शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010
सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा
सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा ।
डर था के न हम हो जायें कहीं आसेब-ज़दा॥
हम कुछ बरसों से सोच के ये बेचैन से हैं,
आते हैं नज़र क्यों मज़हबो-दीं आसेब-ज़दा ॥
ये वक़्त है कैसा गहनाया गहनाया सा,
फ़िकरें हैं सभी अफ़्सुरदा-जबीं आसेब-ज़दा ॥
तख़ईल के चूने गारे से तामीर किया,
हमने जो मकाँ, हैं उसके मकीं आसेब-ज़दा ॥
महफ़ूज़ नहीं कुछ द्श्ते-बला के घेरे में,
हैराँ हूँ के हैं अफ़लाको-ज़मीं आसेब-ज़दा ॥
नाहक़ हैं परीशाँ-हाल से क्यों जाफ़र साहब,
इस दुनिया में कुछ भी तो नहीं आसेब-ज़दा॥
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मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता
मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता।
पियाला शौक़ का शायद कभी नहीं भरता॥
सुपुर्दगी के है जज़बे में बे-ख़ुदी का ख़मीर,
शुआए-ज़ीस्त में रंगे- ख़ुदी नहीं भरता ॥
सफ़ीना ख़्वाबों का ग़रक़ाब हो भी जाये अगर,
मैं आह कोई कभी क़त्तई नहीं भरता ॥
न रख के आता मैं सर मयकदे की चौखट पर,
तो आज साक़ी मेरा जाम भी नहीं भरता ॥
जो ज़र्फ़ ख़ाली है कितनी सदाएं देता रहे।
हवा भरी हो जहाँ कुछ कोई नहीं भरता॥
अना ये कैसी है जो कर रही है तनहा मुझे,
मैं अपनी ज़ात में क्यों सादगी नहीं भरता॥
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सुना है नरग़ए-आदा है रेगज़ारों में
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
जहान सिमटा हुआ है लफ़्ज़ों के दायरे में
लुत्फ़े-दर्दे-लादवा रानाइए-असरारे-ज़ीस्त्
सोमवार, 8 फ़रवरी 2010
फ़िज़ा शिकन-ब-जबीं है वहाँ न जाइयेगा
फ़िज़ा शिकन-ब-जबीं है वहाँ न जाइयेगा।
वहाँ ख़ुलूस नहीं है वहाँ न जाइयेगा ॥
बिछाए बैठे हैं बारूद लोग राहों में,
फ़साद ज़ेरे-ज़मीं है वहाँ न जाइयेगा॥
फ़सुर्दगी के बदन पर है बूए-गुल की नक़ाब,
फ़रेब तख़्त-नशीं है वहाँ न जाइयेगा॥
हरेक सम्त मिलेगा सुलगती राख का ढेर,
न अब मकाँ न मकीं है वहाँ न जाइयेगा॥
वो मैकदा है वहाँ रस्मे-इश्क़ का है चलन,
वहाँ न धर्म न दीं है वहाँ न जाइयेगा॥
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फ़िज़ा=वतावरण, शिकन-ब-जबीं=माथे पर सिल्वटें पड़ना, ख़ुलूस=आत्मीयता, फ़साद=उपद्रव, ज़ेरे-ज़मीं=ज़मीन के नीचे, फ़सुर्दगी=मलिनता, बूए-गुल=फूल की सुगंध, नक़ाब=आवरण, फ़रेब=धोका, तख़्त-नशीं=सिंहासन पर बैठा हुआ, मकीं=मकान में रहने वाला,मैकदा=मदिरालय, रस्मे-इश्क़=प्रेम-सहिता,दीं=एकेश्वरवाद में आस्था।