अल्ताफ़ हुसैन हाली और हयाते-जावेद [हिन्दी अनुवाद]
अल्ताफ़ हुसैन हाली [1837-1914] उर्दू के उन प्रख्यात साहित्यकारों में हैं जिन्होंने कविता और आलोचना को नए आयामों से परिचित कराया. मिरज़ा गालिब के शिष्य होने का दायित्व उनकी वैचारिकता में झलकता भी है और उनके लेखन में मुखर भी दिखायी देता है. प्रारंभिक शिक्षा अपने पैतृक वतन पानीपत से प्राप्त करने के बाद दिल्ली आये. मिरज़ा ग़ालिब की काव्य-कला और उनके ज्ञान से लाभान्वित हुए और इस क़र्ज़ को चुकाने में भी कोई कमी नहीं की ग़ालिब के जीवन और उनके काव्य-सौष्ठव को एक नए कोण से व्याख्यायित किया, नौकरी भी की किंतु 1857 की महाक्रान्ति ने पानीपत लौटने पर विवश कर दिया.
महाक्रान्ति की असफलता के बाद एक बार फिर 1860 ई0 के प्रारंभिक महीनों में हाली को दिल्ली आने का अवसर प्राप्त हुआ. इन्हीं दिनों में नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता के माध्यम से हाली की सर सैयद अहमद खान से भेंट हुई थी. वे उनके व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित हुए. दिल्ली पूरी तरह उजड़ चुकी थी और उर्दू के चर्चित कवियों में से कई एक अंग्रेजों के आक्रोश की लपेट में अपनी जानें गँवा बैठे थे. शेख इमाम बख्श सहबाई कूचा चेलान के अन्य बाशिंदों के साथ ग़दर के दोषी ठहराए गए थे और उन्हें उनके परिवार के इक्कीस सदस्यों के साथ क़त्ल कर दिया गया था. मुंशी सदरुद्दीन 'आजुर्दा' बागियों के साथ सहयोग के दोषी घोषित किए जा चुके थे और नोकरी,माल-जायदाद इत्यादि से वंचित होकर एक कड़वा जीवन व्यतीत कर रहे थे. उर्दू के अन्य साहित्यकारों की स्थिति भी दयनीय हो चुकी थी.
संकल्प की दृढ़ता ने, कई वर्षों तक एक के बाद एक कई नोकारियों की ख़ाक छानने के बावजूद, हाली को लाहौर में थोड़ा स्थैर्य प्रदान किया. सर सैयद अहमद खान का सुझाव उनके मन में पूरी तरह बैठ गया और उन्होंने 1870 में अपने महाकाव्य 'मुसद्दसे-मद्दों-जज्रे-इस्लाम' की रचना प्रारंभ की जो आगे चलकर 'मुसद्दसे-हाली' के नाम से प्रसिद्ध हुआ. 1879 में इस महाकाव्य के प्रकाशन ने हाली की प्रतिभा का न केवल लोहा मनवा लिया, उन्हें उर्दू के आधुनिक साहित्य का जनक भी स्वीकार किया गया. और फिर हाली की महत्त्वपूर्ण कृति 'मुक़द्दमए-शेरो-शायरी' के प्रकाशन से आधुनिक उर्दू आलोचना को एक नई दिशा ही नहीं मिली, वैचारिकता के धरातल और चिंतन के प्रतिमान भी बदलते दिखाई दिए.
उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक से ही अंग्रेजों के निरंतर बढ़ते हौसलों से भारतीय जनमानस तंग आ चुका था. रियासतें एक-एक कर के विनष्ट की जा चुकी थीं और साम्राज्य की सीमाएं फैलाने के उद्देश्य से बहाने तलाश कर-कर के देशी राजाओं को पदच्युत किया जा रहा था. 1849 तक पंजाब भी अंग्रेजों के अधीन हो चुका था. भारत की दौलत खुले आम लुट रही थी और व्यापार तथा शिल्प दम तोड़ रहे थे. सामजिक स्तर पर मिशनरी क्रिया-कलापों ने इस संदेह को दृढ़ बना दिया था कि अंग्रेजों की नीयत हिन्दुस्तानियों को ईसाई बनाने की है. महाक्रान्ति के बाद बुरी तरह कुचले जाने के कारण उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध मुसलामानों के लिए चुनौतियों से भरा हुआ था. सर सैयद अहमद खान ने इस स्थिति को यदि धैर्य-पूर्वक न संभाला होता तो स्थिति कुछ भी हो सकती थी.
सर सैयद [1817-1898] का व्यक्तित्व उनकी अदभुत दूरदर्शिता, विवेकधर्मिता, संवेदनशीलता और स्वदेश-भक्ति के तानों बानों से निर्मित था. इस व्यक्तित्व के मूल में तत्कालीन मुस्लिम समाज की आर्थिक-विपन्नता, शैक्षिक पिछडेपन और विवेक-शून्य भावुकता के प्रति अपूर्व पीड़ा थी. धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद खान ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई० में असबाबे-बगावते-हिंद शीर्षक एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया. सर सैयद के मित्र राय शंकर दास ने जो उन दिनों मुरादाबाद में मुंसिफ थे सर सैयद को समझाया भी कि वे पुस्तकों को जला दें और अपनी जान खतरे में न डालें. किंतु सर सैयद ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका यह कार्य देशवासियों और सरकार की भी भलाई के लिए आवश्यक है. इसके लिए जान-माल का नुकसान उठाने का खौफ उनके मार्ग में अवरोधक नहीं बन सका. क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं.
