैसे तो शायद कभी छू भी न पाओ तुम हमें,
हाँ उड़ा सकते हो गर्दन जब भी हम सज्दा करें॥

मुद्दतों से है ख़लाओं में हमारी बूदो-बाश,
छोड़ कर उसको ज़मीं पर किस लिए उतरा करें॥
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