सर सैयद अहमद खान जानते थे कि पंजाब से लेकर बिहार तक का क्षेत्र आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंग्रेज़ी शिक्षा में बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में बहुत पीछे है. उसे राजनीति से कहीं अधिक शिक्षा की आवश्यकता है. उस शिक्षा की जो मनुष्य में भावुकता के स्थान पर विवेक को जन्म देती है, संकीर्णता और धर्मान्धता की जगह संतुलित और संवेदनशील जीवनदृष्टि प्रदान करती है और स्वदेशवासियों के प्रति दायित्व के एहसास से आत्मा का परिष्कार करती है. उन्होंने 1864 में इसी उद्देश्य से साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश को आम पढ़े-लिखे शहरी तक पहुंचाने का प्रयास किया. शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो अपनी सारी जमा-पूँजी यहांतक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की. लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 ई0 में अलीगढ़ में मदरसतुलउलूम की स्थापना की जो दो वर्षों बाद 1877 में एम.ए.ओ. कालेज के नाम से जाना गया और 1920 में जिसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया.
सर सैयद के एम.ए.ओ. कालेज के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले थे. पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा की भी व्यवस्था की गई. स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं. केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए.सकूल तथा कालेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया. कालेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई. एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था.
उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान इस दृष्टि से अद्वितीय हैं कि उन्होंने कभी अकेले मुसलमानों को संबोधित नहीं किया. उनके भाषणों में हिन्दू मुसलमान बराबर से शरीक होते थे. यह सौभाग्य राजा राम मोहन राय को भी प्राप्त नहीं हुआ। सर सैयद ने मुसलमानों की दशा सुधरने के लिए यदि कुछ किया या करना चाहा तो अपने हिन्दू मित्रों के सुझाव और सहयोग को नज़रंदाज़ नहीं किया. उन्होंने हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के पिछडेपन के प्रति गहरी सहानुभूति जगाई. परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर कालेज के लिए मुसलमानों ने चंदा दिया वहीं हिन्दुओं का सहयोग भी कम नहीं मिला.
सर सैयद का व्यक्तित्व बहुआयमी था। वे एक अच्छे गद्यकार थे, चिन्तक और विचरक थे,समय की नाड़ी और उसकी गति पर उनकी दृष्टि थी,धर्म, इतिहास, रजनीति, शिक्षा शास्त्र, विज्ञान और पुरातत्व की बरीकियों को सम्झते थे और स्वस्थ पत्रकारित के माधयम से सामान्य शिक्षित वर्ग में जागरूकता फूंकने के पक्षधर थे।
सर सैयद के निधनोपरान्त उनके मित्र और सहयोगी मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली ने उनकी जीवनी “हयाते-जावेद” लिखने क निश्चय किया जिसके लिए वे पहले से सामग्री जुटा रहे थे। सर सैयद को अच्छी-बुरी सभी परिस्थितियों में हाली ने बहुत निकट से देखा था, इस दृष्टि से उन्हें यह जीवनी लिखने का अधिकार भी था। इस जीवनी को वैज्ञनिक कोण से विवेचित करने पर इसमें कुछ कमियाँ खोजी जा सकती हैं, किन्तु बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक की यह सर्वश्रेष्ठ जीवनी कही जा सकती है जो उर्दू भाषा में लिखी गयी। अंग्रेज़ी भाषा में इसका अनुवाद के0 एच0 क़ादिरी तथा जे0 मेथ्यूज़ के प्रयास से 1979 ई0 में ही हो गया था, किन्तु हिन्दी भाषी जनता इस से लगभग अनभिज्ञ सी थी। राजीवलोचन नाथ शुक्ल और पर्वेज़ फ़ातिमा के प्रयास से इस कार्य को सपन्न होते देख कर मैं सन्तोष का अनुभव कर रहा हूं। चूंकि यह कार्य मेरी देख-रेख में हुआ है, मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि जो कमियाँ अंग्रेज़ी अनुवादकों से रह गयी थीं, इस अनुवाद में नहीं हैं। राजीवलोचन नाथ शुक्ल तो अनुवाद विशेषज्ञ के रूप में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत हैं और पर्वेज़ फ़तिमा हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा और साहित्य का अच्छा ज्ञान रखती हैं और इस से पूर्व भी उर्दू से हिन्दी में कैई सफल अनुवाद कर चुकी हैं। मुझे विश्वास है कि हिन्दी जगत में इस बहुमूल्य पुस्तक का स्वागत होगा।